अर्थ-प्रधान विश्व करि राखा

पैसा थोड़ा भी फालतू हो तो सुविधाएं बढ़ जाती हैं, सुविधाएं बढ़ें तो ‘बड़े आदमी’ होने का अहंकार आ ही जाता है, सुविधाएं बढ़ें तो विलासिता ही नहीं, आलस्य भी जीवन का हिस्सा बन जाता है क्योंकि हर काम करने के लिए कोई न कोई सहायक मौजूद है ही। अब जीवन ऐसा है तो यह भी आवश्यक है कि पैसा अधिक हो, अधिक से भी कुछ अधिक हो। पैसा अधिक कमाना है तो जीवन में भागदौड़ बढ़ गई है। हम हमेशा जल्दी में ही हैं। आवश्यक कामों के लिए भी समय नहीं है। परिणाम यह है कि समयाभाव और अहंकार के चलते सबसे करीबी रिश्ते भी टूट रहे हैं। तलाक के ऐसे-ऐसे मामले सामने आते हैं कि दांतों तले उंगली दबानी पड़ जाती है। रिश्तों की टूटन ने भाई को भाई का, बच्चों को मां-बाप का और पति-पत्नी को एक-दूसरे का दुश्मन बना दिया है। शादी के नाम तक से डर लगने लगा है कि पता नहीं जीवन साथी बनने वाला शख्स हमारे जीवन का हंता ही तो नहीं बन जाएगा…
गूगल बाबा हमारे बारे में इतना कुछ जानते हैं जितना खुद हमें भी अपने बारे में पता नहीं है। हम बहुत सी बातें भूल जाते हैं, गूगल नहीं भूलता। हमारी याद्दाश्त सिलेसिलेवार नहीं है, गूगल का डेटा एकदम सटीक है। हम क्या खाते हैं, कहां जाते हैं, क्या पहनना पसंद करते हैं, कहां पैसा लगाते हैं, कहां खर्च करते हैं, कितना खर्च करते हैं, आदि का पूरा डेटा विभिन्न स्रोतों से गूगल और ऐसी ही मार्केटिंग कंपनियों के पास है। ये कंपनियां एक-दूसरे को डेटा बेचने या डेटा देने का काम करती हैं और एक तरह से हम सब इन कंपनियों के सामने वस्त्रहीन ही हैं, हमारे पास निजता या प्राइवेसी नाम की कोई चीज अब बची नहीं है। मार्केटिंग कंपनियां अब अपने उत्पादों और अपनी सेवाओं की कमियों के बारे में आधी-अधूरी जानकारी देती हैं, उनसे होने वाले नुकसान के बारे में चुप्पी साध लेती हैं, खूबियों को बढ़ा-चढ़ाकर बताती हैं और उसमें भी झूठ का मुलम्मा चढ़ा देती हैं। इन कंपनियों ने समझ लिया है कि जमाना पैकेजिंग का है, सो जो कुछ भी बेचना है उसे आकर्षक रूप में पेश करना इनकी महारत बन गई है। जीवन का कोई भी क्षेत्र इन कंपनियों की चालाकियों से अछूता नहीं रह गया है। फटाफट ज्यादा से ज्यादा लाभ कमाने का लालच और पैसे की दौड़ में व्यस्त दुनिया की हालत इतनी असंवेदनशील हो गई है कि लगता है कि पूरी दुनिया ही ‘अर्थ-प्रधान विश्व करि राखा’ के रोग से ग्रस्त हो गई है।
हालात इतने खराब हैं कि स्वास्थ्य सेवाओं की शुचिता पर भी विश्वास डिगने लग गया है। कहने को तो मनुष्य इस धरती का सर्वाधिक उन्नत जीव है लेकिन विडंबना यह है कि इस धरती पर अकेला मनुष्य ही ऐसा जीव है जिसे अपने स्वास्थ्य की रक्षा के लिए वृहत मार्गदर्शन ही नहीं बल्कि दवाओं, टीकों और आपरेशन आदि की भी आवश्यकता है। तुर्रा यह कि इलाज के दौरान कोई डॉक्टर या अस्पताल हमारा कितना नुकसान कर देगा कहना मुश्किल है। यही नहीं, ऐसे बहुत से मामले नजर में आते हैं जहां किसी मरीज की मृत्यु के बाद भी बहुत से नामचीन अस्पताल मरीज को वेंटिलेटर पर रखा हुआ दिखाकर बिल बढ़ाने से भी नहीं हिचकते। चिकित्सा जगत से जुड़े लोग अपनी अनौपचारिक बातचीत में अक्सर स्वीकार करते हैं कि चिकित्सा विज्ञान का हर विद्यार्थी अधिकांश बीमारियों के बारे में जो पहली बात सीखता है वह है- ‘यह बीमारी कई विभिन्न कारणों से हो सकती है। अभी हमें इस बीमारी के सभी सही कारणों के बारे में पूरी जानकारी नहीं है। इस बीमारी का कोई स्थायी इलाज संभव नहीं है।’ यही कारण है कि बीमारी को समझने का काम बहुत कुछ परंपरागत तरीकों से भी किया जाता है और बीमारी का सही निदान बहुत कुछ संबंधित चिकित्सक के अनुभव और कुशलता पर निर्भर करता है। इसमें एक और बाधा यह है कि बीमारी के निदान के समय चिकित्सक की अपनी मनोस्थिति यदि ठीक न हो, यानी वह थका हुआ हो, उदास हो, निराश हो, क्रोध में हो, पछतावे की भावना आदि का शिकार हो तो उसके अनुभव और कौशल के बावजूद निदान एकदम गड़बड़ भी हो सकता है क्योंकि वैधानिक रूप से स्वीकृत बहुत सी दवाइयों के साइड इफैक्ट भी इतने खराब हो सकते हैं मानो रोगी नशे का आदी रहा हो, जबकि मरीज ने जीवन में कभी बीड़ी-सिगरेट तक को भी न छुआ हो। रोज-रोज प्रकाशित होने वाले शोध कार्यों का हाल भी कोई बहुत अच्छा नहीं है। बिना पूरी प्रक्रिया के शोध स्वीकृत हो जाने के मामलों की तो कमी कभी नहीं रही, पर इससे भी बड़ी बाधा यह है कि शोध करने वाली टीम के निष्कर्ष उन्हें प्रायोजित करने वाली कंपनियों की आवश्यकताओं के हिसाब से बनाए जाने लग गए हैं, यानी शोध के नाम पर होने वाले काम जालसाजी सरीखे हो गए हैं।
यह स्वीकार करने में कोई हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिए कि स्वास्थ्य संबंधी शोध कार्यों का हाल भी इससे कोई अलग नहीं है। हमारा जीवन बहुत सरल था, अब भी सरल हो सकता है लेकिन दिखावे, सुविधा, अहंकार और आलस्य के कारण हम विभिन्न कंपनियों के जाल में फंसकर भाग-दौड़ भरा जीवन जीने के लिए विवश हो गए हैं। किसी भी शहर के किसी बड़े स्कूल में पढ़ रहे छोटे-छोटे बच्चों से बात कीजिए तो आपको समझ आ जाएगा कि हमारे बच्चे भी दिखावे की प्रवृत्ति के शिकार हैं। इन नौनिहालों में भी इस बात की प्रतियोगिता रहती है कि स्कूल की छुट्टियों के दौरान मम्मी-पापा हमें किस देश में लेकर गए, सप्ताहांत का हमारा डिनर किस होटल में होता है, हम कौन से ब्रांड के कपड़े पहनते हैं, किसके पास कौन सा नया खिलौना आया है, जन्मदिवस पर क्या-क्या आडंबर किए गए, आदि बातें इन बच्चों की आपसी चर्चा में भी शामिल हो गई हैं। पति-पत्नी दोनों जॉब में हैं, दोहरी आय है तो दिखावा करना आ ही जाता है। पैसा थोड़ा भी फालतू हो तो सुविधाएं बढ़ जाती हैं, सुविधाएं बढ़ें तो ‘बड़े आदमी’ होने का अहंकार आ ही जाता है, सुविधाएं बढ़ें तो विलासिता ही नहीं, आलस्य भी जीवन का हिस्सा बन जाता है क्योंकि हर काम करने के लिए कोई न कोई सहायक मौजूद है ही।
अब जीवन ऐसा है तो यह भी आवश्यक है कि पैसा अधिक हो, अधिक से भी कुछ अधिक हो। पैसा अधिक कमाना है तो जीवन में भागदौड़ बढ़ गई है। हम हमेशा जल्दी में ही हैं। आवश्यक कामों के लिए भी समय नहीं है। परिणाम यह है कि समयाभाव और अहंकार के चलते सबसे करीबी रिश्ते भी टूट रहे हैं। तलाक के ऐसे-ऐसे मामले सामने आते हैं कि दांतों तले उंगली दबानी पड़ जाती है। रिश्तों की टूटन ने भाई को भाई का, बच्चों को मां-बाप का और पति-पत्नी को एक-दूसरे का दुश्मन बना दिया है। शादी के नाम तक से डर लगने लगा है कि पता नहीं जीवन साथी बनने वाला शख्स हमारे जीवन का हंता ही तो नहीं बन जाएगा। जीवन को सरल बनाना कोई ज्यादा मुश्किल नहीं है। हम सिर्फ एक ही बीमारी ‘लोग क्या कहेंगे?’ को छोड़ दें तो आधी समस्याएं खुद ही खत्म हो जाएंगी। दिखावा बंद हो जाए तो इच्छाओं पर नियंत्रण संभव है। इच्छाएं नियंत्रित हो जाएं तो लालच खत्म, लालच खत्म तो पैसे की हाहाकार खत्म, अनावश्यक पैसे की चाह गई तो जीवन की फालतू भागदौड़ खत्म, और फिर जीवन में शांति और सुकून। फिर यह दुनिया हमारे लिए अर्थ-प्रधान न होकर शांति-प्रधान बन जाएगी। ऐसे ही जीवन के लिए कहा गया है कि ‘चाह गई, चिंता मिटी, मनुआ बेपरवाह, जिनको कछु न चाहिए, वे साहन के साह!’
स्पिरिचुअल हीलर
सिद्ध गुरु प्रमोद निर्वाण, गिन्नीज विश्व रिकार्ड विजेता लेखक
ई-मेल: indiatotal.features@gmail.com
Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also, Download our Android App or iOS App