पंजाब का पेचीदा परिदृश्य

By: Jan 12th, 2017 12:05 am

पीके खुरानापीके खुराना

( पीके खुराना लेखक, वरिष्ठ जनसंपर्क सलाहकार और विचारक हैं )

सवाल यह है कि पंजाब में किसकी जीत की संभावना है। अभी तक के सर्वेक्षणों में हालांकि आम आदमी पार्टी काफी मजबूत दिख रही है और कांग्रेस के आंतरिक सर्वेक्षणों में भी वह बहुत मजबूत नजर नहीं आ रही है तथा शिरोमणि अकाली दल से लोग ऊब चुके हैं, तो भी स्थिति ऐसी नहीं लगती कि आम आदमी पार्टी बहुमत पा सके। सुखबीर बादल आखिरी मौके पर हर चाल के लिए तैयार रहने वाले व्यक्ति हैं और मनप्रीत बादल को हरा कर उन्होंने यह जता दिया था कि वह उपमुख्यमंत्री चाहे अपने पिता के कारण बने थे, लेकिन राज्य की बागडोर असल में उनके ही हाथ में है…

चार फरवरी को पंजाब के मतदाता इस सीमावर्ती राज्य के राजनीतिज्ञों का भाग्य वोटिंग मशीनों में बंद कर देंगे। इस बार का विधानसभा चुनाव कई मायनों में महत्त्वपूर्ण है। सुखबीर बादल की अध्यक्षता वाला शिरोमणि अकाली दल लगातार तीसरी बार सत्ता में आने के लिए संघर्ष करेगा, कांग्रेस अपने आप को बचाने का संघर्ष कर रही है और आम आदमी पार्टी पहली बार विधानसभा चुनावों के लिए खम ठोंक रही है। सुच्चा सिंह छोटेपुर की अपना पंजाब पार्टी भी मैदान में है, लेकिन वह कितनी प्रासंगिक होगी, यह समय ही बताएगा। भाजपा छोड़ कांग्रेस का दामन थाम चुके नवजोत सिंह सिद्धू भी क्या करामात दिखाते हैं, यह देखना सचमुच रुचिकर होगा। पंजाब में वामपंथी दलों और बसपा का प्रभाव अब न के बराबर है और सिमरनजीत सिंह मान भी अप्रासंगिक ही हैं, लेकिन बादल का शिरोमणि अकाली दल, कांग्रेस और आम आदमी पार्टी इस चुनाव के मुख्य खिलाड़ी हैं। कैप्टन अमरिंदर सिंह पूरा जोर लगा रहे हैं, लेकिन कांग्रेस के रणनीतिकार प्रशांत किशोर के बावजूद कांग्रेस अपना अस्तित्व बचाने के संघर्ष में ही प्रतीत होती है। प्रशांत किशोर की टीम के प्रचार के  विश्लेषण से स्पष्ट है कि वह आम आदमी पार्टी से डरे हुए हैं। शिरोमणि अकाली दल दो बार सत्ता सुख भोग चुका है और अब पंजाब के मतदाता उन्हें बदलने के मूड में प्रतीत होते हैं। लेकिन आम आदमी पार्टी के मैदान में आने से पंजाब का परिदृश्य बदला हुआ है। पुराने साथियों के पार्टी छोड़ जाने के बावजूद आम आदमी पार्टी का समर्थन समाज के कई वर्गों में बरकरार है और आम आदमी पार्टी अकेले ही तीसरे मोर्चे की भूमिका निभा रही है। यह कोई छिपा रहस्य नहीं है कि अरविंद केजरीवाल दिल्ली में उपराज्यपाल के अधीन होने से परेशान हैं।

