वह लुटती रहेगी कब तक ?

By: Jan 10th, 2017 12:02 am

वह चीखती-चिल्लाती है, हाथ-पांव मारती है, रोती-बिखलती है, राक्षसों की जकड़न से मुक्त होने की कोशिश करती है, गुहार करती है और मदद के लिए पुकारती रहती है। ऐसे दृश्य आपने शायद ही कभी देखे हों। यदि देखे होंगे, तो कन्नी काट ली होगी। वैसे भी रात के अंधेरे में, चलती कार में, सुनसान सड़कों पर, बाजार में ऐसी घिनौनी हरकतें होती रही हैं। शायद ये जारी भी रहेंगी, क्योंकि मर्दवादी रवैया ही ऐसा है और उन्हें रोकने या दबाने का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा है। बंगलूर तो अमरीका की सिलिकॉन वैली का पर्याय माना जाता है। प्रौद्योगिकी, विज्ञान, बौद्धिकता का एक श्रेष्ठ शहर भी है। दिल्ली देश की राजधानी है। क्या नए साल का जश्न किसी की इज्जत पर हमला करके ही मनाया जा सकता है? क्या यौन उत्पीड़न, बलात्कार, छेड़छाड़ ही किसी को मानसिक सुख दे सकता है? हम आज तक समझ नहीं पाए कि यौन आक्रमण एक मनोविकार है अथवा कोई राक्षसी प्रवृत्ति या किसी तरह का पागलपन। 2012 में जब दिल्ली में निर्भया कांड की दरिंदगी सामने आई थी, तो पूरा देश आंदोलित हो उठा था। करोड़ों ने सांत्वना और सहानुभूति की मोमबत्तियां जलाई थीं। बैनर, नारे और हाथ हवा में उछले थे। संसद का विशेष सत्र बुलाकर हमारी विधायिका ने भी चिंता और सरोकार जताए। जस्टिस वर्मा की अध्यक्षता में एक कमेटी को कानून बदलने का नैतिक दायित्व सौंपा गया। कानून बना और उसे अपेक्षाकृत कड़ा करार दिया गया। उसके तहत फास्ट ट्रैक कोर्ट के बावजूद करीब 95,000 महिलाओं, युवतियों के मामले अब भी इनसाफ की दरकार में लटके हैं। जिन वहशियों ने निर्भया कांड को अंजाम दिया था, वे आज भी जेल में सरकारी रोटियां तोड़ रहे हैं। जिनकी मौत हो गई, उनका संदर्भ छोड़ा जा सकता है, लेकिन देश की संसद और न्यायपालिका ऐसा कानून बनाने या फैसला देने में क्या घबराहट महसूस करती रही है? किस नैतिकता और न्यायशीलता का उन्हें इंतजार है? कानून प्रत्यक्ष तौर पर ऐसा क्यों नहीं होना चाहिए कि यौन हमलों के दरिंदों को तुरंत सजा दी जा सके। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के मुताबिक, 2015 में महिलाओं पर कुल अपराध 3,27,394 किए गए। अकेले यौन हमलों की संख्या 84,222 है। ये तो एक साल पुराने आंकड़े हैं। नए आंकड़े फिलहाल गिने जा रहे होंगे। न जाने उसकी संख्या कितनी होगी? बंगलूर और दिल्ली की हालिया घटनाएं शर्मनाक हैं। अपराध की दर राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में सर्वाधिक है। कलंक, शर्मिंदगी, असभ्यता क्या-क्या विशेषण दें इसे? हम वहशियत के देश हैं या प्राचीन सभ्यता-संस्कृति के श्रेष्ठ केंद्र? आज यह सवाल हमारे सामने खड़ा है। एक अध्ययन के मुताबिक, 12 साल और उससे ज्यादा उम्र के औसतन 90 फीसदी बच्चे पोर्नोग्राफी देखते हैं, लिहाजा उनके मानस में औरत की एक ही अश्लील तस्वीर छपती रहती है। वे भूल जाते हैं कि घर में मां-बहन, बेटियां भी हैं। उनके साथ भी दुष्कर्म की दरिंदगी खेली जा सकती है। दरअसल ऐसे कुकर्म करते हुए लड़के भूल जाते हैं कि इज्जत उनकी भी लुट रही है, क्योंकि ऐसे बदजात युवाओं को समाज अवांछित घोषित कर रहा है, उन पर कलंक पुत रहा है और लड़कियां उन्हें जीवन-साथी बनाने के लिए खारिज कर रही हैं, लिहाजा लड़कों को अपनी हवस नियंत्रित करने की कोशिश करनी पड़ेगी। हालांकि महानगरों में स्कूटरों, तिपहियों और टैक्सियों के पीछे लिखा होता है- मेरा ईमान, महिलाओं का सम्मान! लेकिन यह लिखित जुमला ही लगता है, क्योंकि संस्कार तो मां-बाप और घर के परिवेश से मिलते हैं। घर में ही लड़की को अनुशासन के पाठ पढ़ाकर बांधा जाता है, लिहाजा उसका आत्मविश्वास तो वहीं से डिगने लगता है। वह वहशियों से लड़ाई कैसे लड़ेगी? जबकि लड़के का खुलापन, आवारापन, मस्ती उसकी मर्दानगी मानी जाती है और हम उस पर गौरव महसूस करते हैं। लड़का खुले सांड की तरह स्वीकार किया जाता है। इस मानस को बदलना होगा। हम हैरान हैं कि ‘पिंक’ सरीखी फिल्म के देश का छोकरा स्कर्ट खींचने की जुर्रत कर सकता है। दोष छोटे कपड़ों में नहीं है। दोषी हमारी बौनी सोच है। हमारा यकीनी तौर पर मानना है कि कोई भी लड़का, किसी भी लड़की पर यौन हमला करके, सुख का अनुभव नहीं करता। इस समाज में दोनों ही लिंगों को रहना है। दोनों से ही पूर्णत्व है। फिर ये यौन सीमाओं के उल्लंघन क्यों किए जा रहे हैं।


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