अपना उद्देश्य सामने रखो

By: Jan 14th, 2017 12:15 am

मनुष्य बुराइयों से बचता रहे इसके लिए उसे हर घड़ी अपना लक्ष्य अपना उद्देश्य सामने रखना चाहिए। यात्रा में गड़बड़ी तब फैलती है, जब अपना मूल लक्ष्य भुला दिया जाता है। मनुष्य जीवन में जो अधिकार एवं विशेषताएं प्राप्त हैं वह किसी विशेष प्रयोजन के लिए हैं। इतनी सहूलियत अन्य प्राणियों को नहीं मिली। मनुष्य ही ऐसा प्राणी है, जिसको सुंदर शरीर, विचार विवेक, भाषा आदि के बहुमूल्य उपहार मिले हैं, इनकी सार्थकता तब है जब मनुष्य इनका सही उपयोग करे। मनुष्य देह जैसे अलभ्य अवसर को प्राप्त करके भी यदि वह अपने पारमार्थिक लक्ष्य को पूरा नहीं करता तो उसे अन्य प्राणियों की ही कोटि का समझा जाना चाहिए। जन्म जन्मांतरों की थकान मिटाने के लिए यह बहुमूल्य अवसर है, जब मनुष्य अपने प्राप्त ज्ञान और साधनों का उपयोग कर ईश्वर प्राप्ति की चरम शांतिदायिनी स्थिति की प्राप्ति कर सकता है। जिन्हें साधन निष्ठा की इतनी शक्ति नहीं मिली या जो कठिन तपश्चर्याओं के मार्ग पर नहीं जाना चाहते वे इस जीवन से उत्तम संस्कार, सद्भावनाएं और श्रद्धा भक्ति तो पैदा कर ही सकते हैं, ताकि अगले जीवन में परिस्थितियों की अनुकूलता और भी बढ़ जाए और धीरे-धीरे अपने जीवन लक्ष्य की ओर बढ़ने का कार्यक्रम चालू रख सके। पर इस अभागे इनसान को क्या कहें तो आत्मस्वरूप को भूलकर अपने वासना ‘शरीर’ को ही सजाने में आनंद ले रहा है। मनुष्य यह देखते हुए भी कि यह शरीर नाशवान है और अन्य जीवधारियों के समान इसे भी किसी न किसी दिन धूल में मिल जाना है फिर भी वह शारीरिक सुखों मृगतृष्णा में इस तरह पागल हो रहा है कि उसको अपने सही स्वरूप तक का ज्ञान नहीं है। शारीरिक सुखों के संपादन में ही वह जीवन का अधिकांश भाग नष्ट कर देता है। जब तक शक्ति और यौवन रहता है, तब तक उसकी यह समझदारी की आंखें खुलती तक नहीं, बाद में जब संस्कार की जड़ें गहरी जम जाती हैं और शरीर में शिथिलता आ जाती है तब फिर समझ आने से भी क्या बनता है? चतुरता तो तब है, जब अवसर रहते मनुष्य सद्गुणों का संचय करके इस योग्य बन जाए कि यह यात्रा संतोषपूर्वक पूरी करके लौटने में कोई बाधा शेष न रहे। हमारा सहज धर्म यह है कि हम इस जीवन में प्रकाश की अर्चना करें और उसी की ओर अग्रसर हों। इसमें कुछ देर लगे पर जब भी उसे एक नया जीवन मिले हम प्रकाश की ओर ही गतिमान बने रहें। मनुष्य का दृढ़ निश्चय उसके साथ बना रहना चाहिए। हमारा विवेक कुतुबनुमा की सूई की भांति ठीक जीवन लक्ष्य की ओर लगा रहना चाहिए, ताकि हम अपनी इस यात्रा में भूलें भटकें नहीं। इस जीवन में काम, क्रोध, लोभ तथा मोह आदि के मल विक्षेप आत्म पवित्रता को मलिन करते रहते हैं। इस मलीनता को ब्रह्मचर्य, श्रद्धा, श्रम और प्रेम के दिव्य गुणों द्वारा दूर करने के लिए सदैव प्रयत्नशील रहना चाहिए। इसमें संदेह नहीं, यह मार्ग कठिनाइयों और जटिलताओं से ग्रस्त हैं। यदि सच्चाई, श्रद्धा, भक्ति एवं आत्मसमर्पण के द्वारा ईश्वर के सतोगुणी प्रकाश की ओर बढ़ते रहें तो यह कठिनाइयां मनुष्य का कुछ बिगाड़ नहीं सकतीं।


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