स्थानांतरण में आत्मबोध
प्रशासन में कर्म की परीक्षा कभी मुकम्मल नहीं होती, फिर भी व्यवस्था की आपूर्ति में अधिकारियों के जिम्मे किसी भी सरकार का पूरा कालखंड होता है। हर अधिकारी के फर्ज में सरकार का रुतबा गूंजता है और अगर यही नगीने खनक जाएं तो छवि की पताका पर संदेह होना लाजिमी है। सरकारों का अपना-अपना ट्रांसफर काल भी दिखाई देता है। हम इसे पटवारी से लेकर राज्य के मुख्य अधिकारी तक देख सकते हैं। लोग बेहतर समीक्षक होते हैं और कई बार सरकारों के ट्रांसफर आर्डरों का विरोध भी करते हैं, लेकिन जनापेक्षाएं भी सियासत की तरह अकसर मोम नहीं होतीं। नुकीले प्रश्रों की आबरू में सबसे ज्यादा पैमाइश और आजमाइश प्रशासनिक अधिकारियों की ही होती है, जहां हर पड़ाव एक ट्रांसफर है। जाहिर है धर्मशाला से भरमौर भेजे गए एसडीएम संजीव कुमार भोट के ट्रांसफर आर्डर भी पड़ाव रहे होंगे, लेकिन जिन संदेहों की बरसात हो रही है, उन्हें सिरे से नकारा भी नहीं जा सकता। भोट सिर्फ एक अधिकारी या सेवा काल का बिछौना नहीं कि चंद दिनों में किन्नौर, डोडरा-क्वार, धर्मशाला और अब भरमौर में प्रशासनिक अधिकारी बना कर बिछा दिया जाए। संजीव भोट से जुड़ी अपेक्षाएं एक आदमी से नहीं, उनकी क्षमता में अधिकार प्राप्त अधिकारी से हैं। जाहिर है सरकार को भरोसा है, इसलिए चौथी जगह एसडीएम बनाए गए, लेकिन बार-बार के स्थानांतरण उनके व्यक्तिगत व प्रशासनिक जीवन को कहीं न कहीं हास्यास्पद बनाते रहे हैं। यही वजह रही कि इस अधिकारी ने अपने क्षोभ की परिणति में पद से ही त्यागपत्र देकर अपनी प्रशासनिक कुंडली में विराम और सचिवालय की एक जुंडली में अविश्वास लिख दिया। यह कोई छोटी घटना नहीं, बल्कि इसने विमल नेगी से जुड़े संदेहास्पद घटनाक्रम में एक नया सवाल जोड़ दिया है। संजीव भोट के सजीव बोध को सौ फीसदी सत्य न मानें, लेकिन यह मंजर आत्म संतुष्टि का नहीं, आत्मचिंतन का जरूर है।
अपने ट्रांसफर आर्डर को रेखांकित करते भोट ने जो सवाल उठाए हैं, उनके साथ प्रशासनिक अधिकारियों की एक रूठी हुई शाखा हो सकती है। कुछ तहें भले ही ढकी रहें, लेकिन सड़ांध को ढांपना मुश्किल है। क्यों एक अधिकारी के लिए नौकरी से इस्तीफा देना आसान हो गया और क्यों वह इस सुलूक को स्वर्गीय नेगी के मजमून तक ले गया। संजीव भोट को स्थानांतरित करना विशेषाधिकार रहा होगा या कुछ कारण भी गिने जा सकते हैं, लेकिन जनता की कचहरी में हर ट्रांसफर एक व्यक्ति नहीं नया विश्वास है। इसी परिप्रेक्ष्य में किसी स्कूल में ट्रांसफर आर्डर पर आनेवाला एक व्यक्ति नहीं, एक अध्यापक होता है। दुर्भाग्य से आजकल कर्मचारी-अधिकारी मोहरबंद होने लगे हैं। सरकारी नौकरी सियासी कैडर में विभक्त होने लगी है। अस्थायी सत्ता के करीब सरकारी कार्यसंस्कृति ने स्वयं को इतना कमजोर कर लिया है कि प्रशासनिक सेवाओं में लोग नेताओं के आगे पानी भरते दिखाई देते हैं। इसी संदर्भ में राजधानी की चुगलियां प्रदेश सचिवालय को ट्रांसफर का गढ़ नहीं बना सकतीं, यह असंभव है। हम तो चाहेंगे कि नेगी मौत की जांच के आसपास अगर अधिकारियों के मनोविज्ञान को पढऩा है, तो संजीव भोट के उद्वेलित प्रश्रों को भी परख लेना चाहिए। प्रदेश की प्रशासनिक छवि के लिहाज से अधिकारियों के आत्मबल को जगाना होगा। मनोवैज्ञानिक तौर पर अगर कोई अधिकारी ट्रांसफर परिपाटी से भयभीत होकर काम करेगा, तो व्यवस्था परिवर्तन के परिणाम तीव्रगामी नहीं होंगे। ट्रांसफर में फंसा दायित्व इसी होड़ में रहे कि मन माफिक पोस्टिंग पाने के लिए हमेशा कुशल लाबिंग जरूरी है, तो वहां न प्रशासनिक चमक, न फर्ज की संस्कृति और न ही निर्णायक होने की स्थिति बचेगी। ऐसे में संजीव भोट का इस्तीफा एक सामान्य मानवीय पहलू होने के साथ-साथ ब्यूरोक्रेसी के नाज और नखरों पर प्रश्र चस्पां कर रहा है, लिहाजा कुछ तो उत्तर चाहिए।
Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also, Download our Android App or iOS App