कहां है जनता? : पी. के. खुराना, राजनीतिक रणनीतिकार

By: पी. के. खुराना, राजनीतिक रणनीतिकार Oct 8th, 2020 12:12 am

पीके खुराना

राजनीतिक रणनीतिकार

पिछले 233 सालों में अमरीका का कोई राष्ट्रपति तानाशाह नहीं बन पाया है। अमरीका के वर्तमान राष्ट्रपति श्री डोनाल्ड ट्रंप को पद संभाले दो ही हफ्ते हुए थे कि वहां के सिस्टम ने उनके पर कतरने शुरू कर दिए, जबकि हमारे यहां आजादी के बाद 30 साल भी पूरे नहीं हुए थे कि इंदिरा गांधी ने देश पर आपातकाल थोप दिया और वह तथा उनके पुत्र संजय गांधी तानाशाह बन गए थे…

भारतीय संविधान की मूल भावना को ‘जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता की सरकार’ के रूप में व्यक्त किया गया है। हमारे संविधान निर्माता सरकार और प्रशासन में हर स्तर पर आम आदमी की भागीदारी को सर्वोच्च प्राथमिकता देते थे, लेकिन हमारी राजनीतिक और प्रशासनिक प्रणाली ऐसी बन गई है कि इसमें आम आदमी की सहभागिता न के बराबर है। आलाकमान से जुड़े सरकार के दो-तीन प्रभावशाली लोग फैसला करते हैं कि कौन सा बिल पेश किया जाए। यह छोटा-सा गुट सरकार के सारे कामकाज संभालता है। मतदाता के रूप में एक आम आदमी किसी को भी वोट देने के लिए स्वतंत्र है, लेकिन हमारे चुने हुए प्रतिनिधि ह्विप की प्रथा के कारण अपनी मर्जी से वोट नहीं दे सकते।

 परिणाम यह है कि पिछले दस सालों में 47 प्रतिशत बिल, यानी लगभग आधे बिल बिना किसी बहस के ही पास कर दिए गए। इंदिरा गांधी ने अपनी कुर्सी बचाने के लिए देश पर आपातकाल थोपा और संसद का कार्यकाल 5 वर्ष से बढ़ाकर 6 वर्ष करवा लिया, राष्ट्रपति की शक्तियां छीन लीं, न्यायपालिका को झुका दिया, मीडिया पर सेंसरशिप लागू कर दी, नागरिकों के मौलिक अधिकार स्थगित कर दिए और संसद में कोरम की आवश्यकता समाप्त करके यह कानून बनवा लिया कि यदि सदन में सिर्फ  एक सांसद ही मौजूद हो और वह किसी बिल के पक्ष में वोट दे दे तो उस बिल को पास माना जाएगा। इस संविधान में सवा सौ के लगभग संशोधन हो चुके हैं और उनका प्रभाव इतना व्यापक है कि संविधान का मूल रूप ही समाप्त हो गया है। यह संविधान तो खुद को ही नहीं बचा पाया, देश को क्या बचाएगा? सवा सौ के लगभग संशोधनों के बावजूद जब संविधान की समीक्षा की मांग की जाती है तो बुद्धिजीवी वर्ग और पक्ष-विपक्ष के सांसद शोर मचाने लग जाते हैं मानो संविधान किसी जीवंत समाज की नियमावली न होकर कोई अलौकिक धार्मिक ग्रंथ हो जिसे बदला नहीं जा सकता।

समय की मांग है कि हम खुले दिमाग से संविधान की समीक्षा करें और इसकी खूबियों-खामियों का विशद विश्लेषण करके देश को ऐसा संविधान दें जो तर्कसंगत हो और वर्तमान आवश्यकताओं की पूर्ति करता हो। एक आंदोलन के रूप में इस विचार का प्रतिपादन करने वाले भानु धमीजा की अत्यंत लोकप्रिय पुस्तक ‘ह्वाई इंडिया नीड्स दि प्रेजिडेंशल सिस्टम’ का अब दूसरा संस्करण भी शीघ्र ही आने वाला है। इसी की अगली कड़ी के रूप में एमेजॉन पर उपलब्ध मेरी पुस्तक ‘भारतीय लोकतंत्र ः समस्याएं और समाधान’ में संविधान के कुछ संशोधनों की विस्तृत समीक्षा है जिनके कारण हमारा संविधान अप्रासंगिक और अर्थहीन हो गया है। हम दोनों का उद्देश्य यही है कि लोकतंत्र तभी फलीभूत होगा अगर शासन-प्रशासन में जनता की सशक्त और सक्रिय भागीदारी होगी। राजशाही या तानाशाही के अलावा विश्व में मुख्यतः तीन तरह की शासन प्रणालियां प्रचलित हैं। हमारे देश में संसदीय प्रणाली है, अमरीका में राष्ट्रपति प्रणाली प्रचलित है और कई अन्य देशों में मिश्रित प्रणाली लागू है। अभी तक के अनुभव से हमने यह सीखा है कि अमरीका में प्रचलित राष्ट्रपति प्रणाली इन सबमें बेहतर है और मामूली से फेरबदल के साथ वह भारतवर्ष के लिए भी एक आदर्श व्यवस्था हो सकती है। अमरीकी राष्ट्रपति को जनता सीधे चुनती है। राष्ट्रपति और उनका मंत्रिमंडल मिलकर सरकार का एक भाग, यानी कार्यपालिका बनते हैं। सांसद भी जनता द्वारा सीधे चुने जाते हैं। वे सरकार का कानून बनाने का काम करते हैं।

