महान स्वतंत्रता सेनानी पं. इंद्रपाल

By: Dec 18th, 2022 12:05 am

डा. ओपी शर्मा

मो.-8219277144

साहित्य की निगाह और पनाह में परिवेश की व्याख्या सदा हुई, फिर भी लेखन की उर्वरता को किसी भूखंड तक सीमित नहीं किया जा सकता। पर्वतीय राज्य हिमाचल की लेखन परंपराओं ने ऐसे संदर्भ पुष्ट किए हैं, जहां चंद्रधर शर्मा गुलेरी, यशपाल, निर्मल वर्मा या रस्किन बांड सरीखे साहित्यकारों ने साहित्य के कैनवास को बड़ा किया है, तो राहुल सांकृत्यायन ने सांस्कृतिक लेखन की पगडंडियों पर चलते हुए प्रदेश को राष्ट्र की विशालता से जोड़ दिया। हिमाचल में रचित या हिमाचल के लिए रचित साहित्य की खुशबू, तड़प और ऊर्जा को छूने की एक कोशिश वर्तमान शृंाखला में कर रहे हैं। उम्मीद है पूर्व की तरह यह सीरीज भी छात्रों-शोधार्थियों के लिए लाभकारी होगी…

पंडित इंद्रपाल का जन्म शहर नादौन जिला हमीरपुर हिमाचल प्रदेश के एक दुबले-पतले लम्बे मेहनती तथा मजबूत ब्राह्मण पंडित हरिराम के घर 5 अप्रैल 1905 को हुआ। उस साल उनके जन्म से एक दिन पहले 4 अप्रैल 1905 को कांगड़ा जिले में और शहर नादौन के आस-पास के गांव में भूचाल आने से भारी क्षति हुई और पंडित जी के परिवार को भी काफी धक्का पहुंचा। पिता जी ज्यादा पढ़े-लिखे न होकर पंडिताई करते थे। पूजा-पाठ, यज्ञोपवीत, ब्याह-शादी, कथा-वार्ता कराने के अतिरिक्त जरूरत पडऩे पर देहाती मेलों में छोटी-मोटी दुकान लगाकर अपना और अपने बच्चों का पेट पालते थे। उनके चार लडक़ों में सबसे बड़े मंगत राम बाद में इंद्रपाल कहलाए। माता श्रीमती रामदेवी सुंदर, सुशील, धर्म-परायण स्त्री थी। गांव की स्त्रियों में उनका बड़ा आदर, मान व प्रतिष्ठा थी। गांव के साथ बहने वाली व्यास नदी में प्रात: नहा धोकर पूजा-पाठ पर बैठ जाती, गांव के ठाकुरद्वारे में तुलसी रामायण का पाठ करती और सत्संग का आयोजन करती।

घर में बिल्व का वृक्ष और भगवान शिवलिंग स्थापित थे। पुराना सनातन धर्मी खानदान और गृहणी के नेक और मिलनसार स्वभाव के कारण गांव में उनको आदर से देखा जाता था। माता रामदेवी के सुलझे हुए व्यक्तित्व के कारण घर में खुशी और शांति का वातावरण प्रतीत होता था। इनकी मृत्यु के समय सबसे छोटा लडक़ा मंगतराम डेढ़ साल का था। उसे उसकी बहन कमला देवी ने, जो छोटी ही उम्र में ब्याही गई थी और स्वयं भी छोटी ही थी, सम्भाला और उनके पिता पंडित हरिराम ने मां की जगह लेकर बच्चों का पालन-पोषण किया। गरीबी के होते हुए भी एक घर स्वर्ग कैसे हो सकता है, यह माता रामदेवी के जीवन से स्पष्ट झलकता था। उनकी मृत्यु के पश्चात बच्चे छोटी आयु में ही जीविका के लिए साधन ढूंढने के उद्देश्य से बाहर निकलने पर मजबूर हो गए। पंडित इंद्रपाल से पहले उनके मां-बाप के दो बच्चे पैदा हुए थे जो बचे नहीं, इसलिए इन्हें घिरत बिरादरी के एक घर में पलने के लिए कुछ समय के लिए छोड़ दिया था। इसलिए जन्म नाम मंगतराम हुआ, बाद में वापिस घर लाकर इन्हें स्कूल में दाखिल करा दिया गया। यह पढ़ाई में अव्वल और तीक्ष्ण बुद्धि वाले थे। उन दिनों सारे जिला कांगड़ा में केवल मिडिल स्कूलों की चार स्कालरशिप हुआ करती थी। इन्होंने मिडिल की परीक्षा देहरा गोपीपुर के स्कूल से दी और स्कालरशिप प्राप्त की। देहरा में वे बोखडंग में न रहकर कुछ और लडक़ों के साथ मिलकर एक कमरा किराये पर लेकर पढ़ते रहे। मिडिल की परीक्षा पास करने के बाद ये कुछ दिन बनी गांव के स्कूल में टीचर भी रहे।

