मुस्लिम आबादी बचाने को हिंदू शरणार्थी

By: Jan 7th, 2017 12:05 am

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

( लेखक, वरिष्ठ स्तंभकार हैं )

असली सवाल और गहरा है। आखिर जम्मू-कश्मीर सरकार इस बात पर क्यों बजिद है कि 1944 के बाद रियासत में किसी को रहने का अधिकार नहीं है? इसका उत्तर सरकार तो नहीं, लेकिन हुर्रियत कान्फ्रेंस से लेकर नेशनल कान्फ्रेंस तक दे रही है। उनका कहना है कि इससे प्रदेश का जनसांख्यिकी अनुपात बदल जाएगा। यानी जम्मू-कश्मीर राज्य, जो अभी मुस्लिम बहुल राज्य है, उसमें मुसलमानों की संख्या कम होने लगेगी। यदि कोई प्रदेश मुस्लिम बहुल है, तो उसको मुस्लिम बहुल बनाए रखना क्या संवैधानिक दायित्व के अंतर्गत आता है…

जम्मू-कश्मीर में फिर बवाल मच गया है। कश्मीर घाटी उग्र हो रही है। श्रीनगर में रह रहे गिलान वाले यूसुफ गिलानी अत्यंत गुस्से में हैं। जम्मू-कश्मीर लिब्रेशन फ्रंट के यासीन मलिक के क्रोध का भी पारावार नहीं है। दोनों मीरवायज, जामा मस्जिद वाले और खानगाह-ए-मौला वाले, मुट्ठियां भींच रहे हैं। उनका कहना है कि 1947 में पश्चिमी पंजाब से जो शरणार्थी अपना सब कुछ गंवा कर जम्मू में चले आए थे, उन्हें प्रदेश की सरकार डोमिसायल प्रमाण पत्र क्यों दे रही है? इन लोगों को प्रदेश में रहते हुए लगभग सात दशक बीत चुके हैं। राज्य सरकार इन्हें राज्य के स्थायी निवासी का प्रमाण पत्र देने के लिए तैयार नहीं है। इस प्रमाण पत्र के अभाव में इन्हें राज सरकार से कोई भी सुविधा प्राप्त नहीं हो सकती। वे जम्मू-कश्मीर के निवासी होते हुए भी अधिकार विहीन जीवन व्यतीत कर रहे हैं। वे प्रदेश में जमीन नहीं खरीद सकते। अपने बच्चों को प्रदेश के इंजीनियरिंग व मेडिकल कालेजों में पढ़ा नहीं सकते। यदि वे कहीं देश के किसी अन्य प्रांत से डिग्री लेकर आ जाते हैं, तब भी वे सरकारी नौकरी नहीं कर सकते। वे विधानसभा या स्थानीय निकाय के चुनावों में प्रत्याशी बनने की बात तो दूर, इनमें वोट भी नहीं दे सकते। एक प्रकार से वे प्रदेश में सत्तर साल से रहते हुए भी सही शब्दों में अभी तक शरणार्थी का जीवन जी रहे हैं। इतना ही नहीं, वे पश्चिमी पंजाब से आए हैं, इसलिए सरकार ने उन्हें कोई मुआवजा या वैकल्पिक निवास स्थान भी मुहैया नहीं करवाए। पश्चिमी पंजाब से आने वाले शरणार्थियों को पाकिस्तान में छोड़ी गई संपत्ति का मुआवजा और रहने के लिए मकान दिया गया। हिंदोस्तान से पाकिस्तान चले जाने वाले लोग अपने पीछे जो मकान छोड़ कर गए थे, वे इन पंजाबी शरणार्थियों को आबंटित किए गए, लेकिन दुर्भाग्य से जो पंजाबी शरणार्थी जम्मू-कश्मीर में बस गए, उन के साथ सौतेला व्यवहार किया गया और उन्हें अनाथ छोड़ दिया गया।

