जातिवाद से मुक्ति ही हिंदू हित

कोई अपने पैसों से अपनी शादी में घोड़ी चढ़ रहा है, तो किसी दूसरे को अपमानित महसूस करना और दलित दूल्हे को घोड़ी से उतार देना कहां की मानवता है? ऐसे अमानवीय कृत्य करने वालों पर कानूनी कार्रवाई तो होनी ही चाहिए, किन्तु धर्म के रक्षक कहलाने वालों को सामाजिक स्तर पर भी कार्रवाई करनी चाहिए…

हिंदू धर्म में वर्ण व्यवस्था और उससे निकली जाति व्यवस्था कैसे और क्यों बनी, यह अपने स्थान पर एक अलग मुद्दा है। हो सकता है कि उस समय इसका रूप अलग रहा हो और समाज के लिए लाभदायक हो, किन्तु जिस रूप में यह व्यवस्था पिछले हजार-पांच सौ साल में पहुंच चुकी है, वह न तो देश हित में है और न ही हिंदू हित में है। हिंदू हित की सोच रखने का दावा करने वाले संगठन भी इस बात से मुकर नहीं सकते कि जाति के नाम पर होने वाला भेदभाव कितनी अमानवीय सीमा तक पहुंच गया था जिसका निराकरण भारतीय संविधान निर्माताओं द्वारा करने का प्रावधान किया गया। संविधान की ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष के रूप में बाबा साहिब भीमराव अंबेडकर, जो स्वयं इस अमानवीय भेदभाव के भुक्तभोगी रह चुके थे, की इस अन्यायपूर्ण व्यवस्था को कानूनी प्रावधानों से समाप्त करने में मुख्य भूमिका रही। गांधी जी ने इस अन्याय के विरुद्ध उससे पहले ही सामाजिक आंदोलन शुरू कर दिया था, जिससे एक वातावरण बन गया था और संविधान में जाति आधारित अन्याय दूर करने के प्रावधान कायम करने में और आम जनमत को जातिवादी अन्याय के विरुद्ध खड़ा करने में इससे काफी मदद मिली। कुल मिला कर भारत एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में जातिवादी अन्याय को शासकीय समर्थन देने के लिए अब बिल्कुल तैयार नहीं था।

किन्तु हजारों साल से समाज में रच बस गई व्यवस्था समाज से तब तक दूर नहीं हो सकती थी जब तक आम समाज इसके शिकंजे से बाहर निकलने का संकल्प न कर ले। एक बड़ा वर्ग इस संकल्प से जुड़ा भी। यह जुड़ाव दो तरह का था। एक तो उच्च वर्ण के लोगों द्वारा अपने व्यवहार को बदलने का प्रयास और दूसरा दलित पिछड़े वर्ग द्वारा अपने आत्मसम्मान के लिए खड़ा होने का प्रयास, जिसमें संविधान के प्रावधानों का प्रयोग भी शामिल था। इन दोनों ओर से किए गए सकारात्मक प्रयास के अनुरूप ही परिस्थिति में कुछ सुधार भी हुआ है। कुछ क्षेत्रों में अच्छा सुधार हुआ, किन्तु कुछ क्षेत्रों में अभी तक भी जातिगत अहंकार से बाहर निकलने में लोग असफल रहे हैं। वर्तमान संदर्भ इटावा में हुई एक घटना से संबद्ध है जहां एक कथावाचक को जाति पूछ कर इसलिए पीटा और अपमानित किया गया क्योंकि वह उच्च वर्ण का न होने के कारण कथावाचक का सम्मानित काम करने के योग्य नहीं है। इस तरह की नबराबरी थोपी नहीं जा सकती। यह संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन होने के साथ साथ अमानवीय भी है। कोई भी व्यक्ति किसी जाति में पैदा होने के कारण ही सम्मानित नहीं हो जाता, बल्कि उसके काम से उसे सम्मान अर्जित करना होता है। यही मानवीय समाज में समानता लाने के लिए सबसे जरूरी बात है। इसी से ही समाज में सकारात्मक प्रतिस्पर्धा भी पैदा होती है जिससे सारे समाज को ही लाभ होता है। किसी को भी कोई व्यवसाय अपनाने में कोई रोक नहीं सकता। कथावाचक होना भी एक व्यवसाय ही तो है। आज के समाज में हर आदमी अपनी पसंद का व्यवसाय अपना सकता है। यही तो स्वतंत्रता की कसौटी है। अपनी इच्छा के विरुद्ध किसी को कोई काम करने के लिए बाध्य करना ही तो सबसे बड़ी गुलामी है। आज ब्राह्मण जूते की दुकान खोल सकता है तो एक पढ़ा-लिखा दलित-पिछड़ा कथावाचक क्यों नहीं हो सकता? कथा में कोई किसी को पकड़ कर तो नहीं ले जाता। जिसको अच्छा न लगे वह न सुने किन्तु जबरन किसी को कथा करने से रोकना कितना घटिया और अमानवीय है।

