अंबेडकर का संविधान आज भारत में असफल क्यों?

आज भारत की एकता एक नई चुनौती का सामना कर रही है। कई छोटे राज्य, विशेष रूप से दक्षिण भारत के, केंद्रीय सरकार के योजनाबद्ध परिसीमन, जो कि जनसंख्या के आधार पर संसदीय क्षेत्रों को पुनर्निर्धारित करने के लिए संवैधानिक रूप से एक अनिवार्य प्रक्रिया है, का विरोध करने के लिए एकजुट हो गए हैं। तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, तेलंगाना और अन्य छोटे राज्यों को डर है कि आगामी जनगणना के कारण उन्हें उत्तर के बड़े राज्यों जैसे उत्तर प्रदेश और बिहार के हाथों अपनी संसदीय सीटें खोनी पड़ सकती हैं। उनका तर्क है कि जनसंख्या वृद्धि को रोकने की उनकी सफलता का फल उन्हें प्रतिनिधित्व खोने के रूप में नहीं मिलना चाहिए। अंबेडकर का संविधान इन छोटे राज्यों की वैध चिंताओं को संबोधित करने के लिए कोई स्पष्ट हल उपलब्ध नहीं करवाता है। जैसा कि कांग्रेस नेता और केरल से सांसद शशि थरूर ने हाल ही में ध्यान दिलाया, ‘‘क्या हो अगर उत्तर के हिंदीभाषी राज्यों को अचानक दो-तिहाई बहुमत हासिल हो जाए और वे संविधान संशोधन पारित कर पाएं?’’…
आज जब भारत बीआर अंबेडकर की 135वीं जयंती मना रहा है, तो यह विचार करने का सही समय है कि उनका सबसे बड़ा योगदान – हमारा संविधान – किस कुशलता से देश की सेवा कर रहा है। इस बात की अकसर आलोचना होती है कि भारत का संविधान इसकी प्रस्तावना में दिए गए वचन पूरे नहीं कर पाया जिसमें न्याय, समानता, और स्वतंत्रता के लिए प्रतिबद्ध एक समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष गणराज्य की कल्पना की गई है। इन सभी क्षेत्रों में विफलताओं के बहुत उदाहरण पेश किए जा सकते हैं। परंतु ताजा राजनीतिक घटनाक्रम इन कमियों के अंतर्निहित कारणों को सामने ले आए हैं।
आइए हमारे संविधान द्वारा स्थापित सरकार की हर शाखा और संघीय ढांचे में इन मुद्दों पर नजदीक से दृष्टिपात करें।
कार्यपालिका : उत्तरदायित्व के बिना शक्ति
सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व वाली उत्तर प्रदेश सरकार की इस बात के लिए आलोचना की कि उचित न्यायिक प्रक्रिया अपनाए बिना प्रयागराज में घर ध्वस्त करने के आदेश दिए गए। अपनी किताबों को पकड़े बुलडोजरों से बचकर भागती आठ वर्ष की बच्ची के वीडियो ने राष्ट्र को गहराई तक झकझोर दिया। न्यायालय ने नाराजगी व्यक्त करते हुए कहा, ‘‘जिस प्रकार नोटिस दिए जाने के 24 घंटे के भीतर यह किया गया, उससे अदालत की अंतरात्मा को आघात पहुंचा है।’’ नवंबर माह में कोर्ट ने उनके धड़ाधड़ प्रयोग को ‘गैर कानूनी, निर्मम स्थिति’ बताते हुए बुलडोजरों से निर्माण गिराने पर प्रतिबंध लगा दिया था। हालांकि ऐसी घटनाएं देश भर में जारी हैं।