जम्मू से बहुत से मुसलमान पश्चिमी पंजाब में चले गए। उनके खाली पड़े मकानों को भी प्रदेश सरकार ने इन पंजाबी शरणार्थियों को आबंटित नहीं किया गया। उन्होंने बड़ी मुश्किल से इन मकानों को प्रदेश सरकार से किराए पर लिया और आज सत्तर साल बाद भी वे इनमें किराएदार की हैसियत से ही रह रहे हैं। इतना ही नहीं, ये पंजाबी शरणार्थी जर्जर होते जा रहे इन मकानों की मरम्मत भी नहीं करवा सकते, क्योंकि वे इसके मालिक नहीं हैं। वे इसमें किराएदार की हैसियत से भी रह पाएंगे या नहीं, इसकी भी कोई गारंटी नहीं है, क्योंकि प्रदेश सरकार बीच-बीच में ऐसे कानून बनाने का प्रयास करती रहती है कि इन स्थानों से जो मुसलमान 1947 में पाकिस्तान चले गए थे, वे फिर वापस आ सकते हैं और उनकी पुरानी संपत्ति उन्हें लौटा दी जाएगी। इन पंजाबी शरणार्थियों के सिर पर सदा बेघर हो जाने की तलवार लटकी रहती है। सबसे ज्यादा कष्ट की बात यह कि ज्यादातर पंजाबी शरणार्थी अनुसूचित जातियों के निम्न व निम्न मध्यम वर्ग के लोग हैं, जो आर्थिक लिहाज से ज्यादा संपन्न नहीं हैं। प्रश्न किया जा सकता है कि जब इन पंजाबी शरणार्थियों के साथ जम्मू-कश्मीर सरकार ने इस प्रकार का सौतेला व्यवहार किया तो वे रियासत छोड़ कर अन्य स्थानों पर क्यों नहीं चले गए? इसका भी उत्तर इनके पास है। इनको लगता था उस समय के राजनीतिक नेतृत्व के कारण पंजाब का विभाजन हुआ था। नेहरू उसके मुखिया थे। इन पंजाबी शरणार्थियों का मत था कि राजनीतिक नेतृत्व की कमजोरी के कारण उन्हें अपना पुश्तैनी घर-बार छोड़ना पड़ा है। इसलिए यह नेतृत्व कम से कम अब शरणार्थी बन चुके पंजाबियों को अनाथ नहीं छोड़ेगा। उस समय कोई कैसे कल्पना कर सकता था कि भारत सरकार इन पंजाबी शरणार्थियों के साथ दुश्मनों जैसा व्यवहार करेगी?

