कागजों तले दबा स्वाभिमान

By: Jan 7th, 2017 12:01 am

( रमेश सर्राफ धमोरा (ई-मेल के मार्फत) )

भारत देश को आजाद हुए 68 साल से ज्यादा बीत चुके हैं। इस दौरान भारत ने उत्तरोत्तर प्रगति की है, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता, परंतु सिर पर मैला उठाने की परंपरा आज भी जारी है। आखिर यह परंपरा कब समाप्त होगी, यह बात समझ से परे है। कहने को केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा देश भर में सिर पर मैला ढोने की प्रथा समाप्त करने के लिए ढेर सारे जतन किए गए हों, पर कागजी बातों और वास्तविकता में जमीन आसमान का अंतर दिखाई पड़ रहा है। बेशक केंद्र और प्रदेश सरकारों द्वारा शुष्क शौचालयों के निर्माण को प्रोत्साहन दिया जाता रहा है, लेकिन यह प्रोत्साहन किन अधिकारियों या गैर सरकारी संगठनों की जेब में जाता है, यह किसी से छिपा नहीं है। करोड़ों रुपए खर्च करके सरकारों द्वारा लोगों को शुष्क शौचालयों के प्रति जागरूक किया जाता रहा है, पर सालों साल बीतने के बाद भी नतीजा वह नहीं आया, जिसकी अपेक्षा थी। सरकार खुद मान रही है कि आज भी देश में मैला उठाने की प्रथा बदस्तूर जारी है। यह स्वीकारोक्ति निश्चित रूप से किसी कलंक से कम नहीं है। सरकारों द्वारा अब तक व्यय की गई धनराशि में तो समूचे देश में शुष्क शौचालय स्थापित हो जाने चाहिए थे, परंतु ऐसा हुआ नहीं। यही कारण है कि देश-प्रदेश के अनेक शहरों में खुले में शौच जाने से रोकने को प्रेरित करते होर्डिंग्स और समाचार पत्रों में विज्ञापनों की भरमार दिखाई देती है। वैसे यह कटु सत्य है कि सिर पर मैला ढोने से मुक्ति न तो सरकार के हाथों संभव है और न ही सवयंसेवी संस्थाओं की बदौलत । इसके लिए पहल स्वयं सफाई कर्मियों को ही करनी होगी और इसका प्रारंभिक कदम होगा आत्म सम्मान को पहचानना। शिक्षा से ही इस दिशा में बदलाव संभव हो पाएगा।

 


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