गणतंत्र में ‘काले धब्बे’ क्यों ?

By: Jan 28th, 2017 12:02 am

देश का 68वां गणतंत्र भी हमने जी लिया। इस दिन कुछ भी याद नहीं रहता। कोई राग-द्वेष, विषाद नहीं। चारों ओर जुनून, बलिदानी, हौसलों और शुभकामनाओं का ही माहौल…! परिभाषाओं में हम सभी भारतीय गणतंत्र के हिस्सा हैं। यह गण और तंत्र हमने ही बुना है, उसे स्थायित्व दिया है और बार-बार चुनावों, सरकारों, संविधान, संसद के जरिए उसे सार्थक भी किया है। इस बार भी जब प्रधानमंत्री मोदी ‘अमर जवान ज्योति’ पर शहीद जांबाजों के स्मारक पर पुष्पचक्र अर्पित कर, तीनों सेना प्रमुखों के साथ, सलामी दे रहे थे या राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के सामने शहीद हवलदार हंगपन दादा की विधवा पत्नी गर्दन झुकाए खड़ी थीं और दादा की बहादुरी का उल्लेख सुनाया जा रहा था कि किस तरह उन्होंने अकेले ही तीन आतंकियों को मार गिराया, तो बरबस ही आंखों में भावनाएं उमड़ पड़ीं। दादा की शहादत पर ‘अशोक चक्र’ सम्मान दिया गया है, जो शांतिकाल के दौरान का सर्वोच्च सम्मान है। गणतंत्र दिवस का आयोजन एक बार फिर याद दिलाता है कि हम कितने ताकतवर राष्ट्र हैं, कितने विकसित हैं और कितने स्वावलंबी भी हैं। राजपथ पर ब्रह्मोस, आकाश, अग्नि-दुश्मनों की रूह को चीरने और उन्हें राख करने की ताकतवर मिसाइलें देखीं। भारत की बोफोर्स-धनुष की धमक भी देखी। 360 डिग्री पर घूमने और देखते-देखते ही जगह बदलने वाली तोप देख कर आंखें चौड़ी हो गईं। स्वदेशी लड़ाकू विमान ‘तेजस’ का तेज भी दिखाया गया। वतन की फौजी ताकत के साथ-साथ ‘मेक इन इंडिया’ की ताकत भी देखी। रंग-बिरंगे, रोमांचक करतब करने वाले जांबाज, ताल ठोंकते फौजी कदम, गर्व से देश के सुप्रीम कमांडर (राष्ट्रपति) को सलामी देते हुए राष्ट्र का अभिनंदन करते सैनिकों, जवानों और सिपाहियों को भी देखा। हमारे गणतंत्र की यह ताकत, अबू धाबी के मेहमान शहजादे और उनके साथियों ने भी देखी और कैमरे में कैद की। हमारे गणतंत्र आयोजन का मकसद किसी को चौंकाने या दहशत में डालने का नहीं है, न ही हम किसी को धमकी दे रहे हैं, बल्कि यह आयोजन अपने ही देश के नागरिकों के सामने एक संक्षिप्त तस्वीर पेश करने के लिए है, ताकि वे भी चौतरफा विकास के साक्ष्य बन सकें। गणतंत्र का आयोजन हमारे अपने आत्मविश्वास और राष्ट्रवाद को पुख्ता करता है, लेकिन इसी गणतंत्र में कुछ ‘काले धब्बे’ भी उभर कर सामने आते हैं, तो कोफ्त होती है, खुद से सवाल करने पड़ते हैं, आशंकाएं भी आकार लेने लगती हैं। गणतंत्र का आधार है-संविधान। और संविधान की बुनियाद है-चुनाव। फिलहाल पांच राज्यों में चुनाव हो रहे हैं। चुनावों के जरिए भारत का गणतंत्र अपनी सरकारें चुनता है, लेकिन चुनाव कराने वाली स्वायत्त संस्था चुनाव आयोग ‘दंतविहीन’ है। चुनावों पर हजारों करोड़ रुपए खर्च किए जाते हैं, काला धन भी सामने आता है, शराब की बोतलें और नोटों के ट्रक पकड़े जाते हैं। चुनाव आयोग क्या कर पाता है? करीब 70 फीसदी राजनीतिक दलों के चंदे का स्रोत बेनामी, अघोषित है। चुनावों के दौरान ही विनय कटियार सरीखे नेता बेहूदगी से बयान देते हैं कि प्रियंका गांधी से सुंदर तो कई प्रचारक महिलाएं, कलाकार, हीरोइनें भाजपा में हैं। यानी वोटरों को लुभाने का एक जरिया औरत की सुंदरता और देह भी है। वरिष्ठ सांसद शरद यादव बेटी की तुलना वोट से करते हैं। यदि इस मुद्दे को छोड़ भी दिया जाए, तो मुलायम सिंह, मायावती और कई अन्य नेता ‘मुसलमान, मुसलमान…’ के नाम की रट लगाए हैं। मायावती ने तो सरेआम मुसलमानों से वोट मांगे हैं। मुलायम ने अपने मुख्यमंत्री-बेटे अखिलेश को ‘मुस्लिम-विरोधी’ करार दिया था। कल्पना करें, यदि संघ-भाजपा परिवार के नेता भी दिन भर ‘हिंदू, हिंदू…’ चिल्लाने लगें, तो समाज सांप्रदायिक आधार पर बंटता दिखाई देगा। ऐसे में ‘गणतंत्र’ की भावना का क्या होगा? गणतंत्र में न्यायपालिका का भी विशेष स्थान है। उसके फैसलों का उल्लंघन हो रहा है। न्यायपालिका और कार्यपालिका में भी द्वंद्व देखने को मिलता रहा है। सबसे अहम संसद की भूमिका है, जो गणतंत्र की गरिमा का प्रथम प्रतीक है।  सांसद गणतंत्र के जरिए चुन कर संसद में आते हैं और फिर एक सरकार के साथ गणतंत्र के लिए ही काम करते हैं। क्या लंबे अंतराल से संसद में ऐसे होते देखा गया है? यदि इसी तरह गणतंत्र ‘गौण’ होता जाएगा, तो गणतंत्र दिवस के मौके पर बाहरी प्रदर्शन से ही गणतंत्र आश्वस्त या सशक्त नहीं होगा। हमें तमाम संवैधानिक संस्थाओं की स्वायत्तता बरकरार रखनी होगी, क्योंकि गणतंत्र के बुनियादी मूल्य और आदर्श  उन्हीं में अंतर्निहित हैं। यदि आज भी 30 करोड़ से ज्यादा आबादी गरीबी की रेखा तले जीने को अभिशप्त है, छह करोड़ बेरोजगार हैं, असंगठित क्षेत्र के करीब 15 करोड़ लोग भी बेकार हैं और भ्रष्टाचार के मामले में हमारा देश 76 से 79 वें स्थान पर खिसक गया है, तो सोचने को मजबूर होना पड़ता है कि क्या हम वाकई एक सार्थक गणतंत्र हैं!


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