यह कल्पना भी कैसे की जा सकती थी कि इन शरणार्थियों को रियासत का बाशिंदा तसलीम नहीं किया जाएगा? 26 जनवरी, 1950  को भारत का नया संविधान बना। उसमें भी कोई प्रावधान नहीं था कि पंजाबी शरणार्थियों के एक हिस्से के साथ गैर इनसानों सा व्यवहार किया जाएगा। रियासत में स्थायी बाशिंदे की परिभाषा वाला कानून था, लेकिन उसमें भी स्थायी बाशिंदे बनने का रास्ता खुला रखा गया था। वैसे भी उन असाधारण परिस्थितियों में उस कानून का कोई अर्थ नहीं रह गया था। नेहरू के आग्रह और योजना/षड्यंत्र से शेख मोहम्मद अब्दुल्ला को जम्मू-कश्मीर रियासत का प्रधानमंत्री बना दिया गया। नेहरू और शेख की सरकार ने भी कोई संकेत नहीं दिया कि जम्मू-कश्मीर में आने वाले इन शरणार्थियों को दुश्मन की श्रेणी में रखा जाएगा। पंजाबी शरणार्थियों के लिए यह बम विस्फोट तो तब हुआ, जब पूरे दस साल बाद 1957 में रियासत की सरकार ने भारत के संविधान से अलहदा एक नया संविधान लागू कर दिया। इस तथाकथित संविधान ने ख़ुलासा किया कि महाराजा हरि सिंह के स्थायी निवास के लीले कानून को बदल कर उसको नए तरीके से परिभाषित कर दिया गया। इसके अनुसार रियासत का स्थायी बाशिंदा वही माना जाएगा, जो या तो 1944 या उससे पहले से रियासत में रह रहा हो या फिर उसके माता-पिता 1944 से पहले से रह रहे हैं। क्रियात्मक रूप से इसका अर्थ यह हुआ कि जम्मू-कश्मीर रियासत में जो लोग 1944 से पहले से रह रहे थे, उनकी संतानों के नाम रियासत का पट्टा लिख दिया गया। क्या जम्मू-कश्मीर रियासत कोई क्लब है, जिसकी सदस्यता उसके सदस्यों और उनकी संतानों को अनंत काल तक के लिए दे दी गई है और अब उसकी सदस्यता, जब तक सूरज चांद रहेगा, तक के लिए बंद कर दी गई है। अब प्रश्न यह उठता है कि इस क्लब की सदस्यता के लिए कट ऑफ डेट 1944 का निर्धारण किस आधार पर किया गया? जम्मू-कश्मीर रियासत को महाराजा हरि सिंह ने भारत की संवैधानिक व्यवस्था का हिस्सा बनाने का काम 26 अक्तूबर, 1947 को किया था। जम्मू-कश्मीर का नया संविधान रियासत में 26 जनवरी, 1957 को लागू किया गया था, उसी में स्थायी निवास को परिभाषित किया गया था, लेकिन उसे भी कट डेट नहीं माना गया। असली सवाल और गहरा है। आखिर जम्मू-कश्मीर सरकार इस बात पर क्यों बजिद है कि 1944 के बाद रियासत में किसी को रहने का अधिकार नहीं है?

इसका उत्तर सरकार तो नहीं, लेकिन हुर्रियत कान्फ्रेंस से लेकर नेशनल कान्फ्रेंस तक दे रही है। उनका कहना है कि इससे प्रदेश का जनसांख्यिकी अनुपात बदल जाएगा। यानी जम्मू-कश्मीर राज्य, जो अभी मुस्लिम बहुल राज्य है, उसमें मुसलमानों की संख्या कम होने लगेगी। यदि कोई प्रदेश मुस्लिम बहुल है, तो उसको मुस्लिम बहुल बनाए रखना क्या संवैधानिक दायित्व के अंतर्गत आता है? फिर तो हिंदोस्तान के किसी भी प्रांत में मुसलमानों को बसने नहीं दिया जाएगा, यह कह कर कि इससे प्रदेश में हिंदू जनसंख्या के अनुपात बदलने का खतरा पैदा हो सकता है। जम्मू-कश्मीर में स्थायी निवासी होने का कानून इसी बीमार मानसिकता में से उपजा है, जिसकी आज के प्रगतिशील और विकासवादी समाज में कोई जगह नहीं है। सत्तर साल बाद भी कोई सरकार इन पंजाबी शरणार्थियों को रियासत का स्थायी निवासी होने का प्रमाण पत्र देने का साहस नहीं जुटा पाई। अब महबूबा मुफ्ती की सरकार उन्हें डोमिसायल यानी एक प्रकार का पहचान पत्र देने के लिए राजी हुई है, लेकिन ताज्जुब इसी के विरोध में शेख अब्दुल्ला की नस्लों ने श्रीनगर में चीख-चीख कर अपना गला सुखा लिया है। गिलानी, हमदानी, करमानी, खुरासानी सब विरोध में सड़कों पर उतर आए हैं। बेहतर होगा, सरकार अपने कानून में संशोधन करे और इन पंजाबी शरणार्थियों को स्थायी निवासी प्रमाण पत्र जारी करे, ताकि सात दशकों से चला आ रहा अन्याय समाप्त हो।

ई-मेलः kuldeepagnihotri@gmail.com


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