बनी बग्गी के पश्चात चौकी मनियार के स्कूल में कुछ दिन अध्यापक का काम किया, फिर ये छोडक़र खिसक गये और तीन-चार साल तक इनका पता ही नहीं चला कि ये कहां रहे। पंडित इन्द्रपाल पत्रकार बने और घूमते-घूमते लाहौर जा पहुंचे। अंत में मास्टर नंदलाल पत्रकार के शागिर्द बन गए। पत्रकारिता का काम सीखने के बाद यह अखबारों का काम करने लगे। 1925 में इन्हें सनातन धर्म सभा रावलपिंडी से उनके उर्दू साप्ताहिक ‘सुदर्शन चक्र’ की किताब के लिए रखा गया। यह रावलपिंडी पहुंच गए। यशपाल इस अखबार का उस समय मैनेजर थे। वहां दोनों की पहली मुलाकात हुई। पंडित जी जो दिन भर अखबार का काम करते, शाम को सैर के लिए शहर से बाहर तपोवन की तरफ निकल जाते और रात को देर से लौटते। सर्दियों के दिनों में भी यह बिस्तर की जरूरत नहीं समझते थे। ज्यादा सामान रखने के हक में नहीं थे। एक मुसाफिर की तरह रहते थे। उनका कहना था कि शरीर को ज्यादा आराम सुख-सुविधा का अभ्यस्त नहीं बनना चाहिए। ज्यादा पैसा भी मनुष्य के लिए अवांछित है। जितनी आवश्यकता है उतना रखो बाकि किसी दूसरे की जरूरत पूरी करने के काम आये तो अच्छा है।

वह क्रियात्मक तौर पर एक सोशलिस्ट थे। रावलपिंडी से वापस लाहौर आकर वह सनातन धर्म प्रतिनिधि सभा के उर्दू दैनिक ‘भीष्म’ में नौकर हो गए। कुछ समय आराम से कट गया। लेकिन अखबार के स्टाफ का कई महीनों का बिल न दिया गया तो पंडित जी ने पत्रकारों की सभा का झंडा उठाया और पोस्टरों और जुलूसों द्वारा अखबार के प्रबंधकों के विरुद्ध प्रदर्शन शुरू कर दिया। अंत में प्रबंधकों ने आंशिक तौर पर कुछ दे दिला कर पीछा छुड़ाया। मजदूर संगठन में उनकी निष्ठा मजबूत हो गई। कांगड़ा जिले का यह पहाड़ी ब्राह्मण युवक लाहौर में मजदूरों का नेता बन गया। उन दिनों उर्दू की अखबारों में पत्रकारों की दशा दयनीय थी। एडिटरों की चाटुकारिता करने वाले लेखक तो बहुत पैसा कमा लेते थे, परंतु स्वाभिमान रखने वाले लेखकों की मासिक आमदनी बहुत कम बैठती थी। आपने ‘भीष्म’ अखबार के कातिबों की यूनियन बनाई जिसमें हर एक को उसकी लिखाई की योग्यता के अनुरूप आमदनी तय कर दी और खुशामद का ढंग बदल दिया। वह दूसरे अखबारों में भी ऐसा ही तरीका चालू कराने के लिए कटिबद्ध होकर मैदान में निकले। इस संबंध में कुछ बैठकें हुई औैर उनका कुछ नतीजा भी निकला।

आतिशीचक्कर का घोषणा पत्र

दुश्मन का मुकाबला करने के लिए हमको जंग ही करनी पड़ेगी। बेकसूर और मासूम नन्हीं दुनिया का खूंखार हथियार द्वारा दुश्मन के हाथों खून गिरवाना और सैंकड़ों जिंदगियों को तबाह कर देना जंग नहीं कहलाता। यह खुदकुशी है। पब्लिक शांतिमय सत्याग्रह के शासकीय सिद्धांतों का काफी अनुभव कर चुकी है। हजारों हमवतनों के जेल में सडऩे, करोड़ों रुपए के फिजूल खर्च और सैंकड़ों जिंदगियों के भेंट चढ़ा चुकने के बाद शांतमयी सत्याग्रही की लड़ाई में हमको सिर्फ सफलता ही मिली हुई है। हमारी पिछली 15 वर्षों की मेहनत इस बात की गवाह है।