और इस पर तुर्रा यह कि उसे मारा-पीटा गया और अपमानित भी किया गया। वह कोई चोरी-डकैती का काम तो कर नहीं रहा था। उसके लिए भी सभ्य समाज में कानून के अनुसार व्यवस्था द्वारा ही हस्तक्षेप करना पड़ता है। इस जातिवाद के कारण ही हम सदियों तक गुलाम रहे और आज के जमाने में पूरी दुनिया में हिंदू धर्म की जगहंसाई इसी जातिवादी भेदभावपूर्ण व्यवस्था के कारण होती है। इसी के कारण ही बहुत से हिंदू धर्म को मानने वाले आत्मसम्मान न मिलने के कारण धर्मांतरण द्वारा दूसरे धर्मों में चले गए या जा भी रहे हैं। उनको रोकना किसकी जिम्मेदारी है? जो हिंदू धर्म के अग्रणी होने का दावा करते हैं, वही जब भेदभाव के पक्षधर हो जाएंगे, तो सीधा रास्ता कौन दिखाएगा? हिंदू धर्म की जो विश्व के लिए उपयोगी बातें हैं, उनका प्रचार-प्रसार करने के प्रयास करने के बजाय हम लोग तो अपने झूठे अहंकार को संतुष्ट करने में लगे हैं। इससे एक तो समाज में आपसी सद्भाव में कमी आ रही है, दूसरे हिंदू धर्म की भी अपनी कमियों से बाहर निकलने की प्रक्रिया कमजोर हो रही है। हिंदू धर्म के छह दर्शन, रामायण जैसे ग्रंथों की अच्छी शिक्षाएं, गीता जैसे ज्ञान, आयुर्वेद और ज्योतिर्विज्ञान, अष्टांग योग और सभी धर्मों के प्रति सम्मान जैसे तत्वों को उजागर करने के बजाय जब हम आपस में एक-दूसरे को नीचे गिराने में अपना बड़प्पन मानने लगेंगे तो हमारे सर्वंगीण पतन को कौन रोक सकता है?

अपनी सदियों की दुर्दशा से भी कोई सीख न लेना, इससे बड़ी मूर्खता और काहिली क्या हो सकती है? अपनी टांगों पर खुद कुल्हाड़ी मारना इसे ही कहते हैं। कोई अपने पैसों से अपनी शादी में घोड़ी चढ़ रहा है, तो किसी दूसरे को अपमानित महसूस करना और दलित दूल्हे को घोड़ी से उतार देना कहां की मानवता है? ऐसे अमानवीय कृत्य करने वालों पर कानूनी कार्रवाई तो होनी ही चाहिए, किन्तु धर्म के रक्षक कहलाने वालों को सामाजिक स्तर पर भी कार्रवाई करनी चाहिए और बड़े पैमाने पर सकारात्मक प्रचार अभियान चलाना चाहिए। एक ओर तो हम कहते रहते हैं कि हम वसुधैव कुटुंबकम को मानने वाले हैं, और सच में हैं भी फिर अपने घर में अत्याचारी क्यों हैं? इस दोहरेपन से बाहर निकलना होगा। समय की यही मांग है कि हिंदू धर्म के इस कलंक को धोने के लिए नेतृत्व किया जाए। जो भी इस काम में अग्रणी भूमिका निभाएगा, वह हिंदू धर्म और मानवता की बड़ी सेवा करेगा। आधुनिक युग में जातिवाद का कोई औचित्य नहीं है।

कुलभूषण उपमन्यु

पर्यावरणविद


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