आरती पर विजातीय आपत्ति

By: Feb 11th, 2017 12:05 am

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

(  लेखक, वरिष्ठ स्तंभकार हैं )

जो मुसलमान मूल रूप से भारत के ही रहने वाले हैं और उन्होंने किन्हीं भी कारणों से अपनी पूजा पद्धति बदल ली, उनको तो शायद हिंदू राष्ट्रीयता के अर्थों में स्वीकारने में कोई आपत्ति नहीं है। यही कारण है कि शेख मोहम्मद अब्दुल्ला तक ने बिना किसी हिचक के अपनी आत्मकथा में स्वीकार किया कि हमारे पूर्वज भगवान दत्तात्रेय के उपासक थे। यही कारण है कि मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के लोग भारत माता की आरती में कुछ अटपटा अनुभव नहीं करते। आपत्ति उन मुसलमानों को है, जिनके पूर्वज अरब, अफगानिस्तान और मध्य एशिया के आक्रमणकारियों के साथ आए थे…

मुस्लिम राष्ट्रीय मंच से जुड़े मुसलमान अपने पूर्वजों के इतिहास को भूले नहीं हैं। इतना ही नहीं, वे इसे अपने इतिहास का हिस्सा मानते हैं। यही कारण है कि उन्हें भारत माता की आरती करने में कोई संकोच नहीं होता। वे गोहत्या पर प्रतिबंध लगाने की मांग भी करते रहते हैं। उनका मानना है कि गोमांस उनके पूर्वजों की संस्कृति का हिस्सा नहीं था, लेकिन इस्लाम के बहावी संस्करण को भारत में भी रोपने की कोशिश कर रही कुछ इस्लामी संस्थाएं इससे दुखी रहती हैं। बहावी इस्लाम का प्रचार करने वाली संस्थाएं मानती हैं कि जब हिंदोस्तान का कोई व्यक्ति इस्लाम की पूजा पद्धति को स्वीकार कर लेता है, तो उसे अपने पूर्वजों और उनकी विरासत से भी नाता तोड़ लेना अनिवार्य है। बहावी इस्लाम का प्रचार करने वाली संस्थाओं का यह तर्क किसी भी हिंदोस्तानी के गले आसानी से नहीं उतरता। मान लो आज मैं भगवान को नमन मंदिर में जाकर करता हूं और कल भगवान को यही नमन मस्जिद में जाकर या घर के खुले आंगन में ही नमाज पढ़ कर करता हूं। भगवान को नमन करने का मेरा तरीका बदला है, लेकिन यदि कोई कहे कि अब तुमने भगवान को नमन करने का तरीका बदल लिया है, इसलिए आज से तुम्हारा बाप और दादा भी बदल गए हैं। अब उनसे तुम्हारा कोई नाता नहीं रहा है। न ही अब तुम्हारे पूर्वजों के इतिहास से तुम्हारा नाता रहेगा। अपने जिन पूर्वजों के महान कृत्यों को लेकर अब तक तुम गौरवान्वित होते थे, आज से तुम्हें उनके कृत्यों को नकारना है और उन पर लज्जित अनुभव करना है। इतना ही नहीं, भगवान को नमन करने का तरीका बदलने वालों को यह भी कहा जा रहा है कि यदि तुम अपने पूर्वजों और उनकी विरासत को नहीं छोड़ोगे, तो इससे इस्लाम का अपमान होगा।

इस प्रकार की अवैज्ञानिक और तार्किक व्याख्या को भला कौन स्वीकार कर सकेगा? लेकिन पिछले लंबे अरसे से उन भारतीयों को, जिन्होंने भगवान को नमन करने का तरीका बदल लिया था, यही सब समझाने और मनवाने की कोशिश कुछ निहित स्वार्थों द्वारा की जा रही है। मोहन भागवत ने अपने बेतूल के भाषण में इसी तथ्य को रेखांकित किया है, जिसके कारण पंथनिरपेक्षता की आड़ में बहावी इस्लाम को लादने की कोशिश कर रही कुछ संस्थाएं रुदाली रुदन कर रही हैं। मोहन भागवत का कहना है कि यदि कोई भारतीय, जिसने भगवान को नमन करने का तरीका बदल लिया है, भारत माता की आरती करता है, तो इस पर कोई कैसे आपत्ति कर सकता है? उनके भाषण का एक अंश हिंदू को लेकर था। उन्होंने कहा हिंदोस्तान में रहने वाला हर व्यक्ति हिंदू है, भगवान की पूजा पाठ का तरीका उसका कोई भी हो सकता है। भगवान के पूजा-पाठ का तरीका मजहब या रिलीजन कहलाता है। भारत में पूजा-पाठ का एक तरीका नहीं, हजारों अलग-अलग तरीके हैं और देश का हर नागरिक अपनी इच्छा से कोई भी तरीका चुन सकता है। इसलिए हिंदू एक मजहब या रिलीजन नहीं, बल्कि राष्ट्रीयता है। मोहन भागवत ने कहा कि जिस प्रकार जर्मनी में रहने वाले लोग जर्मन कहलाते हैं, पोलैंड में रहने वाले लोग पोलिश कहलाते हैं, उसी प्रकार हिंदोस्तान में रहने वाले लोग हिंदू हैं। उनका मजहब कोई भी हो सकता है। वे इस्लाम पंथी हो सकते हैं, ईसाई हो सकते हैं, यहूदी हो सकते हैं, पारसी हो सकते हैं, वैष्णव हो सकते हैं, शैवपंथी हो सकते हैं, शाक्त मत के हो सकते हैं। मूर्ति पूजक हो सकते हैं, मूर्तिपूजा को नकारने वाले भी हो सकते हैं। बुद्ध वचनों में आस्था रखने वाले हो सकते हैं या फिर केवल वेद को ही प्रमाण मानने वाले हो सकते हैं।

