संपादकीय

हिमाचल के राष्ट्रीय दृष्टि में आने के संयोग इस बार चुनाव के लिए अगर पुख्ता होते हैं, तो इसके आलोक में प्रदेश को सही परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत किया जा सकता है। विडंबना यह है कि दिल्ली के गलियारों में आज भी पहाड़ की छवि को ‘मुंडू’ बनाकर ही समझा जाता है, जबकि हिमाचल के उल्लेखनीय

खतौली-मुजफ्फरनगर रेल हादसे के खलनायक और मुजरिमों के चेहरे लगभग सार्वजनिक हो चुके हैं। रेलवे बोर्ड के सदस्य, महानिदेशक और दिल्ली डीआरएम को छुट्टी पर भेजा गया है, जबकि चार इंजीनियर निलंबित कर दिए गए हैं। समझ नहीं आता कि यह कार्रवाई ही पर्याप्त है या दंडात्मक कार्रवाई भी तय की जाएगी! लेकिन मौजू सवाल

गोरखपुर के बाबा राघव दास (बीआरडी) मेडिकल कालेज एवं अस्पताल में दिमागी बुखार से जिस तरह मासूमों की मौत हुई है, वह मुद्दा अभी शांत नहीं हुआ है। मौत का आंकड़ा 70 पार कर चुका है। इसी साल 2017 में 200 से ज्यादा मौतें हो चुकी हैं, हालांकि 2016 में इसी अवधि के दौरान यही

राजनीतिक टिकटघर के बाहर हिमाचली चरित्र की नुमाइश का हम अंदाजा लगा सकते हैं। प्रमुख सियासत के बगल में पानी भरती परोक्ष महत्त्वाकांक्षा का दस्तूर, हिमाचल के सरकारी आचरण का पता बताता है। एक बार फिर सरकारी क्षेत्र के सूरमा, राजनीतिक दरबार में हाजिरी लगा रहे हैं और यही व्यथा दायित्व की आंखों से टपकती

विजन विचार नहीं, विचारधारा बिलकुल नहीं, लेकिन जनता के विश्वास का विमर्श और समाधान के वृत्तांत की वसंत सरीखा हो, तो हिमाचल भाजपा के विकल्प को आसानी से समझा जा सकता है। चुनावी घोषणा पत्र से विजन दस्तावेज की ओर सरकती भाजपा के आदर्शों में सर्वप्रथम नीति, नीयत और नजदीकी का स्पर्श देखना होगा, क्योंकि

‘साझा विरासत बचाओ सम्मेलन’ के बैनर तले एक बार फिर विपक्षी जमावड़ा और एकता की कोशिशें…। ले-दे कर वही पुराने, पराजित और लुटे-पिटे, अंतर्विरोधी दलों की बैठक…। न तो कोई साझा एजेंडा और न ही कोई साझा न्यूनतम कार्यक्रम और सबसे बढ़कर कोई एक साझा चेहरा भी नहीं, जिसे चुनावी मैदान का नायक तय कर

आतंकी कितना भी कहर बरपा लें, अलगाववादी देश को गालियां दे लें और पाकिस्तान के इशारों पर साजिशों के दलाल बनते रहें, एक तबका कट्टरपंथी और भारत विरोधी है, जो दुष्प्रचार करता रहा है कि कश्मीरी हिंदोस्तानियों से बात ही करना नहीं चाहते, समाधान और गले लगना तो दूर की कौड़ी है। ऐसे माहौल में

शिंदे शिविर में हिमाचल कांग्रेस को सबसे पहले जो सीखना है वह आंतरिक अनुशासन व पार्टी की संगत में रहने की संयमित व्यवस्था होनी चाहिए। बेशक प्रदेश प्रभारी सुशील कुमार शिंदे के आगाज में कड़े संदेशों की भरमार तो दिखाई देती है, लेकिन गुटबाजी के छोर पर प्रहार जैसा कोई उदाहरण नहीं मिलता। जीत की

प्रधानमंत्री मोदी ने इस बार लालकिले की प्राचीर से जो भाषण  दिया है, वह ऐतिहासिक नहीं, बल्कि चुनावी ज्यादा लगा। ऐसा महसूस हुआ कि उनकी निगाह 2019 पर टिकी रही, बेशक उन्होंने संकल्प का आह्वान 2022 तक के लिए किया। जिस तरह शौचालय के जरिए प्रधानमंत्री मोदी का सामाजिक संकल्प और सरोकार सामने आए, बलूचिस्तान