नाम के लिए तेरा नाम
बलिदानों का भी विभाजन संभव है, लेकिन आज की सियासत ने यह करिश्मा भी दिखाना शुरू किया है। हिमाचल विधानसभा के बजट सत्र ने चर्चा की चुनरी ओढ़ा कर बलिदान में भी राजनीति के रंग देख लिए। बात नेताओं के नाम पर योजनाएं चलाने पर भी पहुंची, तो तमाम शिलान्यास पट्टिकाएं उलझ गईं। इसी संदर्भ में अटल बिहारी वाजपेयी का मनाली से रिश्ता भी सुर्खरु रहा। यहां नाम बनाम नाम तो बना, लेकिन काम बनाम काम नहीं हुआ। बेशक अटल सरकार ने औद्योगिक पैकेज देकर आज हिमाचल को दवाइयों का हब बना दिया या कभी इंदिरा गांधी ने पूर्ण राज्यत्व का दर्जा देकर प्रदेश को आगे बढऩे का रास्ता दिखा दिया था। बहरहाल योजनाओं के नामकरण में कई राजनीतिक हस्तियां गूंज रही हैं, लेकिन हिमाचल के नायक को सम्मान नहीं मिला। हिमाचल के अपने नायक का किस राष्ट्रीय संस्थान के साथ नाम चस्पां हुआ। बजीर राम सिंह पठानिया ने अंग्रेजों के खिलाफ मंगल पांडे से पहले विद्रोह किया था, लेकिन इस ऐतिहासिक तथ्य को आज तक सम्मान नहीं मिला। योद्धा के रूप में जोरावर सिंह ने पूरे उत्तर भारत की हर फतह में अपना शीर्ष स्थान साबित किया, लेकिन हिमाचल ने इन्हें कहां याद रखा। यह दीगर है कि विधायक सुधीर शर्मा के प्रयास से धर्मशाला में जोरावर सिंह की शौर्यगाथा कहती मूर्ति स्थापित हुई है। स्वतंत्रता सेनानियों की एक लंबी फेेहरिस्त हिमाचल के विभिन्न आंदोलनों में आजादी के परवानों ने लिखी, लेकिन राजधानी शिमला के किस कोने में हमें क्रांतिकारी वीरों के नाम चिन्हित नजर आते हैं। विधायक संजय रतन के पिता व स्वतंत्रता सेनानी बोर्ड के अध्यक्ष रहे स्व. पंडित सुशील रतन ने एक राज्य स्तरीय स्वतंत्रता सेनानी स्मारक के शिलालेख धर्मशाला में लिखे, लेकिन आज तक यह परियोजना सामने नहीं आई। हिमाचल ने देश के लिए कुर्बानियों के कई इतिहास लिखे और इनमें देश के नाम पहला परमवीर चक्र अर्जित करने वाले मेजर सोमनाथ का नाम उल्लेखनीय हो जाता है, लेकिन इस योद्धा के नाम पर क्या हमने कोई सैन्य प्रशिक्षण अकादमी या कालेज ऑफ डिफेंस स्टडीज बना दिया।
दो बड़ी बांध परियोजनाएं कांगड़ा और बिलासपुर में राष्ट्रीय निर्माण में मानवीय बलिदान को अनुपम बनाती हैं, लेकिन इनका नामकरण किसी भी हिमाचली नायक के साथ नहीं होता। अगर हमें इतिहास के गौरवमय क्षण याद होते तो पौंग बांध के साथ बजीर राम सिंह पठानिया और बिलासपुर की गोद में बांध का नाम जोराबर सिंह के साथ जुड़ता। बलिदान को किसी नाम के सहारे की जरूरत नहीं, लेकिन राष्ट्र हित के नाम पर कुर्बान हुए तमाम लोगों को याद करने के कारण शाश्वत हैं। विडंबना यह है कि हमारी प्रगति के आयाम सियासी मूर्तियां धारण करने लगे हैं। विकास का चरित्र राजनीतिक पार्टियों के बीच बंटने लगा है। हमारे शिक्षण-चिकित्सा संस्थान अब अपने सियासी तमगों के पीछे मुंह छिपाते बढ़ रहे हैं। अगर हम पूछें कि प्रदेश के सबसे बड़े डाक्टर या सर्जन कौन हुए, तो कई लोग बगलें झांकते हुए मिलेंगे। बलिदान तो उन कर्मचारियों का भी गिना जाना चाहिए जो विद्युत आपूर्ति को संभव बनाते-बनाते अपनी ईहलीला समाप्त कर लेते हैं। जोखिम भरे कार्यों में जान गंवाने वालों के नाम भी तो कर्म की परिभाषा का संरक्षण जरूरी है। आज तक हमने किसी शिक्षाविद के नाम कालेज या किसी चिकित्सक के नाम अस्पताल या मेडिकल कालेज नहीं देखा, लेकिन हिमाचली नेताओं के नाम अब शिक्षण व चिकित्सा संस्थान के साथ एक विरासत के रूप में होने लगे हैं, लेकिन विडंबना यह कि आधे अधूरे भवनों पर नेताओं का नाम चस्पां करके सत्ता के खिलौने बिकने लगे हैं। धर्मशाला के बस स्टैंड के बुरे हाल के बावजूद अगर वहां इसे नेता को समर्पित करके रोशन किया गया है, तो यह अपमान है या राजनीति इतनी दरिद्र हो चुकी है। ऊना में एक ऑडिटोरियम को लता मंगेशकर के नाम करके एक अच्छा कार्य हुआ है, लेकिन हर इमारत का यह भाग्य कहां। प्रदेश को अपने अतीत के इतिहास में झांकने, शौर्य को मापने व सांस्कृति को अपनाने के लिए नायकों को बार-बार याद करना होगा। हर नायक सरहद पर या किसी युद्ध में नहीं मिलेगा, बल्कि कई बांसुरी वादन, तो कई रंगों के साथ किसी चित्रकला में मिल जाएंगे। बेशक कोई नायक राजनीति में भी निकल आएगा, लेकिन हर नेता नायक नहीं हो सकता। प्रदेश की अमानत में शिमला के रिज मैदान पर, वाईएस परमार के साथ वीरभद्र सिंह की मूर्ति गौरवशाली हो सकती है, लेकिन हर मूर्ति को शिमला में अवतरित करने का तर्क हमेशा सही नहीं हो सकता।
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