नागों पर विजय पर मनाया जाता है भुंडा उत्सव

By: Jan 18th, 2017 12:05 am

संस्कृत ग्रंथों में भुंडा को नरमेध यज्ञ नाम से जाना जाता है। जिस प्रकार उत्तरी भारत में दशहरे को आर्यों की दक्षिण देशीय द्रविड़ आदि जातियों पर विजय की स्मृति में मनाते हैं, उसी प्रकार हिमाचल प्रदेश में भी भुंडे को खशों की नाग जाति पर विजय के रूप में मनाते हैं…

प्रागैतिहासिक हिमाचल

किन्नर, किरात और नाग जातियों के अतिरिक्त हिमाचल में जो सबसे शक्तिशाली जाति रही वह ‘खश’ जाति थी। इतिहासकारों का इनके बारे में यह विचार है कि आदिकाल में आर्य लोग अपने मूल स्थान एशिया से नए देश और उपनिवेश की खोज में निकले, तो इनकी एक टोली तो सीधी ईरान होती हुई धीरे-धीरे यूरोप तक बढ़ती गई। दूसरी टोली दो दलों में बंट कर हिंदुकुश पर्वतमाला को पार करके सिंधु घाटी की ओर मुड़ी। आर्यों की तीसरी टोली जो खश नाम से प्रसिद्ध हुई, मध्य एशिया से काशगर, हिंदुकुश गिलगित-कश्मीर की ओर मुड़ी। पर्वतों को लांघते हुए कशगिरी, कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, गढ़वाल और कुमाऊं होते हुए खश लोग पूर्वी नेपाल तक फैल गए। ताम्र युग के आरंभ में यह जाति तरीम उपत्यका में निवास करती थी। सप्त सिंधु में वैदिक आर्यांे के छा जाने से पूर्व ही इस जाति के लोग मध्य एशिया में आकर नेपाल तक फैल गए थे। जब खश यहां आए तो उन्हें यह प्रदेश बीहड़ नहीं मिला। उन्हें पहले से ही बसी जातियां कोल, किन्नर-किरात, नाग और यक्षों का सामना करना पड़ा। उन्हें हिमाचल में अपना प्रभुत्व स्थापित करते हुए लंबा समय लगा होगा। इस बात का अनुमान उनके द्वारा स्थापित अनेक उपनिवेशों जैसे कि महासू मंडल के रोहड़ू क्षेत्र में स्थित खशधार, खशकंडी आदि नामक गांव से लगता है। संभव है वे पहले एक स्थान पर अपने पांव जमाते होंगे और उसके बाद वहां से आगे बढ़ते होंगे। उन्हें कदम-कदम पर यहां के आदिम निवासियों के साथ संघर्ष भी करना पड़ा होगा। परंपराओं, किंवदंतियों, लोक नाट्यों, लोक गाथाओं और लोक कथाओं से इस महान जाति का पता लगता है, जो कोल, किन्नर-किरात, यक्ष और नाग जातियों की प्रधानता के बाद उनकी भूमि में धीरे-धीरे सर्वेसर्वा बन गई। खशों का नाग जाति पर विजय का पता यहां पर प्राचीन काल से मनाए जा रहे भुंडा नामक उत्सव से लगता है। संस्कृत ग्रंथों में भुंडा को नरमेध यज्ञ नाम से जाना जाता है। जिस प्रकार उत्तरी भारत में दशहरे को आर्यों की दक्षिण देशीय द्रविड़ आदि जातियों पर विजय की स्मृति में मनाते हैं, उसी प्रकार हिमाचल प्रदेश में भी भुंडे को खशों की नाग जाति पर विजय के रूप में मनाते हैं। दशहरे में राम को उस समय की अल्पसंख्य आर्य जाति का प्रतीक मानते हैं और बहुसंख्य अनार्य जातियों को दस मुखों वाले रावण के पुतले के रूप में। राम को नायक मानकर पुतले में आग लगाते हैं। इसी तरह हिमाचल के भीतरी भागों  में, विशेषकर कुल्लू में निरमंड, रामपुर बुशहर, जुब्बल में मढ़ाल और गढ़वाल के कुछ भागों में प्राचीनकाल से चले आ रहे भुंडा नामक उत्सव को आज भी बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है, क्योंकि इसमें बहुत धन व्यय होता है।


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