होली पर इतना तनाव क्यों
होली गुजर गई, लेकिन माहौल बेहद तनावपूर्ण रहा। हमने जिस भाव और रंगों में होली को देखा और खेला है, वे आज गायब लगे। रंगों के इंद्रधनुष थे, उल्लास और उमंग के भाव भी थे, लेकिन विभाजन और कड़वाहट भी थी। जब मस्जिदों को तिरपाल से ढका जा रहा था, तब मन स्तब्ध था। लगातार सवाल उठते रहे कि आखिर हम किस देश में रह रहे हैं? हमारी धर्मनिरपेक्षता, सहिष्णुता और भाईचारा कहां गायब हो गए? मस्जिद को तिरपाल से क्यों ढका गया था? क्या होली के रंगों से भी कोई नापाक होता है? उप्र के 15 जिलों में तिरपालबाजी की गई। यह कोई सामान्य स्थिति नहीं थी? हमने तो ऐसा कभी नहीं देखा। होली के दिन तो रूठने वाले भी खुश हो जाते हैं। यह त्योहार ही सद्भाव, सौहार्द और उल्लास का है। बेशक 2020 के बाद कुछ मस्जिदों पर तिरपालें डाली जाती रही हैं, लेकिन उनमें न तो तनाव था, न नफरत, न सांप्रदायिक दंगों की साजिशें और न ही वे सुर्खियां बनीं। अद्र्धसैन्य बलों, पीएसी, पुलिस और सरकार के तनाव और सुरक्षा के फोकस उप्र के संभल जिले पर ही थे। गली-मुहल्लों में इतने जवान तैनात थे अथवा मार्च कर रहे थे कि आम आदमी के गुजरने की जगह ही बेहद संकरी थी। ऐसा लगता रहा मानो किसी आतंकी हमले की आशंका हो! साल भर में ‘52 जुमे (शुक्रवार) बनाम होली का एक जुमा’ मुहावरा एक पुलिस अधिकारी ने उछाला और उप्र सरकार ने उसे नोटिस थमाने के बजाय होली का एजेंडा ही बना लिया। नेता उसी तर्ज पर बयान देने लगे। मंत्री संजय निषाद ने कहा कि जिन्हें रंगों से परहेज है, वे देश छोड़ कर पाकिस्तान चले जाएं।
हरियाणा सरकार के मंत्री अनिल विज एक कदम और आगे बढ़ गए- ‘हिंदुस्तान हिंदुओं के लिए ही है।’ कइयों ने यह व्यंग्य भी कसा कि रंग न खेलने वाले अपने घरों में ही बंद रहें, बच्चों के साथ खुश रहें और नमाज भी घर में ही पढ़ लें। आखिर यह किस संविधान के अनुच्छेद या कानून की धारा में लिखा है? क्या यह देश किसी धर्म, समुदाय विशेष की बपौती है? सवाल यह भी है कि शुक्रवार को होली या किसी अन्य पर्व के साथ दूसरे समुदायों के त्योहार भी हो सकते थे! ऐसे तनाव हिंदुओं और जैन, सिखों, पारसी, ईसाई, बौद्धों के बीच कभी नहीं देखे गए। हिंदू और मुसलमान के दरमियान ही तनाव, नफरत क्यों होती है? 1964 में भी होली और रमजान का जुमा साथ-साथ मनाए गए थे। तनाव की न तो तिरपालें ढकी गईं और न ही कोई सांप्रदायिक दंगा हुआ। अब बेशक उप्र सरकार दावा कर रही है कि होली शांति से मनाई गई। कहीं, कुछ भी गलत या अनिष्ट नहीं हुआ, लेकिन उप्र के ही शाहजहांपुर, उन्नाव, बिजनौर, अलीगढ़, मुरादाबाद के अलावा लखनऊ और अयोध्या तक में तनावग्रस्त झड़पें क्यों हुईं? सवाल यह भी किया जाना चाहिए कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ हर वक्त ‘सनातन’ और ‘80:20’ की माला क्यों फेरते रहते हैं? यह भाजपा का वोट-मंत्र हो सकता है, लेकिन प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री तो सभी के होते हैं। उप्र ही नहीं, झारखंड के रांची, हजारीबाग, गिरिडीह, बिहार के पटना और मुंगेर, राजस्थान के सीकर और पंजाब के लुधियाना आदि में खूब पथराव किए गए, कांच की बोतलों से प्रहार किए गए, दुकानों और पुलिस वाहनों को फूंक दिया गया। मुंगेर में तो हत्या की होली खेली गई। आखिर इतना गुस्सा, इतनी नफरत, एक-दूसरे को मार देने की खुंदक क्यों थी? होली पर इन कुत्सित भावों और जानलेवा हमलों के मायने ही क्या हैं? यह पर्व देश के करीब 116 करोड़ हिंदुओं और करीब 21 करोड़ मुसलमानों की अग्निपरीक्षा थी, जिसमें समग्र रूप से सभी नाकाम रहे। होली तो मुगल बादशाह भी खेलते थे। याद करो अमीर खुसरो और बुल्ले शाह की कविताएं। तनाव की तिरपालें बेमानी थीं और विभाजक थीं।
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