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हिरण्यकश्यप नाम का एक दैत्य हुआ था। यह दैत्य अपने राज्य में किसी को प्रभु की भक्ति नहीं करने देता था। इस दैत्य को ब्रह्माजी का वरदान मिला हुआ था। इससे वह किसी से न मर सके। उसने अपने राज्य में होम, हवन एवं यज्ञ आदि भी बंद करा दिए तथा ऋषि मुनियों और ब्राह्मणों

नश्चर शरीर में रंग एक विशिष्ट तत्त्व है और इसका ठीक रहना आवश्यक है। यदि अंगों के स्वाभाविक रंग घटें, बढ़ें तो रोग का ही प्रतीक समझना चाहिए। सूर्य चिकित्सा शास्त्री इसी रंग की कमी-वेशी को लक्ष्य करके पीडि़त स्थान पर उसी के अनुसार रंग पहुंचा कर चिकित्सा करते हैं। कोई भी परिवर्तन उस समय

श्रीश्री रविशंकर कभी-कभी तनाव और नकारात्मकता से हम नहीं बच पाते हैं। हम कभी-कभी सब प्रकार की भावनाओं से गुजरते हैं। कभी निर्बल और दिशाहीन महसूस करते हैं। ऐसा होना किसी को पसंद नहीं, लेकिन ऐसा होता है तो ऐसी स्थिति को किस तरह संभालें! अन्य चीजों के बारे में हम बहुत सुनते हैं, लेकिन

अकेला मनुष्य थोड़ी देर बाद रुक जाता है, परंतु सामूहिक और संगठित सहयोग से ऐसी अनेक चेतनाओं और सुविधाओं की उत्पत्ति होती है, जिनके द्वारा बड़े-बड़े कठिन कार्य सहज हो जाते हैं… पृथक-पृथक रूप से छोटे-छोटे प्रयत्न करने में शक्ति का अपव्यय अधिक और कार्य न्यून होता है। अकेला मनुष्य थोड़ी देर बाद रुक जाता

जब श्रीराम के वन में जाने का समय आया तो राजा दशरथ ने सुमंत्र को यह विशेष दायित्व सौंपा कि सुमंत्र श्रीराम के साथ वन में जाएं और इस बात का ख्याल रखें कि श्रीराम, लक्ष्मण और सीता को कोई तकलीफ न हो। राजा दशरथ ने यह भी अनुरोध किया कि सुमंत्र श्रीराम को मना

ओशो संवेदनशील होते हुए भी विरक्त कैसे हुआ जाए? ये दोनों बातें विरोधी नहीं हैं, विपरीत नहीं हैं। यदि तुम अधिक संवेदनशील हो तो तुम विरक्त होओगे या यदि तुम विरक्त हो तो अधिकाधिक संवेदनशील होते जाओगे। परंतु संवेदनशीलता आसक्ति नहीं है, संवेदनशीलता सजगता है। केवल एक सजग व्यक्ति ही संवेदनशील हो सकता है। यदि

दुख के समय बालकों के सान्निध्य से दुख कटता है, सुख में उन पर हल्का उत्तरदायित्व छोड़ने से उनका स्वाभिमान, आत्मीयता की भावना और उदारता की वृत्ति का परिष्कार होता है। इन दोनों अवसरों पर अपनी मानसिक स्थिति को बच्चों के सामने खुली हुई रखनी चाहिए… बच्चों में पूर्वजन्म की प्रतिभा छिपी होती है। किन्हीं-किन्हीं

स्वामी रामस्वरूप अतः वेद एवं ऋषियों के शास्त्र, उपनिषद, गीता आदि ग्रंथ जो आज के वेदज्ञ, वेद एवं अष्टांग योग विद्या को जानकर कठोर अभ्यास द्वारा असंप्रज्ञात समाधि प्राप्त ब्रह्मऋषि व्यास, गुरु वशिष्ठ के समान ब्रह्म पद को पा जाते हैं, उनके वचन भी सत्य हैं और उन्हीं से वेद एवं छह शास्त्र आदि ग्रंथ

ऊंचा उठना मनुष्य का स्वाभाविक धर्म भी है, पर यदि किसी से यह पूछा जाए कि क्या उसने इस गंभीर प्रश्न पर गहराई से विचार किया है? क्या कभी उसने यह भी सोचा है कि आकांक्षा की पूर्ति के लिए उसने क्या योजना बनाई है? तो अधिकांश व्यक्ति इस गूढ़ प्रश्न की गहराई का भेदन