प्रकृति की अवज्ञा का दंड है रोग

By: Feb 11th, 2017 12:05 am

हमेशा किसी मनोविकार के वशीभूत रहने से व्यक्ति में अनावश्यक संघर्ष चलता रहता है। भय, क्रोध, घृणा, ईर्ष्या, प्रतिहिंसा, लोभ, वासना इन पर नियंत्रण न होने से मनुष्य उत्तेजित बना रहता है। इच्छाओं की विभिन्नताओं के अनुसार मनोविकारों की अनेक रूपता का विकास होता है। प्रत्येक मनोविकार जटिलता उत्पन्न कर शारीरिक विकार का कारण बनता है। अप्राकृतिक, अनहोनी कल्पनाएं, पुरानी दुखद स्मृतियां, दबी-कुचली वासनाएं, दाहक तत्त्वों की अभिवृद्धि किया करती हैं। अपने आप पर किए गए इन अत्याचारों के हम स्वयं ही जिम्मेदार हैं। हम स्वयं ही रोगों को निमंत्रण देकर बुलाते हैं। प्रकृति की पुकार पर जो लोग ध्यान नहीं देते, उन्हें  भांति-भांति के रोग और दुख घेर लेते हैं, परंतु प्राकृतिक जीवन व्यतीत करने वाले जंगल रोगमुक्त रहते हैं और मनुष्य के दुर्गुणों और पापाचारों से बचे रहते हैं।  प्रकृति की अवज्ञा करने का परिणाम रोग है। यह अवज्ञा हम भांति-भांति से करते हैं। एक स्वस्थ मनुष्य जब अपने प्रति अत्याचार करता है, तभी वह व्याधिग्रस्त होता है। साधारण गलतियों के लिए प्रकृति हमें मामूली सी सजा सिरदर्द,जुकाम, पेट दर्द इत्यादि देकर छोड़ देती हैं, किंतु अनवरत नियमोल्लंघन से बड़े-बड़े जटिल रोग उत्पन्न होते हैं। प्रकृति के नियम तो अटल हैं। अपने नियमों के अनुसार वह इस शरीर यंत्र को चलाया करती है।  यदि उनके मार्ग में हम बाधा उपस्थित न करें, उसे अपना कार्य चलाने दें, तो हम दीर्घ जीवन का सुख लूट सकते हैं। प्रकृति से मनुष्य जितना दूर गया, जितना उसका संपर्क छूटा, उतनी ही बीमारियां बढ़ी हैं। संसार ने पश्चिमी सभ्यता का दुष्परिणाम भुगत लिया है। भारतीय ऋषि-मुनि सदैव प्रकृति माता के संपर्क में रहने का उपदेश देते रहे हैं। इस सभ्यता ने हमें सबसे अधिक सुख और दीर्घ जीवनदान दिया है। आदिम युग में जब वह प्रकृति की गोद में खेलता-कूदता आखेट करता रहा- उसने सबसे अधिक आनंद किया। जब वह ‘सभ्यता’ के दायरे में बंधा, तो उसका प्रकृति से संबंध टूटने लगा। उन्नति के नाम पर वह धीरे-धीरे प्रकृति से दूर हटता गया। फलतः आज वह नाना प्रकार की व्याधियों का शिकार है। प्राकृतिक जीवन से दूर हटने का क्या कारण है? यह है- हमारा आजकल का सभ्यतापूर्ण मिथ्या आहार-विहार। मिथ्या आहार-विहार से हमारे शरीर में विष रुक जाते हैं। दूषित मल पहले पेट के भीतरी छेदों के पास एकत्रित होते हैं, फिर वहीं से भिन्न-भिन्न अंगों में जाकर अपना कुत्सित प्रभाव दिखाते हैं। आइए, विस्तार से हम आहार-विहार पर विचार करें। हममें से अधिकांश व्यक्ति अपने दांतों से कब्र खोदते हैं। अपने भोजन को ऐसा अप्राकृतिक बना लेते हैं कि पेट में एक पंसारी की दुकान बन सकती है। हमने भोजन क्षुधा निवारण के लिए नहीं, स्वाद के लिए नाना प्रकार की मिठाइयों, चटनियों, अचार, स्वादिष्ट चूरन, तले हुए पदार्थ, अभक्ष्य पदार्थों का भी उपयोग प्रारंभ कर दिया है। हमारे सामने छप्पन प्रकार के भोजनों से भरा हुआ थाल आता है और हम भूखे न होने पर भी केवल जिह्वा के स्वाद से प्रेरित होकर ठूंस-ठूंसकर खाते हैं। बनावटी रसों तथा स्वादों के प्रयोग सभ्य जगत में चल रहे हैं। इनके मोह में पड़कर मनुष्य प्राकृतिक रसों तथा स्वाद को विस्मृत करता जा रहा है। बड़े शहरों में हलवाइयों, मिठाई वालों, अचार, मुरब्बे वालों ने नए-नए मिश्रणों से भिन्न-भिन्न वस्तुएं तैयार की हैं। चाय, बीड़ी, सिगरेट, तंबाकू, सुपारी के बड़े-बडे़ कारखाने और सजी हुई दुकानें वृहत संख्या में दृष्टिगोचर होती हैं। फल और तरकारियों को भी इस प्रकार बनाया जाता है और इतने मसाले-खटाई इत्यादि भर दी जाती हैं कि उनका मूल स्वाद विकृत हो जाता है। खाते समय यह बात हमारे ध्यान में नहीं रहती कि हम जिस सब्जी को खा रहे हैं, उसके विटामिन तो गलत ढंग से पकाए जाने के कारण प्रायः नष्ट ही हो गए हैं।


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