आगजनी और हिमाचल
रामलाल पाठक
स्वतंत्र लेखक
प्रतिवर्ष गर्मियों के मौसम में हिमाचल में आगजनी की घटनाएं बढ़ जाती हैं। आग से उठने वाले जहरीले धुएं से पर्यावरण संतुलन गड़बड़ा जाता है। इससे मौसम के घटनाक्रम पर भी विपरीत असर पड़ता है। जंगलों में आग लगने से करोड़ों रुपयों की वन-संपदा, सरकारी एवं निजी संपत्ति का नुकसान होता है। कई लोग जिंदा अपने ही आशियाने में झुलस कर भगवान को प्यारे हो जाते हैं तथा हजारों वन्य प्राणी तड़प-तड़प कर स्वाहा हो जाते हैं। असंख्य जंगली जानवरों के बच्चे एवं पक्षियों के अंडे धू-धू कर जलते हैं। कई बार जंगल की आग बस्तियों तक भी पहुंच जाती है। इससे निजी संपत्ति का नुकसान भी करोड़ों में होता है। गर्मियों के दिनों में कडक़ड़ाती धूप के चलते तापमान बढ़ जाता है, जमीन पर नमी न रहने के कारण अनेक वनस्पतियां सूख जाती हैं। कई पेड़ों के पत्ते झड़ जाते हैं तथा जमीन में उगी घास सूख जाती है। चारों ओर खेतों व घासनियों में नाममात्र की हरियाली रह जाती है। एक बार कहीं आग लग गई तो उस पर काबू पाना बहुत मुश्किल होता है। वैशाख महीने में जब रवि की फसल कटने के बाद किसान अगली फसल की बुआई की तैयारी करते हैं, अपने खेतों और घासनियों में उगी झाडिय़ों की काट-छांट करते हैं, फिर उनमें आग लगाई जाती है। खेतों से कटी झाडिय़ों व घास-फूस को तो वहीं जलाया जाता है। इससे आग के फैलने का कम ही खतरा रहता है, लेकिन घासनियों में लगी आग पर काबू पाना मुश्किल हो जाता है। कई बार यही आग जंगल तक फैल जाती है। लोक में एक कहावत है कि ‘कोई अफवाह जंगल की आग की तरह फैल गई।’
अर्थात जंगल की आग बहुत तेजी से फैलती है। उसके बाद उस पर काबू पाना मुश्किल हो जाता है। विशेषकर चीड़ के जंगल में धधकती आग तब तक नहीं बुझती जब तक सारा जंगल राख में बदल नहीं जाता है। चीड़ की सूखी पत्तियां तो आग में घी का काम करती हैं। इससे उठने वाली लपटों से छोटे पौधे तो सदा के लिए मुरझा जाते हैं, लेकिन बड़े पेड़ झुलसने के कई सालों के बाद ही अपने असली रूप में आ पाते हैं। जबकि बहुत से पेड़ सूख जाते हैं। विभिन्न प्रजातियों के जानवरों व पक्षियों के प्रजनन का समय गर्मियों के दिनों में होता है। प्रजनन से पहले मादा जंगली जानवर घनी झाडिय़ों में सुरक्षित स्थान तलाश कर वहीं अपना आशियाना बनाती है तथा वहीं बच्चे देती है। इस तरह मादा पक्षी भी पेड़ों की टहनियों पर अपने घौंसले बनाते हैं तथा वहीं अंडे देकर उन्हें सेहती हैं। अंडे देने के बाद मादा पक्षी करीब दो सप्ताह से अधिक समय तक अपने अंडों पर बैठी रहती हैं। जंगल में आग लगने के बाद बहुत कम जानवर व पक्षी बच पाते हैं। जंगलों की आग से वायुमंडल प्रदूषित हो जाता है तथा धरती का तापमान बढ़ जाता है। तेज गर्मी पडऩे से लू का खतरा बढ़ जाता है। इससे अनेक बीमारियां फैलने का अंदेशा हो जाता है। मौसम का घटनाक्रम प्रभावित होने से समय पर बारिश नहीं होती। सूखा पडऩे से फसलें बर्बाद हो जाती हैं। सरकार का वन विभाग, अग्निशमन विभाग एवं अनेक स्वयंसेवी संस्थाएं जंगलों को आग से बचाने के लिए विभिन्न उपाय करते हैं, लेकिन फिर भी कमियां रह जाती हैं, जिन्हें दुरुस्त करना होगा।
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