बेकसूर और निर्दोष लोगों का खून बहाने से अन्याय और जुल्म का खात्मा नहीं हो सकता। खुद अपना ही खून बहाकर और अपनी ताकत घटाकर हमें स्वतंत्रता प्राप्त न होगी। इसलिए गुलामी की जंजीरों को तोडऩा निहायत जरूरी है। अत्याचार और अन्याय की नींव पर विदेशी शासन को उखाड़ फेंकना बहुत जरूरी है। युद्ध में विजय हासिल करने के लिए हमें एक ताकतवर फौज की सूरत में संगठित होकर दुश्मन का मुकाबला करने से कोई फायदा नहीं है। इसमें हमारा अपना ही नुकसान है। पेशावर में ढाई सौ हिन्दुस्तानियों का खून गिराकर हमें क्या मिला? हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी ने चटगांव की मिसाल से हमें रास्ता दिखा दिया है। उपयुक्त तौर पर सशक्त और संगठित होकर दुश्मन का मुकाबला कितनी अच्छी तरह से किया जा सकता है, यह स्पष्ट हो चुका है।

-(शेष भाग निचले कॉलम में)

अतिथि संपादक

डा. सुशील कुमार फुल्ल

मो.-9418080088

हिमाचल रचित साहित्य -४३

विमर्श के बिंदु

1. साहित्य सृजन की पृष्ठभूमि में हिमाचल
2. ब्रिटिश काल में शिमला ने पैदा किया साहित्य
3. रस्किन बांड के संदर्भों में कसौली ने लिखा
4. लेखक गृहों में रचा गया साहित्य
5. हिमाचल की यादों में रचे-बसे लेखक-साहित्यकार
6. हिमाचल पहुंचे लेखक यात्री
7. हिमाचल में रचित अंग्रेजी साहित्य
8. हिमाचल से जुड़े नामी साहित्यकार
9. यशपाल के साहित्य में हिमाचल के रिश्ते
10. हिमाचल में रचित पंजाबी साहित्य
11. चंद्रधर शर्मा गुलेरी की विरासत में

पं. इंद्रपाल का आजादी की लड़ाई में योगदान

-(ऊपरी कॉलम का शेष भाग)

विदेशी शासन का प्रतिनिधि वायसराय हिन्दुस्तान की हमदर्दी का ढोंग रचकर अब अपनी असली सूरत दिखा रहा है। हमारे यौवन और हिम्मत की परीक्षा का समय अब आ गया है। दुश्मन को खबर न देकर उस पर आक्रमण युद्ध के उसूलों के खिलाफ है। जगह-जगह पर फौजी शक्ल में तैयार होना होगा। ताकत और हथियारों को इक_ा करने के काम में हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन हमें सफलता के रास्ते पर ले जाएगा। इन्द्रपाल और उसके साथियों द्वारा प्रकाशित घोषणापत्र में विदेशी सरकार के विरुद्ध क्रांति के लिए दृढ़ निश्चय और बलिदान की भावना की कमी नहीं है, परंतु फिलॉसफी ऑफ दि बम की तुलना में यह निसन्देह भिन्न स्तर की शिक्षा और राजनैतिक परिस्थिति का ज्ञान रखने वाले लोगों की लिखी हुई चीज है। यह इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि धन्वन्तरी और सुखदेव राज इन लोगों का मार्ग निर्देशन नहीं कर रहे थे।

हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के नाम पर बलिदान हो जाने के लिए तैयार लोगों में परस्पर सहयोग की कमी के दोनों ही कारण थे। दल की ओर से नियत संगठनकर्ता का इन लोगों की उपेक्षा करना और इन लोगों का उस पर अविश्वास। संगठन के शैथिल्य के कारण अपने इन साथियों का बलिदान व्यर्थ ही लगा। इन्द्रपाल को इस घटना से स्वयं भी संतोष न हुआ था। वह अब कोई अच्छा एक्शन करने का सोच रहा था। हंसराज ने इन बमों को स्वयं चलाने का तरीका तो बता दिया परन्तु स्वयं अलग हो गया था। उसने फिर विश्वास दिलाया कि कुछ दिनों में मूर्छा गैस बना देगा। इन्द्रपाल ने अपने गरीब साथियों से मांग-तांग कर हंसराज को इस काम के खर्च के लिए लगभग दो सौ रुपया भी दिया था। हंसराज गैस बना देने में बहाने करता रहा। इन्द्रपाल यह सोचकर बहुत चिढ़ गया था कि हंसराज आशंका में फंसने के भय से जान-बूझ कर काम नहीं कर रहा है।