सिर्फ तीन विधायकों के बावजूद अकेले उपराज्यपाल के माध्यम से ही नरेंद्र मोदी दिल्ली की सत्ता पर काबिज हैं, इसलिए केजरीवाल किसी ऐसे राज्य की कमान संभालने के लिए लालायित हैं, जहां उन्हें कदरन ज्यादा स्वतंत्रता हो। हालांकि हमारे संविधान के प्रावधानों के मुताबिक किसी भी राज्य में केंद्र की सहायता के बिना बहुत कुछ कर पाना लगभग असंभव है, तो भी दिल्ली में तो मुख्यमंत्री के हाथ में कुछ है ही नहीं। इस प्रकार केजरीवाल का यह दावा और भी मजबूत हो जाएगा कि पार्टी भारत में कहीं भी उनके ही कारण जीतती है। सन् 2014 के लोकसभा चुनाव गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री और अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लहर में संपन्न हुए थे। तब भी शिरोमणि अकाली दल का विरोध इतना ज्यादा था कि आम आदमी पार्टी को यहां से चार सीटों पर जीत मिली और पटियाला की पक्की मानी जाने वाली सीट भी कांग्रेस हार गई। अरविंद केजरीवाल ने तब भ्रष्टाचार और नशीले पदार्थों के खिलाफ आवाज उठाई थी। तब उन्हें समाज के लगभग सभी वर्गों का समर्थन मिला था, लेकिन बदली परिस्थितियों में उसका वह आधार पहले की अपेक्षा काफी सिकुड़ गया है। सन् 2014 के लोकसभा चुनावों में अकाली-भाजपा गठबंधन को 35 प्रतिशत, कांग्रेस को 33 प्रतिशत और आम आदमी पार्टी को 24.4 प्रतिशत मत मिले थे। विधानसभा सीटों के हिसाब से मतों का विश्लेषण करें, तो तब अकाली-भाजपा गठबंधन को तब 45 सीटों पर बढ़त मिली थी और 54 सीटों पर वह दूसरे स्थान पर था, कांग्रेस को 37 सीटों पर बढ़त मिली थी और वह भी 54 सीटों पर दूसरे स्थान पर रही थी, जबकि ‘आप’ को 33 सीटों पर बढ़त मिली थी और 9 सीटों पर वह दूसरे स्थान पर रही थी। राज्य में तीसरे स्थान पर रहने के बावजूद वह इसलिए चर्चा में आई, क्योंकि लोकसभा चुनावों में वह केवल पंजाब में ही जीत पाई थी और यहां उसने चार सीटें अपनी झोली में डाल ली थीं। सुखबीर बादल विकास के मुद्दे पर चुनाव लड़ रहे हैं। राज्य में चौड़ी सड़कें बनाकर, स्वर्ण मंदिर तक की सड़क को नया रूप देकर, अमृतसर में वैसा ही अभियान चलाने का वादा करके, वाल्मीकि ऋषि के आश्रम के कारण प्रसिद्ध राम तीरथ, दलितों के गुरु संत रविदास के जुड़े कुणालगढ़ तथा अमृतसर के  दुर्ग्याणा मंदिर के पुनरुद्धार की योजना का खुलासा करके उन्होंने हर धर्म के लोगों को खुश करने की कोशिश की है।

कांग्रेस की समस्या यह है कि अमरिंदर सिंह पहले भी मुख्यमंत्री रह चुके हैं और तब उन्होंने ऐसा कोई तीर नहीं मारा था कि लोग उन्हें याद करते। अकाली दल के भ्रष्टाचार और एंटी-इन्कंबेंसी का माहौल न होता, तो कैप्टन अमरिंदर सिंह कितना ही टाप लेते, कांग्रेस का अभियान टांय-टांय फिस्स ही रहता। आम आदमी पार्टी राज्य में अपने ही दम पर चुनाव लड़ने की नीति पर चल रही है और पुराने साथियों ने यदि दल छोड़ा है, तो वामपंथी इमेज के गायक बंत सिंह झब्बर ने ‘आप’ में शामिल होकर कुछ सीटों पर इसकी जीत के आसार बढ़ा दिए हैं। मजेदार बात यह कि अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी पंजाब के विकास को लेकर कोई ठोस योजना नहीं बता रहे हैं तो भी समाज का एक बड़ा वर्ग उनके समर्थन में मजबूती से खड़ा है।दूसरी बड़ी बात यह है कि आम आदमी पार्टी के अधिकांश समर्थकों को इस बात से कोई लेना-देना नहीं है कि उनका उम्मीदवार कौन है या कौन होगा, वे बस झाड़ू वाली पार्टी को जिताना चाहते हैं। सवाल यह है कि पंजाब में किसकी जीत की संभावना है। अभी तक के सर्वेक्षणों में हालांकि आम आदमी पार्टी काफी मजबूत दिख रही है और कांग्रेस के आंतरिक सर्वेक्षणों में भी वह बहुत मजबूत नजर नहीं आ रही है तथा शिरोमणि अकाली दल से लोग ऊब चुके हैं, तो भी स्थिति ऐसी नहीं लगती कि आम आदमी पार्टी बहुमत पा सके। सुखबीर बादल आखिरी मौके पर हर चाल के लिए तैयार रहने वाले व्यक्ति हैं और मनप्रीत बादल को हरा कर उन्होंने यह जता दिया था कि वह उपमुख्यमंत्री चाहे अपने पिता के कारण बने थे, लेकिन पार्टी की बागडोर उनके हाथ में होने के कारण तथा प्रकाश सिंह बादल की बढ़ती उम्र के कारण राज्य की बागडोर असल में उनके ही हाथ में है और सत्ता में आने के बाद से उन्होंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। ऐसे में इस आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता कि पंजाब में खिचड़ी सरकार बने, अभी यह कहना मुश्किल है कि किस दल की सीटें कितनी होंगी तथा नई सरकार का मुखिया कौन होगा, पर यदि खिचड़ी सरकार बनी तो पंजाब में अच्छे दिनों की उम्मीद कुछ और मुश्किल हो जाएगी। देखना है कि पंजाब का ऊंट किस करवट बैठता है।

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