अंबेडकर का संविधान एक स्वेच्छाचारी कार्यकारी (मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री) को तब तक रोकने, दंडित करने या पद से हटाने की कोई व्यवस्था उपलब्ध नहीं करवाता, जब तक उन्हें विधायिका (विधानसभा या संसद) में बहुमत प्राप्त है। संविधान का प्रारूप बनाते समय अंबेडकर का प्रसिद्ध कथन था कि जिस संसदीय प्रणाली को अंगीकृत किया जा रहा है, वह एक ‘उत्तरदायी’ सरकार सुनिश्चित करेगी। उन्होंने तर्क दिया कि विधायिका के सदस्य कार्यपालिका की ‘प्रतिदिन’ निगरानी करेंगे और अगर यह अपनी शक्ति का दुरुपयोग करती है तो वे सरकार गिराने की धमकी देकर उसे उत्तरदायी ठहराएंगे। हालांकि अपने अधिकारों के दुरुपयोग या अतिक्रमण पर भारत में आज तक कोई सरकार नहीं हटाई गई। ऐसा इसलिए क्योंकि कोई भी विधायक या सांसद अपनी पार्टी को नाराज करने या सदन भंग करने की शुरुआत करने का जोखिम नहीं उठाना चाहता। वर्ष 1985 में दलबदल विरोधी संशोधन पारित कर, जिसने सांसदों और विधायकों का अपनी पार्टी के विरुद्ध वोट देना अवैध बना दिया, भारत ने कार्यपालिका पर अंबेडकर के संविधान का नियंत्रण और भी कमजोर कर दिया।
विधायिका : बहुमत का शासन, अल्पमत मौन
संसद ने हाल ही में एक विवादित धार्मिक कानून, वक्फ संशोधन विधेयक, पारित किया है जिसका उद्देश्य मुस्लिम धर्मार्थ निधि प्रबंधन में सुधार लाना है। विधेयक के अनुसार वक्फ बोर्डों में गैर-मुस्लिमों को शामिल करना, वक्फ को उन्हीं लोगों तक सीमित करना जो इस्लाम को कम से कम पांच वर्षों से मानना साबित कर पाएं, और वक्फ संपत्तियों को मान्य बनाने में सरकारी अधिकारियों को शामिल करना आवश्यक है। इसका जोरदार विरोध हो रहा है, विशेष तौर पर इसलिए क्योंकि हिंदू धार्मिक निकायों के लिए समान शर्तों वाला कोई कानून नहीं है। वक्फ विधेयक में विपक्षी राजनीतिक दलों द्वारा प्रस्तावित कोई भी सुधार स्वीकार नहीं किया गया। विधेयक लोकसभा में 288-232 और राज्यसभा में 128-95 के अंतर से पारित हो गया। सत्ताधारी गठबंधन के किसी सदस्य ने इसके विरुद्ध मत नहीं दिया। अंबेडकर का संविधान बहुमत के शासन के सिद्धांत पर आधारित है, परंतु इसमें ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जो शासन में अल्पमत की आवाज उठाना सुनिश्चित करे। इस दोष के कारण ही आखिरकार अंबेडकर अपने ही सृजन के विरुद्ध आ खड़े हुए थे। वर्ष 1953 में उन्होंने अपने मोहभंग को राज्यसभा में कुछ यूं व्यक्त किया, ‘‘महोदय, मेरे मित्र मुझसे कहते हैं कि मैंने संविधान बनाया। परंतु मैं यह कहने के लिए पूरी तरह तैयार हूं कि इसे जला डालने वाला मैं पहला शख्स हूंगा…यह किसी के लिए भी सही नहीं है।’’
संविधान प्रारूपण में उनके सम्मिलित होने से पूर्व अंबेडकर ने तर्क दिया था कि भारत में ‘‘बहुमत का शासन सैद्धांतिक रूप से अस्थिर और व्यवहार में अनुचित है।’’ परंतु संविधान निर्माण के समय नेहरू और अन्यों ने अंबेडकर को मना लिया कि वह देश की शासकीय संस्थाओं में अल्पसंख्यकों को बड़ी भूमिका देने के अपने प्रस्ताव छोड़ दें। भारत जैसे विविध और धार्मिक तौर पर आवेशित राष्ट्र में कठोर बहुमत शासन की प्रणाली अप्रभावी सिद्ध हुई है। कश्मीर से मणिपुर, पश्चिम बंगाल और केरल तक राज्यों में जारी संघर्षों से यह स्पष्ट होता है। अगर बहुमत मुस्लिमों (जनसंख्या का लगभग 14 प्रतिशत) की चिंताओं का अनादर कर सकता है, तो इसे ईसाइयों (2.3 प्रतिशत), सिक्खों (2 प्रतिशत से भी कम) और दलितों (17 प्रतिशत) के साथ ऐसा ही करने से क्या रोक सकता है?