उसने हंसराज को मजबूर कर देना चाहा। इन्द्रपाल ने यह उपाय किया कि एक सूटकेस में कुछ विस्फोटक पदार्थ तेजाब के साथ इस तरह रख दिया जाए कि सूटकेस को खोलकर रख देने पर कुछ देर बाद विस्फोट हो जाए। इस सूटकेस में उसने कुछ कागज भी रख दिए जिनमें कुछ काल्पनिक पते पर लिखी हुई चि_ियों के साथ हंसराज का वास्तविक पता भी था। वह सूटकेस को साथ लिए बाजार गया। दूध-दही की एक दुकान पर सूटकेस रखकर दही की लस्सी पीने बैठ गया और सूटकेस को छोडक़र आगे चल दिया। कुछ देर बाद सूटकेस मामूली आवाज से बिना किसी को चोट पहुंचाए फट गया। पुलिस जांच करने पहुंच गई। इन्द्रपाल ने हंसराज को संदेश भेज दिया कि तुम पर पुलिस को संदेह हो गया है। तुरन्त घर छोड़ कर हमारे पास आ जाओ। हम तुम्हारी रक्षा का प्रबंध कर देंगे। तीसरे-चौथे दिन वास्तव में ही लायलपुर में हंसराज के मकान की तलाशी हो गई। हंसराज घर छोड़ चुका था, इसलिए गिरफ्तारी नहीं हुई। अब इन्द्रपाल को आशा हो गई कि हंसराज, मरता क्या न करता की अवस्था में दल की सहायता करेगा ही परन्तु हंसराज अब भी बहाने कर अपनी रक्षा के प्रबंध की ही मांग कर रहा था। वह कभी सुखदेव राज के दल में हो जाने की बात करता तो कभी इन्द्रपाल के दल में। इसके अतिरिक्त हंसराज को शायद यह भी ख्याल था कि वह इन्द्रपाल और इस उपदल के दूसरे साथियों की अपेक्षा अधिक शिक्षित है और दल के काम को चलाने के साधन मूर्छा गैस, वायरलैस आदि उसी के हाथ में हंै, इसलिए इन लोगों को उसका नेतृत्व मानना चाहिए। हंसराज बहुत गरीबी में निर्वाह करने की कठिनाई की शिकायत करता रहता। इन्द्रपाल और उसके साथी अपनी सब जमा पूंजी आतिशीचक्र या बम बनाने, प्रैस खरीदने और हंसराज के मूर्छा गैस बनवाने में खर्च कर चुके थे।

अवसर वश ‘शेरे खालसा’ अखबार से इन लोगों की नौकरियां भी छूट गई थी। यह लोग आजाद, धन्वन्तरी, सुखदेव राज अपने परिचय, अपनी बातचीत से परिचितों को प्रभावित करके रुपया भी इक_ा न कर सकते थे, इसलिए इस समय बहुत ही कठिन अवस्था में थे। हंसराज वायरलेस आविष्कारक समझा जाने के कारण थोड़ा बहुत पैसा इक_ा कर लाता था जो वह दल के दूसरे साथियों को न देता था। हंसराज पैसा मांगते समय लोगों पर प्रभाव डालने के लिए प्राय: अपना परिचय वायसराय की ट्रेन के नीचे वायरलेस से बम विस्फोट करने वाले क्रांतिकारी के रूप में देता था। इस समय तक किसी मुकद्दमें में उस विस्फोट का रहस्य प्रकट नहीं हुआ था, इसलिए लोग उसकी बात पर विश्वास भी कर लेते थे। हंसराज की इस करतूत का एक प्रमाण कुछ ही दिन पूर्व पंजाब के बंटवारे के बाद लखनऊ आए एक सज्जन से भी मिला। इन्द्रपाल के नए-नए उत्साही साथियों की असावधानी के कारण स्वयं उस पर भी पुलिस को सन्देह हो गया था। इन्द्रपाल संकट में होने पर भी अपने विचार से अन्याय के विरुद्ध अन्य की सहायता के लिए खड़ा होने के लिए तैयार था।

