हिमाचली मेहनत की चोरी

By: Jan 31st, 2017 12:02 am

प्रदेश के बागबानी विभाग ने सेब की गुणवत्ता के लिहाज से अवैध तरीके से पौधे उगाकर धोखाधड़ी करने वालों के खिलाफ एक मुहिम छेड़ी है। ब्लॉक स्तर पर समितियों के मार्फत यह सुनिश्चित होगा कि कहीं कोई अवैध तरीके से बागबानों की मेहनत का चूरमा न कर दे। किसान-बागबान की मेहनत चुराने की पहली कोशिश अगर पौध या बीज आपूर्ति हो सकती है, तो इसकी अंतिम लूट का अनुमान लगाना नामुमकिन है। खेतीबाड़ी का एक दृश्य पूरी तरह इसलिए गायब हो गया, क्योंकि किसान की मेहनत पर बंदर भारी हो गया या सस्ते अनाज के डिपो ने मेहनत को अलाभकारी बना दिया। दूसरी ओर मनरेगा से उपजी आर्थिकी ने मिट्टी की उत्पादन क्षमता को ढेर कर दिया। किसान की चिंता की एक तीसरी खेप भी है, जो अवैध कब्जों की तरफदारी में सरकार को कल्याणकारी बनाना चाहती है। हैरानी यह कि एक ओर कई कृषक बंदर, आवारा या वन्य प्राणियों की वजह से खेत छोड़ चुके हैं और दूसरी ओर जिन्होंने वन भूमि चुराकर बागीचे लगाए, उसका मानवीय आधार पर बचाव हो रहा है। कुछ इसी तरह जो सरकारी कर्मचारी ईमानदारी से काम करता रहा-स्थानांतरण की सूची में रहा, लेकिन राजनीतिक संपर्क साधने के कौशल में कर्मचारी वर्ग में भी एक चहेती कौम बन गई। कार्य संस्कृति में आए बिखराव में अंततः किसकी मेहनत लूटी गई या दफ्तर में तनी कुर्सी कितनी चोरी कर रही है, इसका अंदाजा लगाना भी मुश्किल है। हिमाचली मेहनत के अनेक फलक हो सकते हैं, लेकिन सरकारी सोच की बुनियाद पर चोर रास्ते निकल आते हैं। कुछ इसी अंदाज में राजनीतिक या सरकारी घोषणाओं ने मेहनत या जद्दोजहद की इनसानी शर्तों को चुराने की लगातार कोशिश की है।  ऐसे में ईमानदार की मेहनत और व्यवस्था की कामयाबी के प्रति निष्ठा का क्षरण स्वाभाविक है। पड़ोसी पंजाब के चुनावी माहौल की हर तरह की गणना से, हिमाचल की राजनीति का ताल्लुक बढ़ रहा है और इसी परिप्रेक्ष्य में वहां बंट रहे घोषणापत्रों की सौगात का असर भी देखा जाएगा। अगर इसी राजनीतिक आचरण में हिमाचल में अपने हित साधने की कोशिश होती है, तो एक खतरनाक दौर शुरू हो सकता है। मसलन मुफ्त बिजली, स्मार्टफोन सेट, सस्ती खाने की थाली या देशी घी की कटोरी अगर सजती है, तो उस मेहनत का क्या होगा जो पर्वत को फौलाद बनाती है। राजनीति जिस धुरी में अपनी सफलता के खजाने खोजती है, उसके कारण मेहनत का जज्बा हारता है। लोकप्रिय फैसलों की हर जिरह एक फांस की मानिंद जरूरतों के प्रति शिथिलता और ख्वाहिशों के प्रति अगर निरंतर लाचार बनाएगी, तो हर चुनाव के बाद कमजोर तो इनसान ही होगा। हिमाचल में सरकारों का निरंतर मोम की तरह पिघल कर मुलायम सतह बन जाना, समाज को कमजोर बना रहा है। सरकारों का दायित्व सुशासन की पहली से अंतिम कड़ी है, लेकिन जनता को फुसलाने की वजह से कायदे-कानून की चोरी होने लगी है। अब विधायक प्राथमिकताओं को लेकर विपक्ष के आरोपों पर गौर करें, तो प्रदर्शन की सियासी चोरी इस कद्र कि डीपीआर बनाने के ताने-बाने में मेहनत चुपके से चुरा ली जाती है और रह जाती है एक भारी कसरत। प्रदेश की मेहनत का सबसे बड़ा कसूर यह कि जंगल उगाकर, विकास की आशा को अब वन अधिनियम बार-बार चुरा लेता है। विकास के हिमाचली दस्तूर में वन अधिनियम की तालेबंदी और मेहनत के खंडहर बन कर खड़े दस्तावेजों को हर बार समय चुरा लेता है। एक ऐसी परिपाटी जहां हिमाचल अपने भविष्य को सत्ता के पांच सालों में देखता है और इसी क्रम में मेहनत टूटती है या राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा के कारण चोरी हो जाती है और इसी कारण अवसरवाद का विषाद सामने खड़ा हो जाता है।


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