ध्यान किसलिए करें

By: ओशो Sep 5th, 2020 12:20 am

ठीक पूछा है। क्योंकि हम तो हर बात के लिए पूछेंगे कि किसलिए? कोई कारण हो पाने के लिए तो ठीक है, कुछ दिखाई पड़े कि धन मिलेगा, यश मिलेगा, गौरव मिलेगा, कुछ मिलेगा, तो फिर हम कुछ कोशिश करें। क्योंकि जीवन में हम कोई भी काम तभी करते हैं जब कुछ मिलने को हो। ऐसा कोई काम करने के लिए कोई राजी नहीं होगा जिसमें कहा जाए कि कुछ मिलेगा नहीं और करो। वह कहेगा, फिर मैं पागल हूं क्या?

कि जब कुछ मिलेगा नहीं और मैं करूं। लेकिन मैं आपसे निवेदन करता हूं, जीवन में वे ही क्षण महत्त्वपूर्ण हैं जब आप कुछ ऐसा करते हैं जिसमें कुछ भी मिलता नहीं। जब कुछ मिलने के लिए आप करते हैं तब बहुत क्षुद्र हाथ में आता है। विराट को पाने के लिए कुछ पाने की आकांक्षा नहीं होनी चाहिए, हो तो फिर बाधा  हो जाएगी। ध्यान किसलिए करते हैं? अगर कोई आपसे पूछे, प्रेम किसलिए करते हैं? तो क्या कहेंगे? कहेंगे प्रेम स्वयं अपने आप आनंद है। वह किसी के लिए नहीं, कोई परपज नहीं है और आगे। प्रेम अपने में ही आनंद है। उसके बाहर और कोई कारण नहीं जिसके लिए प्रेम करते हों और अगर कोई किसी कारण से प्रेम करता हो, तो हम फौरन समझ जाएंगे कि गड़बड़ है, यह प्रेम सच्चा नहीं है। मैं आपको इसलिए प्रेम करता हूं कि आपके पास पैसा है, वह मिल जाएगा। तो फिर प्रेम झूठा हो गया।

मैं इसलिए प्रेम करता हूं कि मैं परेशानी में हूं, अकेला हूं, आप साथी हो जाएंगे। वह प्रेम झूठा हो गया। वह प्रेम न रहा। जहां कोई कारण है वहां प्रेम न रहा, जहां कुछ पाने की इच्छा है वहां प्रेम न रहा। प्रेम तो अपने आप में पूरा है। ठीक वैसे ही, ध्यान के आगे कुछ पाने को जब हम पूछते हैं क्या मिलेगा? वह हमारा लोभ पूछ रहा है। मोक्ष मिलेगा कि नहीं, आत्मा मिलेगी कि नहीं? वह पूछ रहा है हमारा लोभ। वही जो हमारी हमेशा लाभ, लोभ की जो चिंतना है, वह काम कर रही है। नहीं, मैं आपसे कहता हूं, कुछ भी नहीं मिलेगा और जहां कुछ भी नहीं मिलता वहीं वह मिल जाता है, सब कुछ जिसे हम कहें। जिसे हमने कभी खोया नहीं, जिसे हम कभी खो नहीं सकते,जो हमारे भीतर मौजूद है। अगर उसको पाना हो जो हमारे भीतर मौजूद है, तो कुछ और पाने की चेष्टा सार्थक नहीं हो सकती है। सब पाने की चेष्टा छोड़ कर जब हम मौन, चुप रह जाएंगे, तो उसके दर्शन होंगे जो हमारे भीतर निरंतर मौजूद है। कुछ वहां मौजूद है, उसे पाने के लिए अक्रिया में हो जाना जरूरी है, सारी क्रियाएं छोड़ कर अक्रिया में हो जाना जरूरी है।

अगर मुझे आपके पास आना हो, तो दौड़ना पड़ेगा, चलना पड़ेगा और अगर मुझे मेरे ही पास आना हो, तो फिर कैसे दौडूंगा और कैसे चलूंगा? और अगर कोई आदमी कहे कि मैं अपने को ही पाने के लिए दौड़ रहा हूं, तो हम उससे कहेंगे, तुम पागल हो, दौड़ने में तुम समय खराब कर रहे हो। दौड़ने से क्या होगा? दौड़ते हैं दूसरे तक पहुंचने के लिए, अपने तक पहुंचने के लिए कोई दौड़ना नहीं होता। फिर अपने तक पहुंचने के लिए सब दौड़ छोड़ देनी होती है। क्रिया होती है कुछ पाने के लिए, लेकिन जिसे स्वयं को पाना है उसके लिए कोई क्रिया नहीं होती, सारी क्रिया छोड़ देनी होती है। जो क्रिया छोड़ कर दौड़ छोड़ कर रुक जाता, ठहर जाता, वह स्वयं को उपलब्ध हो जाता है और यह स्वयं को उपलब्ध कर लेना सब उपलब्ध कर लेना है। और जो इसे खो देता है वह सब पा ले तो भी उसके पाने का कोई मूल्य नहीं। एक दिन वह पाएगा, वह खाली हाथ था और खाली हाथ है।


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