राष्ट्रपति और विधायिका एक-दूसरे को हटा नहीं सकते, बल्कि एक-दूसरे का निरीक्षण करते हैं। सरकार के ये दोनों अंग मिलकर सरकार के तीसरे अंग, न्यायपालिका की नियुक्ति करते हैं। कार्यपालिका और विधायिका एक-दूसरे पर सीमित नियंत्रण रखते हैं और जनता का उन पर सीधा नियंत्रण है। अमरीकी राष्ट्रपति की शक्तियां नियंत्रित हैं, वह कोई कानून नहीं बनाता, उसके द्वारा की गई नियुक्तियां तभी सिरे चढ़ती हैं यदि संसद भी उस पर अपनी सहमति दे दे। राष्ट्रपति के कामकाज के लिए बजट संसद तय करती है। राष्ट्रपति लंबे समय के लिए सेनाओं को युद्ध में नहीं झोंक सकता। वह मंत्रिमंडल के लिए अपने सहयोगी प्रस्तावित करता है और संसद की सहमति से ही उनकी नियुक्ति हो पाती है। प्रदेश सरकारों पर राष्ट्रपति का कोई नियंत्रण नहीं है।

वहां नेताओं को आलाकमान नियुक्त नहीं करता, जनता चुनती है, परिणामस्वरूप अच्छे नेता उभर कर आते हैं। काबिल उम्मीदवारों के लिए मेयर, सीनेटर, गवर्नर और प्रेजिडेंट तक कई अवसर उपलब्ध हैं जिससे वे अपनी काबिलीयत दिखाकर आगे बढ़ सकते हैं। उसमें किसी आलाकमान की कोई भूमिका नहीं है। अमरीकी प्रणाली भ्रष्टाचार रोकने के लिए सर्वाधिक सक्षम प्रणाली है क्योंकि वहां शक्तियों का बंटवारा बहुत स्पष्ट और तर्कसंगत है तथा वहां की संसद, राष्ट्रपति और उसके सहयोगियों के कामकाज की पूरी समीक्षा करती है। वहां चुनाव के समय खुली बहस होती है, टीवी के माध्यम से देश भर की जनता उससे जुड़ती है, इससे कामकाज का एजेंडा जनता से जुड़ा होता है। वहां चुनाव क्षेत्र बहुत बड़ा होता है, सीनेटर का चुनाव क्षेत्र पूरा प्रदेश होता है और राष्ट्रपति का चुनाव क्षेत्र पूरा देश, इसलिए जाति या धर्म के आधार पर चुनाव जीतना संभव नहीं है। अमरीका में कोई भी बिल 60 प्रतिशत सांसदों के समर्थन से ही पास होता है। बिल पेश करने वाला सदस्य बिल पेश करने से पहले ही पक्ष और विपक्ष के सभी सदस्यों को अपने बिल के बारे में बताता है, उनकी राय लेता है, उसमें आवश्यक संशोधन करता है और तब वह बिल संसद में पेश होता है।

इस प्रकार कोई भी बिल पेश होने से पहले ही उसमें कई सुधार हो चुके होते हैं और बाकी कसर तब निकल जाती है जब वह संसद में आता है। उन पर खूब बहस होती है, उसके एक-एक प्रावधान को बारीकी से परखा जाता है। परिणाम यह है कि अमरीका में जनहित वाले कानून पास होते हैं, जबकि हमारे देश में बिल पेश करने और पास होने की प्रक्रिया एकदम उलट है। अमरीकी राष्ट्रपति का कार्यकाल चार साल का होता है और सामान्य अवस्था में अमरीकी संसद उसे हटा नहीं सकती। अमरीकी राष्ट्रपति के मंत्रिमंडल के सहयोगी किसी सदन के सदस्य नहीं होते, अतः राष्ट्रपति विषय के विशेषज्ञों को चुनता है। कानून बनाने में अमरीकी राष्ट्रपति की कोई भूमिका नहीं होती, वह संसद द्वारा बनाए गए कानूनों के अनुसार काम करता है। अमरीकी संसद कानून बनाती है, उन्हें लागू नहीं करती। शासन के कामों में अमरीकी संसद का दखल नहीं होता। राष्ट्रपति अपने हर निर्णय की मंजूरी संसद से लेता है, परिणामस्वरूप राष्ट्रपति शक्तिशाली होते हुए भी निरंकुश नहीं हो सकता। पिछले 233 सालों में अमरीका का कोई राष्ट्रपति तानाशाह नहीं बन पाया है। अमरीका के वर्तमान राष्ट्रपति श्री डोनाल्ड ट्रंप को पद संभाले दो ही हफ्ते हुए थे कि वहां के सिस्टम ने उनके पर कतरने शुरू कर दिए, जबकि हमारे यहां आजादी के बाद 30 साल भी पूरे नहीं हुए थे कि इंदिरा गांधी ने देश पर आपातकाल थोप दिया और वह तथा उनके पुत्र संजय गांधी तानाशाह बन गए थे।

ईमेलःindiatotal.features@gmail.com


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