फैकल्टी अभाव में मेडिकल कालेज

By: Feb 1st, 2017 12:01 am

चिकित्सा व शिक्षा को राजनीतिक तिजोरियों में भरने की हमेशा से हिमाचल में प्रतियोगिता रही है और इसी आधार पर विभिन्न सरकारों ने खुद को साबित किया। हम राजनीति के इस पहलू को नकार नहीं सकते, फिर भी जिस मुकाम पर घोषणाओं के रथ खड़े हैं, वहां कुछ फैसले शिक्षाविदों या विषय विशेषज्ञों के अनुभव पर छोड़ने होंगे, वरना इमारतों के भीतर लक्ष्यों के खंडहर बनते देर नहीं लगेगी। हम कालेज या मेडिकल कालेज खोल सकते हैं, लेकिन उसे प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थान तभी बना पाएंगे, जब फैकल्टी का आधार मुकम्मल होगा। नेरचौक मेडिकल कालेज के बुनियादी सवालों में सबसे अहम है उपयुक्त फैकल्टी का चयन। इसे विडंबना कहेंगे कि जिस आशा के साथ दिल्ली में फैकल्टी को खोजा गया, वहां महज दो ही लोगों ने सहमति दी, जबकि शुरुआती दौर में ही कम से कम आठ प्रोफेसर या एसोसिएट प्रोफेसर चाहिएं। ऐसे में हम एम्स के भविष्य में फैकल्टी की रुचि का पूर्व आकलन कर सकते हैं। आश्चर्य यह कि राजनीतिक सोच ऐसे संस्थानों की मिट्टी पलीद करने में लगी है और यह इसलिए भी कि नीतियों व नियमों में अस्पष्टता रही है। पहले आईजीएमसी व टीएमसी के बीच काडर को लेकर जो खाई रही है, कमोबेश उसी अनुभव से सबक नहीं लिया। यानी आज दिल्ली में नेरचौक मेडिकल चौक को फैकल्टी चाहिए, तो कल इसी कतार में अन्य कई कालेज खड़े होंगे। बेशक मेडिकल विश्वविद्यालय बनाने की कोशिशों को सरकार अपनी प्राथमिकता दिखा रही है, लेकिन सबसे बड़ा सवाल तो योग्यता के आधार पर उच्च दक्षता प्राप्त फैकल्टी को आकर्षित करना। काडर की भूल भुलैया में कोई अनुभवी व्यक्ति हिमाचल क्यों आए। दूसरी ओर नीतियों की कंगाली का आलम यह कि हिमाचल के वरिष्ठ व अनुभवी डाक्टरों के प्रति राज्य का न कोई सरोकार और न ही अनुराग रहा है, लिहाजा बड़ी तादाद में पलायन हुआ और जारी है। डाक्टर नियुक्तियों के वर्तमान फार्मूले के तहत जो पैकेज प्रदेश सरकार बांट रही है, उस आधार पर तो हिमाचल से निकलने वाले चिकित्सकों के लिए पड़ोसी राज्यों के सरकारी या निजी अस्पतालों का रुख करना बेहतर साबित हो रहा है। इसे विडंबना ही कहेंगे कि पीजीआई, एम्स, दिल्ली-पंजाब व हरियाणा के तमाम सरकारी, अर्द्धसरकारी या निजी अस्पतालों व मेडिकल कालेजों की श्रेष्ठता में हिमाचली डाक्टरों का योगदान है, लेकिन अपने ही राज्य में इनका स्वागत नहीं है। इतना ही नहीं, जो हिमाचली भूले-भटके या अपने सरोकार की बदौलत टांडा मेडिकल कालेज में आए  भी, उन्हें थक-हार कर रुखसत होना पड़ा। ऐसे में कसूर यह नहीं कि दिल्ली में नेरचौक मेडिकल कालेज को फैकल्टी नहीं मिली, बल्कि उस आधार का है जहां सियासी नगाड़े बजाने के अलावा मूल प्रश्नों का उत्तर नहीं ढूंढा गया। नेरचौक मेडिकल कालेज के भविष्य के साथ एम्स स्तर के संस्थान की स्थापना की चुनौती व प्रासंगिकता का सवाल मुंह बाये खड़ा है। यह इसलिए कि अगर नेरचौक मेडिकल कालेज की अपेक्षाओं में फैकल्टी का टोटा है, तो एम्स के स्तर की रखवाली कैसे होगी। क्या मौजूदा स्वरूप में एम्स स्थापना पर इन प्रश्नों का हल आवश्यक नहीं हो जाता। चंडीगढ़ से मात्र दो घंटे की यात्रा और नेरचौक मेडिकल कालेज से चंद किलोमीटर दूर जिस स्थान को एम्स के लिए सुनिश्चित किया है, उस पर पुनर्विचार करना होगा, वरना फैकल्टी व अपने औचित्य के अभाव में आने वाली पीढि़यां इसे भी कोसेंगी। कुछ इसी तरह जिन पलकों पर पांवटा साहिब के पास आईआईएम को बैठाने की कोशिश की है, उस पर भी सवाल पूछे जाएंगे और जिस केंद्रीय विश्वविद्यालय की बुनियाद में राजनीतिक आधार खोजा जाता रहा है, उसकी विफलता भी सामने है। जाहिर है हिमाचल में संस्थानों के औचित्य को राजनीति ने अपने कब्जे में करके इनकी भ्रूण हत्या जैसा काम किया है। ऐसे में नेरचौक मेडिकल कालेज की प्रतिष्ठा के साथ एम्स की जमीन को राज्य के केंद्र में ऐसे स्थल पर यकीनी बनाएं, जहां फैकल्टी और मरीजों को सुविधा हो। नेरचौक मेडिकल कालेज अगर प्रतिष्ठित होता है, तो लाहुल-स्पीति, मंडी, कुल्लू, बिलासपुर और साथ लगते हमीरपुर को फायदा होगा और इसी तर्ज पर अगर एम्स को ऊना या हमीरपुर के आसपास जगह मिले तो संस्थान की अहमियत को चार चांद लगेंगे। बेहतर होगा सरकारें उच्च स्तरीय संस्थानों की वकालत में दक्ष विशेषज्ञों, अनुभवी शिक्षाविदों और प्रदेश के यथार्थ को हमेशा प्राथमिकता दें, वरना बड़ी इमारतों के समूह के भीतर कितने ही मेडिकल कालेज, विश्वविद्यालय, महाविद्यालय या अनुसंस्थान केंद्र दम घुटने से मृत प्रायः रहेंगे।


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App