वे सूर्य, चंद्र, वायु देवता या फिर वरुण देवता की पूजा करने वाले हो सकते हैं। यहां तक कि वे नास्तिक भी हो सकते हैं, जिनका भगवान को नमन की बात तो दूर, उसके अस्तित्व तक में ही विश्वास नहीं है। लेकिन लोग दुर्भाग्य से लोग हिंदू को भी इस्लाम या ईसाइयत की तर्ज पर रिलीजन या मजहब ही मान लेते हैं। उनका कहना है कि राष्ट्रीयता के लिए भारतीय शब्द ठीक हो सकता है। अंग्रेजी वाले इसे ही इंडियन कहते हैं। उनका कहना है कि राष्ट्रीयता देश के नाम से बनती है। उसी तर्ज पर भारतीय या इंडियन शब्द का प्रयोग होता है। उनकी बात ठीक है। यह देश इतिहास के लंबे कालखंड में अनेक नामों से संबोधित होता रहा है। भारत, इंडिया, आर्यावर्त, हिंदोस्तान सभी नाम इस देश के ही हैं। इस लिहाज से भारतीय और हिंदू पर्यायवाची शब्द ही हैं। अतः चाहे भारतीय कहो या फिर हिंदू कहो, उसका अभिप्राय एक ही है। मोहन भागवत ने भी इसे अनेक बार कहा है। दुनिया भर के लोग इसे स्वीकार करते हैं। बहुत साल पहले की बात है, मैं ईरान की राजधानी तेहरान में था। तेहरान में एक गुरुद्वारा भी है। ईरानी उसे हिंदी मस्जिद कहते थे। ईरानी हिंदी शब्द हिंदू के लिए ही प्रयोग करते हैं। मस्जिद यानी पूजा का स्थान। हिंदी मस्जिद यानी हिंदुओं की पूजा का स्थान। ईरानी जानते हैं कि हिंदुओं की पूजा के हजारों तरीके हैं। वहीं गुरुद्वारा में जुम्मे के दिन लंगर लगता था। इसलिए सभी प्रांतों के लोग चाहे किसी भी मजहब के हों, वहां आ जाते थे। व्यावहारिक रूप से भारतीयों के मिलने-जुलने की जगह थी। एक दिन भोपाल का एक मुसलमान भी मेरे साथ था। हम दोनों लंगर खाने के बाद गुरुद्वारे के बाहर खड़े थे। एक ईरानी वहां आ गया। भीड़भाड़ देख कर उसने हमसे पूछा, शुमा हिंदी ए? फारसी में पूछे गए इस प्रश्न का अर्थ था कि क्या आप हिंदू हो? उसका अभिप्राय हिंदोस्तानी से था। मैंने कहा, मन हिंदू ए, लेकिन भोपाल के उस मुसलमान ने कहा, मन हिंदी नीस्त, मन मुसलमान ए।

वह ईरानी कुछ देर उसे देखता रहा और उसके कहे का अर्थ समझने की कोशिश करता रहा। फिर बोला, मजहब-ए शुमा मुसलमान ए। मिल्लत-ए-शुमा हिंदी ए। अर्थात तुम्हारा मजहब मुसलमान है, लेकिन राष्ट्रीयता तो हिंदू है। लगभग यही बात मोहन भागवत ने कही है। लेकिन यहां एक प्रश्न पैदा होता है। यदि भारतीय और हिंदू एक ही चीज हैं, फिर राष्ट्रीयता के लिए भारतीय शब्द क्यों न प्रयोग कर लिया जाए। जब मुसलमान और ईसाई आपत्ति करते हैं तो हिंदू शब्द प्रयोग करने की जरूरत क्या है? जो मुसलमान मूल रूप से भारत के ही रहने वाले हैं और उन्होंने किन्हीं भी कारणों से अपनी पूजा पद्धति बदल ली, उनको तो शायद हिंदू राष्ट्रीयता के अर्थों में स्वीकारने में कोई आपत्ति नहीं है। यही कारण है कि शेख मोहम्मद अब्दुल्ला तक ने बिना किसी हिचक के अपनी आत्मकथा में स्वीकार किया कि हमारे पूर्वज भगवान दत्तात्रेय के उपासक थे। यही कारण है कि मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के लोग भारत माता की आरती में कुछ अटपटा अनुभव नहीं करते। आपत्ति उन मुसलमानों को है, जिनके पूर्वज अरब, अफगानिस्तान और मध्य एशिया के आक्रमणकारियों के साथ आए थे। वे अपने मजहब को तो सख्ती से पकड़े रहे और इसमें कुछ गलत भी नहीं है, लेकिन वे भारत की राष्ट्रीयता को आत्मसात नहीं कर सके। यही कारण है कि उन्हें वंदे मातरम् कहते हुए भी कष्ट होता है और भारत माता का चित्र देखते ही उनकी आंखों में खून उतर आता है। उनका आग्रह नहीं, बल्कि धमकी ही है कि हिंदू शब्द को राष्ट्रीयता के संदर्भ में त्यागना होगा। उनकी धमकियों से डर कर यदि भारतीयों ने हिंदू शब्द छोड़ना शुरू कर दिया तो फिसलते जाने की कोई सीमा नहीं होगी। लेकिन खुदा का शुक्र है कि वंदे मातरम् और भारत माता का विरोध करने वाले उन विदेशी विरासत वाले लोगों की संख्या बहुत ज्यादा नहीं है।

ई-मेल:  kuldeepagnihotri@gmail.com


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