‘लाल ताबूत’ में आधी कील
नक्सलवाद अर्थात ‘लाल आतंकवाद’ के ताबूत में लगभग आधी कील घुसेड़ दी गई है। ‘लाल आतंकवाद’ की सांसें तभी उखड़ गईं, जब सुरक्षा बलों ने सीपीआई (माओवादी) के महासचिव, नक्सलियों की रीढ़ और ऑपरेशनल सरगना गगन्ना उर्फ बासव राजू उर्फ नंबाल्ला केशव राव उर्फ दारापू नरसिम्हा रेड्डी को ढेर कर दिया। उस पर 1 करोड़ रुपए का इनाम घोषित था। नक्सलवाद के खिलाफ करीब तीन दशकों की लड़ाई में बासव महासचिव स्तर का पहला नक्सली था। यह सुरक्षा बलों की शानदार, साहसिक, रणनीतिक सफलता और उपलब्धि है। गगन्ना अप्रैल, 2010 के उस दंतेवाड़ा हमले का ‘मास्टरमाइंड’ था, जिसमें नक्सलियों ने सीआरपीएफ के 75 जवानों को ‘शहीद’ कर दिया था। छत्तीसगढ़ की ही झिरम घाटी में 2013 में राज्य कांग्रेस के प्रमुख नेताओं के नरसंहार की रणनीति भी बासव ने ही तैयार की थी। बेशक वह खूंखार नक्सली था। वह नक्सलियों के मिलिट्री कमीशन का संचालन करता था, लिहाजा बस्तर के जंगलों में सुरक्षा बलों को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाने वाले बूबी टै्रप और आईईडी भी गगन्ना ने ही तैयार किए थे। वह आंध्रप्रदेश के एक इंजीनियरिंग कॉलेज से प्रशिक्षित बीटेक था, लिहाजा उसने नक्सलियों के हमलों को भी तकनीकी आयाम दिए। बहरहाल ‘ऑपरेशन ब्लैक फॉरेस्ट’ का उपसंहार, अंतत:, सफल रहा, क्योंकि नक्सलियों का महासचिव मार दिया गया, एक ही दिन में 27 नक्सली भी ढेर किए गए, तेलंगाना, महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ से 54 नक्सलियों को गिरफ्तार किया गया और 84 अन्य नक्सलियों ने आत्मसमर्पण किया। सितंबर, 2023 से 20 मई, 2025 के दौरान छत्तीसगढ़ में ही 401 नक्सली मारे गए, जबकि 1355 ने आत्मसमर्पण किया। अब नक्सलवाद की मौजूदगी और सक्रियता देश के 7 राज्यों के 18 जिलों तक ही सिमट कर रह गई है। यह मौजूदगी 9 राज्यों के 38 जिलों में होती थी।
लिहाजा हम कह रहे हैं कि ‘लाल आतंकवाद’ के ताबूत में लगभग आधी कील गाड़ दी गई है। संपूर्ण खात्मा अभी कुछ शेष है, लेकिन केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह 31 मार्च, 2026 तक नक्सलवाद का अस्तित्व खत्म करने के जिस लक्ष्य को दोहराते रहते हैं, वह संभव लगता है। दरअसल यह ऑपरेशन छत्तीसगढ़ के उस घने जंगल-अबूझमाड़-में सफलता के साथ किया गया है, जहां दशकों तक सरकारी अधिकारी नहीं गए अथवा जाने का साहस नहीं कर पाए और विकास की योजनाएं तो महज एक सपना थीं। नक्सलवादी स्कूलों और पक्की सडक़ों के भी खिलाफ रहे हैं और देश की संसदीय व्यवस्था के भी घोर विरोधी रहे हैं। चारु मजूमदार के नेतृत्व में नक्सलवाद पश्चिम बंगाल के सिलिगुड़ी शहर से जिस मकसद के साथ शुरू किया गया था, वह लगातार पीछे छूटता गया। किसानों और भूमिहीनों में समान जमीन का वितरण, बंटवारा नहीं हो सका, लेकिन यह आंदोलन पहले वामपंथी उग्रवाद बना और फिर खास किस्म के आतंकवाद में तबदील होता गया। पूर्व प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह का मानना था कि नक्सलवाद देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे खतरनाक चुनौती रहा है। यह कश्मीर से भी बड़ी और भयावह चुनौती है। ऐसा ही मौजूदा गृहमंत्री अमित शाह का मानना है, लिहाजा नक्सलवाद का समूल नाश करने की रणनीति पर विचार किया गया। कांग्रेस नेतृत्व की यूपीए सरकार के दौरान नक्सलवाद देश के करीब 160 जिलों में मौजूद और सक्रिय था। तत्कालीन योजना आयोग की एक रपट में उल्लेख किया गया था कि नक्सलियों की सालाना आमदनी 1200 करोड़ रुपए के करीब थी। वह अफीम की खेती करते थे, लिहाजा उनके पास आधुनिकतम हथियार और विस्फोटकों की सहज आपूर्ति होती थी। अब भी ऑपरेशन में जो नक्सली मारे गए हैं, उनके आधुनिक हथियार और विभिन्न विस्फोटक सुरक्षा बलों ने बरामद किए हैं। नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में न तो निवेश होता था और न ही विकास के काम गति पकड़ पाते थे, नतीजतन वे इलाके और भी पिछड़ते चले गए। यह नक्सलियों की रणनीति भी थी। असमान सामाजिक-आर्थिक हालात, शोषण, अपर्याप्त रोजगार, भूमि सुधारों के अभाव आदि ऐसे कारण थे, जिनसे नक्सलवाद पनपा और फैलता चला गया। अब उसकी जड़ों में भी कील गाडऩे का समय आ गया है।
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