दल की रक्षा के लिए इन्द्रपाल के आजाद के साथ प्रयत्न

अपने दल के मुखबिर बन जाने वाले लोगों के कारण कैलाशपति के व्यवहार से सबसे अधिक वेदना हुई थी। दूसरे लाहौर षडय़ंत्र के मुकद्दमें में इन्द्रपाल भी मुखबिर बन गए। इस बात से आजाद को भी गहरा धक्का लगा। दिल्ली के समीप इन्द्रपाल के साधु बन कर वास्तविक तपस्या करने के तथा बहावलपुर रोड के मामले में उसके साहस की सभी बातें आजाद जानते थे। इन्द्रपाल के विषय में अदालत में उसके सरकारी गवाह के रूप में पेश होने और उसके बयानों को पत्रों में छपा देखकर हैरानी हुई। कुछ बातें ऐसी थी कि इन्द्रपाल के अतिरिक्त कोई दूसरा कह ही नहीं सकता था। आजाद प्राय: ही मानसिक संताप से कहते- ‘सोहन अब किसी का एतबार नहीं किया जा सकता। एतबार उसी का जो गिरफ्तार होने के बजाय अपने सिर में गोली मार ले।’ 1931 जनवरी के पहले या दूसरे सप्ताह में समाचार पत्रों में मोटे अक्षरों में छपा कि दूसरे लाहौर षडय़ंत्र के मामले का सरकारी गवाह इन्द्रपाल पलट गया। उसने अदालत में कह दिया कि पुलिस उसे परेशान करके झूठे बयान दिला रही है। उसने अदालत में वे कागज भी पेश कर दिए जो पुलिस ने उसे अदालत में बयान देने के लिए लिख कर दिए थे। सब लोग प्रसन्नता से उछल पड़े। भैया ने कहा- ‘ये साला सध्वा (साधु) जरूर कोई ऐसी हरकत करेगा जो किसी ने न की हो।’

-डा. ओपी शर्मा -(शेष भाग अगले अंक में)

चेहरों की किताब में जिंदगी ढूंढतीं अनीता शर्मा

‘चेहरों की किताब’ लिए डा. अनीता शर्मा का काव्य संग्रह, जीवन के निष्कर्ष खोज रहा है, तो इसके भीतर कई मोड़-कई निचोड़ सामने आ जाते हैं। मन के बंद दरवाजों पर दस्तक देती कविताएं अपने भीतर के अध्यात्म का शंखनाद कर रही हैं। किताब के क्रम में छह पड़ाव तय करती कवयित्री अपनी विधा के साथ व्यंग्य, बाल गीत, आस्था, बचपन, शहर, गांव के बदलते मंजर और जीवन के अनंत भावों में प्रवेश करती है। कविताएं कहीं आंखें फाडक़र सामाजिक विषमताओं में डूबते सूरज का पीछा कर रही हैं, तो कहीं अभिव्यक्त सांचों से फिसलते सरोकारों की टोह ले रही हैं, ‘मीडिया के माध्यम से/बुना जा रहा है मकडज़ाल/इस मायावी दुनिया में/फंसता जा रहा है/सारा संसार।’

कविताओं का अपना दर्शन, अपने उपदेश, अपने आदर्श, अपने संदर्भ और अपने तर्क हैं, जो बीच-बीच में पाठक को निर्देशित करते हैं। अपने सकारात्मक विश्वास के साथ कुछ कविताएं आगे बढक़र पाठक का हाथ थाम लेती हैं, ‘खुलकर सामने आओ/•ामाना साथ चलता है/जो किरणें, फूटीं सूर्य की/उजाले मांग कर प्रभात ओढ़ो।’ कवयित्री अपने होने के एहसास में ईश्वरीय शक्ति से शुरुआत करती हुई जीवन और जिंदगी तक पहुंचने की हरसंभव कोशिश कर रही हैं। लेखिका का आत्मज्ञान, आंतरिक रुझान जैसे अरदास कर रहा है और हर पल पाठक को भीतर तक झांकने की दावत दे रहा है। अपनी बुनावट, सजावट, शैली और अभिव्यक्ति के कारण आओ मुक्त हो जाएं, नवयुग की शुरुआत, युद्ध जारी रहे, गुब्बारे वाला, प्रेत, विश्वास, हत्या/आत्महत्या, स्वआश्रम, जमीन हंसती है, नदी और पेड़, मंथन और तलाश जैसी कविताएं ध्यान आकृष्ट करती हैं। कवयित्री की अपनी युग दृष्टि है, ‘आओ किताब पढ़ें/आईने के आगे बैठकर/अपने चेहरे से/अपने ही जीवन की किताब पढ़ें, तुम्हारे भोले चेहरे के पीछे छिपे/चालाक मन को पढ़ें/क्रूर चेहरे के पीछे छिपे/भोले मन को पढ़ें।’

