वन विभाग की आधारहीन चिंताएं

उपनिवेशवादी प्रबंधन ने ही लोगों को वनों से दूर किया था। उनको फिर से वनों के साथ जोडऩे का यह कानून मौका देता है, जिसका लाभ होगा। डरने की जरूरत नहीं, बल्कि मिलकर बेहतर वन प्रबंधन विकसित करने पर ध्यान देने की जरूरत है। वन विभाग यदि अपनी विशेषज्ञता का उपयोग आने वाले समय में आजीविका वानिकी की ओर करे तो बेहतर होगा। ऐसे वन जो बिना काटे रोजी-रोटी दे सकें, वही संरक्षित पर्यावरण की गारंटी हैं…
बड़ी मुश्किल से 17 सालों बाद हिमाचल सरकार जागी, तो वन विभाग नाहक ही चिंताग्रस्त हो गया। वन अधिकार कानून 2006 दो साल बाद दो हजार आठ में अधिसूचित होने के बावजूद आज तक लागू किए जाने को तरस रहा था। यह कानून संसद द्वारा वनवासी और अन्य वन निर्भर समुदायों के प्रति ब्रिटिश हुकूमत में किए गए ऐतिहासिक अन्याय को दूर करने के लिए इन समुदायों की वनों पर निर्भरता को ध्यान में रखते हुए वनों पर कानूनी रूप में कुछ अधिकार देने की बात करता है, जिसमें 2005 की 13 जनवरी से पहले यदि आजीविका के लिए वन भूमि का प्रयोग किया जा रहा है या आवास और पशुशाला आदि बनाई है, तो उतनी वन भूमि पर, आदिवासी और अन्य वन निर्भर समुदायों को इस्तेमाल का हक प्रदान करने का प्रावधान किया गया है। इसके अलावा सामुदायिक रूप से वनों में जो बरतनदारी हक, परंपरा से इन समुदायों को छूट के रूप में प्राप्त हैं, उन्हें कानूनी अधिकार के रूप में दिए जाने का प्रावधान है। बरतनदारी वनों के प्रबंधन की जिम्मेदारी देने के साथ इनके संरक्षण-संवर्धन का कत्र्तव्य भी निर्धारित किया गया है। स्थानीय विकास के लिए जरूरी वन भूमि के हस्तांतरण की प्रक्रिया भी वन संरक्षण अधिनियम की लंबी प्रक्रिया से बाहर निकाल कर इस कानून के तहत आसान की गई है, जिसके लिए दिल्ली की ओर देखने की जरूरत नहीं, बल्कि वन अधिकार समिति की संस्तुति से वन मंडल अधिकारी के स्तर पर ही एक हैक्टेयर तक भूमि का स्थानीय विकास की 13 मदों के लिए हस्तांतरण किया जा सकता है, बशर्ते उसमें 75 से ज्यादा पेड़ न आते हों।
इस तरह यह कानून न केवल आदिवासी और अन्य वन निर्भर समुदायों की आजीविका का संरक्षण करता है, बल्कि वन संरक्षण कार्य में स्थानीय जन सहयोग को बढ़ा कर वन संरक्षण कार्य को भी मजबूत करता है। स्वयं वन विभाग भी वन संरक्षण में जन सहयोग के लिए सांझा वन योजना जैसे प्रयोग सफलतापूर्वक कर चुका है। हालांकि यह प्रयोग अनमने भाव से ही किए गए थे, फिर भी परिणाम उत्साहवर्धक रहे हैं, इसलिए कोई कारण नहीं है कि उक्त अधिनियम के अंतर्गत कानूनी तौर पर प्रबंधन के अधिकार मिलने पर, समुदाय कामयाब नहीं होगा। बल्कि कानूनी तौर पर पूर्ण सशक्त होने पर सामुदायिक प्रबंधन बहुत सफल होगा। आखिर पंचायतों को भी जब संवैधानिक संस्था का दर्जा दिया गया तो सारा कार्य सफलतापूर्वक संभाल ही रही हैं। फिर किसी को खुली छूट भी तो दी नहीं जा रही है, बल्कि वन प्रबंधन समितियों को नियम-कानूनों के प्रति जवाबदेह बनाने की व्यवस्था है। गत दिनों