कब्जों में कराहता कानून

By: Feb 6th, 2017 12:05 am

इन खोखाधारकों को दाद दें या सहानुभूति प्रकट करें कि उनके अतिक्रमण से सरकाघाट स्कूल की दीवारें कांप गईं। बेशक स्कूल प्रबंधन व छात्र समूह ने अवैध कब्जों से शिक्षा के मंदिर को मुक्त करा लिया, लेकिन विरोध में सरकाघाट बाजार के बीच हुआ चक्का जाम, हिमाचली भविष्य में कानून-व्यवस्था की हालत को रेखांकित कर गया। खोखा अब ऐसे हक की लड़ाई है, जो हमारे राजनीतिक स्वार्थ को भी परिलक्षित करती है। सरकाघाट तो एक छोटा सा उदाहरण है, लेकिन पूरे प्रदेश में अतिक्रमण के साथ राजनीतिक अधिकार खड़ा है। स्वयं सरकारें भी अवैध निर्माण को वैध करने की संगत में नियम और निर्णय बदलती रही हैं। आश्चर्य यह है कि  सरकारों की ढुलमुल नीतियों ने जनता का आचरण इतना आक्रामक और असंवेदनशील बना दिया कि सार्वजनिक भूमि या प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा जमाने की फितरत भी अब एक शान है। इसी सोच की बदौलत बाकायदा एक तंत्र और समर्थन दिखाई देता है। ताज्जुब यह कि एक सरकारी स्कूल की जमीन को कब्जाधारियों से मुक्त कराने को समर्थन नहीं मिलता, लेकिन कार्रवाई के विरोध में सारा बाजार युद्धक्षेत्र बन जाता है। इसके आर्थिक पहलू भी समझने होंगे और स्वरोजगार की अहमियत भी। हालांकि रेहड़ी-फड़ी व खोखा मार्केटों के संबंध में राजनीतिक पैमाइश व फरमाइश तो होती है, लेकिन छोटे व्यापारियों पर केंद्रित व्यवस्थित बाजार स्थापित नहीं हुए। खास तौर पर धार्मिक व पर्यटक स्थलों पर अवैध खोखाधारकों की तादाद में वृद्धि के बावजूद सरकार के कदम दिखाई नहीं देते। दूसरी ओर प्रशासनिक तौर पर या स्थानीय निकायों द्वारा बनने वाले ढांचे में केवल राजनीतिक अनुयायियों को ही स्थान मिलता है। सबसे ज्यादा मिलीभगत नगर निकायों की मिलकीयत में बसे पार्षदों, पूर्व  पार्षदों या उनके सगे संबंधियों की रखवाली में कई शहर लुट गए। प्रदेश मे सरकारी नौकरी का झांसा या प्रचार तंत्र तो सदैव तत्पर रहता है, लेकिन रोजगार का ढांचा विकसित नहीं होता। औद्योगिक विकास न के बराबर या सीमित क्षेत्रों तक होने के कारण सरकार को निवेश केंद्र या स्वरोजगार केंद्र स्थापित करने होंगे। हर छोटे-बड़े कस्बे या शहरों की परिधि में स्वरोजगार का ढांचा पुख्ता करने के लिए सर्वप्रथम भूमि बैकों की स्थापना करनी होगी। विडंबना यह है कि उपलब्ध भूमि का सही इस्तेमाल नहीं हो रहा और न ही स्वरोजगार का कोई रोड मैप बना है। अगर हर शहर के अलावा बड़े कस्बों में व्यापारिक परिसर विकसित करके इसे स्वरोजगार का एक जरिया बनाएं, तो सैकड़ों युवाओं की आजीविका चल पड़ेगी। इसी तरह ग्रामीण पर्यटन की अवधारणा में लोक कलाओं, कृषि-फलोत्पादन, गीत-संगीत तथा ग्रामीण उत्पादों के मार्फत एक अलग तरह का बाजार पूरे प्रदेश में सजा सकते हैं। आरंभिक तौर पर अगर हर विधानसभा क्षेत्र में एक पर्यटक गांव को वहां के नैसर्गिक सौंदर्य, धार्मिक-धरोहर स्वरूप, बागबानी-कृषि, मत्स्य उत्पादन, लोक कला, ट्रैकिंग, साहसिक खेलों या ईको-टूरिज्म के माध्यम से ढांचागत विकसित करें, तो स्वरोजगार का एक प्रारूप तैयार होगा। इन पर्यटन गांवों को आरंभिक तौर पर मुख्य सड़कों के किनारे विकसित करते हुए अगर हाई-वे टूरिज्म की जरूरतों के अनुरूप शक्ल दी जा सकती है। यानी हर पर्यटन गांव के हाट व सुविधा बाजार में दस से बीस विक्रय केंद्रों के अलावा वाहन मरम्मत तथा मनोरंजन के साधन भी उपलब्ध होंगे। आश्चर्य यह कि रोजगार पर राजनीति ने सरकारी दायित्व को केवल घोषणाओं की तस्वीर बना दिया है और जहां मूल्यांकन भी सरकारी नौकरी की उपलब्धता पर निर्भर करता है। ऐसे में स्वरोजगार की अधोसंरचना में व्यापक और निरंतर प्रयास करने के साथ-साथ शिक्षा को भी रोजगार के नए बाजार के हिसाब से परिभाषित करना पड़ेगा। सरकाघाट में जहां खोखे टूटे वहां कानूनी तौर पर यह अतिक्रमण के खिलाफ जनांदोलन माना जाएगा, लेकिन रोजगार खत्म होने के खिलाफ जो आवाजें उठीं उनके पीछे भी एक संघर्ष है। बेशक अतिक्रमण की शिनाख्त से कानून-व्यवस्था की पूंजी एकत्रित नहीं होती और न ही किसी को यह अधिकार मिलता है कि वह स्कूल की जमीन पर तंबू गाड़ दे, लेकिन यह सवाल तो रहेगा कि ऐसे माहौल को पटरी पर लाने के विकल्प पैदा क्यों नहीं हुए।


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