डा. अनीता शर्मा अपनी कविताओं को केवल शाब्दिक पोशाक नहीं पहनातीं, फिर भी कई कविताएं अलंकृत होकर मंचीय संबोधन, उद्बोधन और सामाजिकता के अपने मायने गढ़ लेती हैं, ‘आओ युद्ध करें शोषण से/पर्यावरण, कुपोषण से/अनैतिकता, निठल्लेपन्न के विरुद्ध/निरंतर युद्ध जारी रहे।’ अपनी शैली का गठन व संगठन खड़ा करती कवयित्री को श्रमिक बच्चों या कूड़ा बीनने वालों की चिंता सता रही है, तो भविष्यवक्ताओं की पंक्ति बुला रही है, ‘हम चिकनी मिट्टी के/जमे हुए तोंदे/ऊपर से गीले/अंदर से रुक्ष/निगल चुके हैं/सारा शहर।’ काव्य संग्रह में कुछ कविताएं झूम रहीं, अपनी लय और विचारों की अंजुलि में प्यास बुझा रही हैं, ‘किसने जाना है कि/कडक़ती सर्दी से/सख्त हो जाता है/सीना धरती का/और भीषण गर्मी से/पिघलता है/व्यक्तित्व धरती का।’ प्रकृति के प्रति संजीदगी से इजहार करता डा. अनीता शर्मा का संग्रह चिडिय़ा के जीवन चक्र से मार्मिक क्षण चुरा लेता है, तो सृष्टि की ऋतुओं को छूने की कोशिश करता है, ‘नए वर्ष आए गए/कुछ पता ही नहीं चला/झड़े फूल पके फल/झड़े फल/फिर न लगे सके।’ कविताएं अपने दृष्टिकोण के साथ जीवन के प्रति मैत्री भाव रखती हैं।सांसारिक विरक्तियों के बावजूद सुखद-सकारात्मक पहलुओं को निचोड़ रहीं, वास्तव में जीवन की सूत्रधार ही तो हैं, ‘हाथों से छूटती घर की रेत को/आज भी सहेज लेना चाहती है मां/भरे घर को रेत बनाने वालों को/अब समझ और समझा नहीं पाती है मां।’

-निर्मल असो

पुस्तक समीक्षा : बघाटी बोली को संरक्षित करता काव्य संकलन

‘बाडिय़ारिया धारा ते’ पहाड़ी काव्य संग्रह यादव किशोर गौतम का चौथा बघाटी-बाघली बोली का काव्य संग्रह है। कामना भवन से प्रकाशित इस पुस्तक की कीमत 325 रुपए है। संग्रह में बघाटी बोली का मूल रूप सामने आता है जिसमें बाघल और सोलन क्षेत्र का जनजीवन, ग्रामीण पारिवारिक और सांस्कृतिक परिवेश स्वछंद और छंदोबद्ध शैली में सरल रूप से व्यक्त हुआ है। बाघली बोली बघाटी बोली से कई गुणा अधिक क्षेत्र में बोली जाती है, अत: कवि की यह रचना बाघली के मूल रूप का दस्तावेज कहा जा सकता है। बघाटी को वैसे भी लुप्त कहा जा रहा है, किंतु इस संग्रह से बाघली-बघाटी के जीवंत होने का प्रमाण मिलता है। यादव किशोर संस्कृति एवं अध्यात्म में रुचि रखते हैं, अत: सुप्रसिद्ध देवधार बाड़ीधार के देवताओं को नमन करते हुए कवि जीवन के अनेक महत्त्वपूर्ण पहलुओं पर विचार रखते हैं। समाजोरिया गल्ला, रलिया मिल्लिया गल्ला, संस्कृतियारिया गल्ला, बजुर्गी गल्ला और राजनीतियारिया गल्ला में विभाजित काव्य संग्रह कवि के राष्ट्रीय एवं प्रादशिक समस्याओं के प्रति व्यंग्यात्मक शैली में दृष्टिकोण को भली-भांति दर्शाता है। यादव किशोर अच्छे गायक व संगीतकार भी हैं। अत: कविताओं में मधुरता व आकर्षण है। यह काव्य संग्रह पठनीय व संग्रहणीय है। कवि को हार्दिक शुभकामनाएं।

-अमरदेव आंगिरस


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