विकास कितना खोखला
मेडिकल कालेज जैसे संस्थानों की इमारतों की वास्तुकला तथा इनकी परिकल्पना में भविष्य की अधिकांश जरूरतें नत्थी होनी चाहिएं। आश्चर्य यह है कि ऐसे सिद्धांत हिमाचल के उभरते मेडिकल कालेजों में पराजित होने लगे हैं। टांडा मेडिकल कालेज के मदर एंड चाइल्ड अस्पताल पर 44 करोड़ व्यय और इस संस्थान का नामकरण करने के बावजूद इसकी परिकल्पना रैंप न होने के कारण चोट खा रही है। कितनी हैरानी की बात है कि अस्पताल की अहम भूमिका में खड़ी इमारत इस काबिल नहीं कि मरीज आसानी से उपचार कक्ष तक पहुंच जाएं। आखिर यह भवन उद्घाटन की पट्टिका तक कैसे पहुंच गया और इसे एक नेता के नाम पर समर्पण भी हो गया, लेकिन सारा वास्तुशास्त्र सीढिय़ों पर फिसल गया। 44 करोड़ का व्यय मामूली नहीं होता। जाहिर है कोई ड्राइंग बनी होगी। इमारतों के मापदंड में इसे सक्रिय अस्पताल की श्रेणी में बनाते-बनाते देखा गया होगा। साइट की इंस्पेक्शन करते कई इंजीनियर गुजरे होंगे, लेकिन ये पांव नहीं देख पाए कि स्ट्रेचर या व्हील चेयर पर मरीज को एक अदद रैंप भी चाहिए। हमारा बजट हारा भी तो निर्माण के मुहाने पर आकर और ताज्जुब यह कि इस गलती को सुधारने के लिए अतिरिक्त तीन करोड़ 31 लाख जारी होने के बावजूद उपचार नहीं हो सका। यह हमारे सोच की गुणवत्ता है या यह भी कहा जा सकता है कि हमारी मशीनरी कितनी अगंभीर है। ऐसे में शिलान्यासों से उद्घाटन तक के फलक तक गलतियों के शिकार कई भवन चिढ़ाते हैं। पालमपुर के मिनी सचिवालय का पलस्तर बताता रहा है कि विकास अंदर से कितना खोखला है, तो इसी शहर का बाइपास थ्रू ब्रिज के निर्माण में लगी शटरिंग ने अपने हाथ खून से रंगे हैं। सरकारी परियोजनाओं की सही मॉनिटरिंग हो, तो अपव्यय के कई स्रोत बंद हो सकते हैं। ऐसी कई अधूरी इमारतें हैं, जो वर्षों बाद केवल विकास के खंडहर में बदल गई हैं। अभी हाल ही में राज्य सरकार ने किराये के भवनों में चल रहे कई विभागीय कार्यालयों को स्थानांतरित करने का फैसला किया है, तो पता चला कि जिला मुख्यालयों में कई खाली संपत्तियां बेकार हो रही हैं।
सरकारी दायित्व का परफेक्शन हर बार निजी क्षेत्र के सामने खुद में विवश हो जाता है, तो इसलिए कि व्यावसायिक प्रतिबद्धता न होने के कारण, हर प्रयास गौण किया जाता है। अगर टीएमसी मदर एंड चाइल्ड इमारत के नक्शे पर परफेक्शन की निगाहें होतीं, तो 44 करोड़ की लागत से हम एक भविष्य का उज्ज्वल निर्माण कर पाते। वर्षों बाद भी सरकारी इमारतों के ढेर में आधुनिकता का बोध गायब रहता है, तो इसलिए क्योंकि हम ढर्रे से बाहर नहीं आना चाहते। इस दौरान निर्माण की सरकारी एजेंसियां तो बढ़ गईं, लेकिन नए हिमाचल का कलात्मक पक्ष सामने नहीं आया। सरकारी क्षेत्र में पहाड़ी शैली का आधुनिक बोध दिखाई नहीं दिया, नतीजतन एक ही ड्राइंग पर आफिस, स्कूल या चिकित्सा भवन दिखाई देने लगे हैं। शिमला में अंग्रेजी शासन में जिस तरह प्रकृति से मेल खाता निर्माण हुआ, वह न्यू शिमला बनते-बनते मिट्टी में मिल चुका है। सरकारी इमारतों में नए हिमाचल की उभरती तस्वीर देखनी हो तो निर्माण की योग्यता, दक्षता और परिकल्पना को नए मुकाम तक पहुंचाना होगा। छात्रों को ऐसे परिसर चाहिएं जहां शिक्षा को माकूल वातावरण मिले। हिमाचल में सार्वजनिक भूमि का दुरुपयोग रोकने के लिए आर्किटेक्चर पर विशेष ध्यान देते हुए, इनकी उपयोग क्षमता को सार्थक बनाना होगा। हिमाचल के हर शहर की पहचान में वास्तुकला की विविधता का प्रदर्शन, गुणवत्ता के लिहाज से मजबूत होना चाहिए। विडंबना यह है कि सरकारी इमारतों पर पेड़-पौधे उग जाते हैं, लेकिन उन्हें हटाने के बजाय दीवारों के गिरने का इंतजार आसान हो गया है। हिमाचल के विभागीय कार्यालयों, स्कूल-कालेजों और चिकित्सालयों के भवनों को फिर से नए हिमाचल की कहानी लिखनी पड़ेगी। जहां पुरानी इमारतें खड़ी हैं, वहां वाहनों के लिए पार्किंग और जहां नवनिर्माण हो रहा है, वहां भविष्य की परिकल्पना चाहिए। निर्माण के क्षेत्र में ऐसा नवाचार चाहिए कि सरकारी एजेंसियां अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में अपने संदर्भों को पुख्ता कर सकें।
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