न्यायपालिका : समीक्षा के खिलाफ कवच
हाल ही में आवास पर बड़ी मात्रा में नकदी मिलने पर दिल्ली हाईकोर्ट के एक न्यायाधीश पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे थे। प्रतिक्रिया स्वरूप सर्वोच्च न्यायालय ने मामले की जांच के लिए शीघ्रतापूर्वक एक समिति का गठन किया, परंतु पुलिस जांच से इनकार कर दिया। वरिष्ठ न्यायाधीशों के निकाय, कोर्ट के आंतरिक ‘कॉलेजियम’ ने अनुशंसा की कि जज का तबादला कर दिया जाए। उसके बाद न्यायाधीश ने उत्तर प्रदेश में एक उच्च न्यायालय में शपथ ले ली। इस घटनाक्रम ने न्यायिक नियुक्तियों की पारदर्शिता, तबादलों, और जांचों के विषय में गंभीर प्रश्न खड़े कर दिए हैं।
अंबेडकर ने संविधान द्वारा स्थापित न्यायाधीश नियुक्त करने की प्रक्रिया में प्रधानमंत्री को महत्वपूर्ण शक्ति दी थी। परंतु 20 वर्ष के भीतर ही यह व्यवस्था लडखड़़ा गई, जब 1970 के दशक के आरंभिक वर्षों में इंदिरा गांधी ने सुप्रीम कोर्ट में अपने पसंदीदा न्यायाधीशों की नियुक्ति शुरू कर दी। कुख्यात ‘न्यायाधीशों का अतिक्रमण’ प्रकरण में उन्होंने मुख्य न्यायाधीश को अपनी पसंद के जज से बदल दिया। वर्ष 1993 तक न्यायपालिका का इस व्यवस्था से मोहभंग हो चुका था और उसने प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव को ‘कॉलेजियम’ बनाने के प्रति सहमत होने को राजी कर लिया। परंतु अब न्यायाधीश स्वयं नियुक्ति, तबादलों और साथी न्यायाधीशों की जांच के लिए उत्तरदायी हैं, और वह भी बिना किसी निगरानी या पारदर्शिता के।
संघवाद : एक विभाजित संघ
आज भारत की एकता एक नई चुनौती का सामना कर रही है। कई छोटे राज्य, विशेष रूप से दक्षिण भारत के, केंद्रीय सरकार के योजनाबद्ध परिसीमन, जो कि जनसंख्या के आधार पर संसदीय क्षेत्रों को पुनर्निर्धारित करने के लिए संवैधानिक रूप से एक अनिवार्य प्रक्रिया है, का विरोध करने के लिए एकजुट हो गए हैं। तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, तेलंगाना और अन्य छोटे राज्यों को डर है कि आगामी जनगणना के कारण उन्हें उत्तर के बड़े राज्यों जैसे उत्तर प्रदेश और बिहार के हाथों अपनी संसदीय सीटें खोनी पड़ सकती हैं। उनका तर्क है कि जनसंख्या वृद्धि को रोकने की उनकी सफलता का फल उन्हें प्रतिनिधित्व खोने के रूप में नहीं मिलना चाहिए। अंबेडकर का संविधान इन छोटे राज्यों की वैध चिंताओं को संबोधित करने के लिए कोई स्पष्ट हल उपलब्ध नहीं करवाता है। जैसा कि कांग्रेस नेता और केरल से सांसद शशि थरूर ने हाल ही में ध्यान दिलाया, ‘‘क्या हो अगर उत्तर के हिंदीभाषी राज्यों को अचानक दो-तिहाई बहुमत हासिल हो जाए और वे संविधान संशोधन पारित कर पाएं?’’
हमारे संविधान में अमरीका की सेनेट जैसी संस्था का अभाव है जहां राज्यों को आकार पर ध्यान दिए बिना समान प्रतिनिधित्व प्राप्त है। इस कमी के कारण परिसीमन 50 वर्षों से लटकाया जा रहा है। भारत जैसे महान राष्ट्र के लिए हमारे संविधान की ऐसी मूलभूत दुर्बलताओं को अनदेखा करना नासमझी है। अंबेडकर ने इन कमियों को पहचानने और उनकी व्याख्या करने में बुद्धिमत्ता और साहस, दोनों का परिचय दिया है। वह चाहेंगे कि हम भी यही करें।
-अंग्रेजी में ‘द क्विंट’ में प्रकाशित
(14 अप्रैल, 2025)
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