अधिकारों की निशानदेही
अपने अधिकारों की निशानदेही करते हिमाचल के मुख्यमंत्री सुखविंदर सुक्खू ने प्राकृतिक आर्थिकी के महत्त्व को पुन: रेखांकित किया है। मौसम बरसात का था, तो तपोवन का विधानसभा परिसर बता रहा था कि पर्वत के आकाश पर कितनी बड़ी छतरी होती है, जो देश के आंचल को बचा सकती है। राष्ट्रमंडल संसदीय संघ सम्मेलन की नींव पर हिमाचल दरअसल पर्वतीय एहसास करा रहा है। जितनी जरूरी हैं पर्यावरण संरक्षण की नीतियां, उतनी ही जरूरी हैं पर्वतीय राज्यों के लिए अलग नीतियां। पर्वतीय राज्य हर सूरत और सीरत में पर्यावरण राज्य हैं। हिमालय के सारे वरदान देश को मिलते हैं, तो सिसकियां क्यों अकेली इनके नाम छोड़ दी जातीं। अभी बरसात के आगमन के आरंभिक दौर ने ही हिमाचल की संपत्तियों को लूट लिया, तो आपदा के अनुमान का राष्ट्रीय गणित ईमानदार होना चाहिए। एक हफ्ते ने हजार करोड़ की चपत नहीं लगाई, बल्कि जीवन की हर उमंग को रोक दिया। प्रदेश की रफ्तार घर से सरकार तक रुकती है, तो इन घावों पर मरहम की दरकार रहती है। यह उस इंतजार का प्रतिफल है जो ग्रीष्म काल में मैदानी मिट्टी का सीना सुखा देता है, जल संकट से देश के अस्सी फीसदी भाग को मुर्झा देता है, कई राज्यों के बीच तनाव बढ़ जाते हैं और तब एक पुकार ‘अल्लाह मेघ दे-पानी दे’ की होने लगती है, लेकिन जब बरसात आती है तो पहाड़ की कीमत व दौलत भुला दी जाती है। पानी की कीमत अंतरराष्ट्रीय राजनय के बल सीधे कर सकती है, तो घरेलू मसलों को क्यों नहीं। जल को संसाधन मानने के लिए सर्वप्रथम उन मसलों को देख लें, जहां कई प्रदेश सरकारें माननीय सर्वोच्च न्यायालय की फाइलों में माथा रगड़ रही हैं। पंजाब-हरियाणा व दक्षिण भारत के कई राज्यों के बीच जल बंटवारों का निष्पादन अगर ‘संपत्ति के हक’ की तरह है, तो सर्वप्रथम यह हिमालय का हक है, हिमालय को बचाने वाले राज्यों का अधिकार है।
भले ही हिमाचल की लोकसभा में चार सीटें हैं, लेकिन पूरे हिमालयी राज्यों की चालीस से 42 संसदीय सीटों के पर्वतीय सरोकार एक जैसे हैं। ऐसे में अगर हिमालयी क्षेत्र के पर्यावरणीय वजूूद जिंदा रखते हुए आर्थिक व विकासात्मक संरचना का उत्थान करना है, तो केंद्र में एक स्वतंत्र ‘पर्वतीय विकास मंत्रालय’ के गठन की जरूरत है। यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि पंजाब के कंडी क्षेत्र व पश्चिमी बंगाल के दार्जिलिंग, कलिम्पोंग, रिम्बिक, कुर्सियांग व संदकफू जैसे इलाकों का विकास भी मैदानी शर्तों पर नहीं हो सकता। दूसरी ओर भले ही कश्मीर और पूर्वोत्तर की अशांति को ढांपने के लिए केंद्र की आर्थिक मदद काम कर जाए, लेकिन पूरे हिमालय क्षेत्र को न्याय देने के लिए ‘पर्वतीय विकास मंत्रालय’ की स्थापना वक्त की जरूरत है। अतीत में प्रेम कुमार धूमल के मुख्यमंत्रित्व काल में हिमालयी राज्यों की सांस्कृतिक, आर्थिक व सामाजिक पृष्ठभूमि के सूत्र जोड़ते हुए चकमोह कालेज में एक प्रभावशाली समारोह हुआ था, कमोबेश उसी भावना के उद्गार तपोवन परिसर में प्रदेश के मुख्यमंत्री को उद्वेलित करते हैं। शांता कुमार के जिस मांग पत्र व प्रयास से मुफ्त बिजली की रायल्टी से हिमाचल आगे बढ़ा, उस एहसास की पुनरावृत्ति अब जल संपत्ति में राज्य के स्वाभिमान को खड़ा कर रही है। इसी संदर्भ में तपोवन की भूमिका ने पहाड़ी राज्यों की पहचान का परचम ऊंचा किया है। राष्ट्रमंडल संसदीय संघ सम्मेलन का आयोजन करवाकर विधानसभा अध्यक्ष कुलदीप सिंह पठानिया ने तपोवन परिसर की प्रासंगिकता बढ़ा दी है। लोकतांत्रिक परंपराओं के आंचल की तरह इस परिसर ने ये लम्हे समेटे हैं। जाहिर तौर पर आगे प्रयास होंगे तो तपोवन परिसर की गतिविधियों में राष्ट्रीय स्तर के ऐसे ही कुछ अन्य व विधायकों के प्रशिक्षण के कार्यक्रमों का संचालन भी शुरू हो पाएगा।
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