जब हिमाचल सरकार ने जनजातीय विकास मंत्री माननीय जगत सिंह नेगी के नेतृत्व में वन अधिकार कानून को लागू करने के लिए मिशन मोड में कार्य शुरू किया तो वन विभाग सकते में आ गया। एक पत्र जिलाधीशों, मुख्य अरण्यपालों और वन मंडल अधिकारियों को जारी किया गया, जिसमें तथाकथित दिशा-निर्देशों की बात की गई है। जबकि कानून को लागू करने का काम वन अधिकार अधिनियम के तहत जनजातीय विभाग को सौंपा गया है। वन विभाग का काम केवल सांझा निरीक्षण में हाजिर होना है, या उपमंडल समितियों और जिला स्तरीय समितियों में सहयोग देना है। दिशा-निर्देश तो पहले ही एक्ट, नियम और केन्द्रीय दिशा-निर्देशों के रूप में आ चुके हैं। अब सवाल यह पैदा होता है कि इस समय, जब सरकार इस कानून को लागू करने के प्रति गंभीरता से काम करने जा रही है, तो विभाग की ओर से यह पत्र क्यों जारी किया गया? सत्रह साल तक विभाग को यह याद क्यों नहीं आई? फिर वीडियोग्राफी करने और सेटेलाइट फोटो का प्रयोग करने के सुझाव क्यों दिए गए, जबकि एक्ट में उनका कोई जिक्र नहीं है।
इससे साफ यह शक जाहिर होता है कि वन विभाग अब फिर इस कानून को लागू करने के काम में अड़ंगा लगाना चाहता है। पत्र में कोनिफर पेड़ों की ही चिंता जाहिर की गई है, यानी टिंबर देने वाले पेड़ ही इनके लिए पेड़ हैं। ऊंचाई पर भी क्लाइमेक्स जंगल में तो बान, बुरांस, खरशु, मोहरू, चिरंदी जैसे अनेक वृक्ष प्रजातियां हैं। उनको तो ये लोग कोयला जलाने के लिए काट कर खुद नष्ट करते रहे हैं और उनके रोपण की भी कोई कोशिशें नहीं की जाती थीं। अभी कुछ वर्षों से ही ये प्रयास शुरू हुए हैं। अभी भी कितना सफल होते हैं, पता नहीं। शिवालिक के सघन मिश्रित वनों को गर्डलिंग करके सुखाया गया और चीड़ के वनों में बदल दिया गया। यह काम सुधार वानिकी के नाम पर किया गया। इसी कारण वन्य प्राणी जंगली फलों और चारे के अभाव में खेतों में अत्यधिक नुकसान करने लग गए हैं, जिससे स्थानीय आजीविका का कितना नुकसान हुआ, इसका आकलन तक नहीं किया गया है। असल में ये लोग अभी तक भी उपनिवेशवादी मानसिकता से बाहर नहीं निकल पाए हैं।
जंगल पोलिसिंग से नहीं बचे हैं, लोगों के सहयोग और जागरूकता से बचे हैं। उपनिवेशवादी प्रबंधन ने ही लोगों को वनों से दूर किया था। उनको फिर से वनों के साथ जोडऩे का यह कानून मौका देता है, जिसका लाभ होगा। डरने की जरूरत नहीं, बल्कि मिलकर बेहतर वन प्रबंधन विकसित करने पर ध्यान देने की जरूरत है। वन विभाग यदि अपनी विशेषज्ञता का उपयोग आने वाले समय में आजीविका वानिकी की ओर करे तो बेहतर होगा। ऐसे वन जो बिना काटे रोजी-रोटी दे सकें, वही संरक्षित पर्यावरण की गारंटी हैं। टिंबर देने वाले पेड़ तो कट कर ही कुछ दे सकते हैं। इसलिए मिश्रित जंगल लगाने की ओर ध्यान दिया जाए और वन अधिनियम को लागू करने में सहयोग देकर ग्राम समुदायों को वन संरक्षण और विकास के काम में जोडऩे की दिशा में काम किया जाए।
कुलभूषण उपमन्यु
पर्यावरणविद
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