एकता का अनुभव करने का प्रयास

By: Jan 14th, 2017 12:15 am

ध्यानावस्थित होकर भौतिक जीवन-प्रवाह पर चित्त जमाओ। अनुभव करो कि समस्त ब्रह्मांडों में एक ही चेतना शक्ति लहलहा रही है, उसी के विकार भेद से पंचतत्त्व निर्मित हुए हैं। इंद्रियों द्वारा जो विभिन्न प्रकार के सुख  दुख अनुभव होते हैं, वह तत्त्वों की विभिन्न रासायनिक प्रक्रियाएं हैं, जो इंद्रियों के तारों से टकराकर विभिन्न परिस्थितियों के अनुसार विभिन्न प्रकार की झंकारें उत्पन्न करती हैं। समस्त लोकों का मूल शक्ति तत्त्व एक ही है और उससे मैं भी उसी प्रकार गति प्राप्त कर रहा हूं जैसे दूसरे। यह एक साझे का कंबल है, जिसमें लिपटे हुए हम  सब बालक बैठे हैं। इस सच्चाई को अच्छी तरह कल्पना में लाओ, बुद्धि को ठीक-ठीक समझने और हृदय को स्पष्टतः अनुभव करने दो। स्थूल भौतिक पदार्थों की एकता का अनुभव करने के बाद सूक्ष्म मानसिक तत्त्व की एकता की कल्पना करो। वह भी भौतिक द्रव्य की भांति एक ही तत्त्व है। आपका मन महामन की एक बूंद है। वह मूलतः सार्वभौम ज्ञान और विचारधारा के कुछ परमाणु हैं और उन्हें पुस्तकों द्वारा गुरु-मुख द्वारा या ईथर-आकाश में बहने वाली धाराओं से प्राप्त किया गया होता है।  यह भी एक अखंड गतिमान शक्ति है और उसका उपयोग वैसे ही कर रहे हो, जैसे नदी में पड़ा हुआ कछुआ अविचल गति से बहते हुए जल-परमाणुओं में से कुछ को पीता है और फिर उसी में मूत्ररूप में त्याग देता है। इस सत्य को भी बराबर हृदयंगम करो और अच्छी तरह मानस-पटल पर अंकित कर लो। भावना दृढ़ होते ही संसार आपका और आप संसार के हो जाओगे। कोई वस्तु विरानी मालूम पड़ेगी। यह सब मेरा है या मेरा कुछ भी नहीं, इन दोनों वाक्यों में तब आपको कुछ भी अंतर न मालूम पड़ेगा। वस्त्रों से ऊपर आत्मा को देखो- यह नित्य, अखंड, अक्षर, अमर, अपरिवर्तनशील और एकरस है। वह जड़ अविकसित, नीच प्राणियों, तारागणों, ग्रहों, समस्त ब्रह्मांडों को प्रसन्नता और आत्मीयता की दृष्टि से देखता है। विराना, घृणा करने योग्य, सताने के लायक या छाती से चिपटा रखने के लायक कोई पदार्थ वह नहीं देखता। अपने घर और पक्षियों के घोंसले के महत्त्व में उसे तनिक भी अंतर नहीं दिखता। ऐसी उच्च कक्षा का प्राप्त हो जाना केवल आध्यात्मिक उन्नति और ईश्वर के लिए ही नहीं, वरन् सांसारिक लाभ के लिए भी आवश्यक है। इस ऊंचे टीले पर खड़ा होकर आदमी संसार का सच्चा स्वरूप देख सकता है और यह जान सकता हे कि किस स्थिति में किससे, क्या बर्ताव करना चाहिए? उसे सद्गुणों का पुंज, उचित क्रिया, कुशलता और सदाचार सीखने नहीं पड़ते, वरन् केवल यही चीजें उसके पास शेष रह जाती हैं और वे बुरे स्वभाव न जाने कहां विलीन हो जाते हैं, जो जीवन को दुखमय बनाए रहते हैं? यहां पहुंचा हुआ स्थितप्रज्ञ देखता है कि सब अविनाशी आत्माएं यद्यपि इस समय स्वतंत्र, तेजस्वरूप और गतिवान प्रतीत होता है, तथापि उनकी मूल सत्ता एक ही है, विभिन्न घटों में एक ही आकाश हुआ है और अनेक जलपात्रों में एक ही सूर्य का आकाश भरा हुआ है और अनेक जलपात्रों में एक ही सूर्य का प्रतिबिंब झलक रहा है। यद्यपि बालकों के शरीर पृथक होते हैं, परंतु उसका सारा भाग माता-पिता के अंश का ही बना है। आत्मा सत्य है, पर उसकी सत्यता परमेश्वर है। विशुद्ध और मुक्त आत्मा परमात्मा है। वहीं वह स्थित है, जिस पर खड़े होकर जीव कहता है- ‘सो हमस्मि’ अर्थात वह परमात्मा मैं हूं और उसे अनुभूति हो जाती है कि संसार के संपूर्ण स्वरूपों के नीचे एक जीवन, एक बल, एक सत्ता, एक असलियत छिपी हुई है। दीक्षितों को इस चेतना में जग जाने के लिए हम बार-बार अनुरोध करेंगे, क्योंकि ‘मैं क्या हूं?’ इस सत्त्यता का ज्ञान प्राप्त करना सच्चा ज्ञान है, जिसने सच्चा ज्ञान प्राप्त कर लिया है, उसका जीवन प्रेम, दया, सहानुभूति, सत्य और उदारता से परिपूर्ण होना चाहिए। कोरी कल्पना या पोथी-पाठ से क्या लाभ हो सकता है? सच्ची सहानुभूति ही सच्चा ज्ञान है और सच्चे ज्ञान की कसौटी उसका जीवन व्यवहार में उतारना ही हो सकता है।

 


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