बजट में कितने अच्छे दिन

By: Feb 2nd, 2017 12:02 am

मोदी सरकार का चौथा बजट लोकसभा में पेश किया जा चुका है। पहली बार आम बजट के साथ रेल बजट के प्रस्ताव भी रखे गए हैं। ऐसा 1924 के बाद हुआ है। अलबत्ता 1924 से 2016 तक रेल बजट अलग से ही पेश करने की परंपरा रही है। बहरहाल हम यह विमर्श नहीं करेंगे कि नीति आयोग ने ऐसी सिफारिश क्यों की? चूंकि इस बार से बजट भी ऑनलाइन कर दिया गया है, लिहाजा आकलन के लिए कुछ समय जरूर चाहिए। संसद में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने आर्थिक सर्वे पेश किया है, जो हमारी कुल अर्थव्यवस्था का आईना है और भविष्य का एक संकेतक भी। इस बजट के साथ ही मोदी सरकार अपने कार्यकाल के तीन साल पूरे करने के करीब भी बढ़ रही है। देश के बजट का चेहरा कैसा है? हमारी विकास दरें तो बढ़ रही हैं, लेकिन नौकरियों की कंगाली क्यों है? औद्योगिक विकास दर 5.2 फीसदी बढ़ी है, लेकिन वित्त मंत्री ने सर्वे में उसके घटने का अनुमान क्यों लगाया है? मुद्रास्फीति नियंत्रण में है, फिर भी बाजारों में उपभोक्ता की मांग कम क्यों है? कृषि विकास दर 1.6 से बढ़कर 4 फीसदी को भी लांघ रही है, लेकिन किसान भूखा, कर्जदार और गरीब क्यों है? सड़कों पर सैकड़ों किलो टमाटर फेंकना क्यों पड़ा है? दरअसल देश के आम आदमी के लिए वह बजट कब आएगा, जिसे सरकार और उसके समर्थक नहीं, बल्कि आम नागरिक खुलकर ‘अच्छे दिनों’ का बजट करार देगा? बेशक रसोई गैस, चीनी, घर, होम लोन, बैंक की ब्याज दरें आदि में रियायतों के संकेत हैं। आर्थिक सर्वे में ‘यूनिवर्सल बेसिक इन्कम’ की व्यवस्था की सिफारिश की गई है, लिहाजा बजट में यह प्रावधान भी तय है कि सरकार प्रत्येक नौकरीपेशा व्यक्ति का वेतन बुनियादी तौर पर ‘फिक्स्ड’ करना चाहती है। यह एक बेहतर शुरुआत हो सकती है। लेकिन अभी तक गतिरोध कहां हैं कि मोदी सरकार के बजट को ‘अच्छे दिन’ का बजट नहीं माना जा रहा है? सरकार ने दिव्यांगों को चार फीसदी आरक्षण देते हुए छह लाख नौकरियां देने का वादा किया है। ऐसा लक्ष्य सरकार ने शुरुआत में ही तय किया था कि हरेक साल दो करोड़ नौकरियां दी जाएंगी। अब प्रधानमंत्री मोदी को ही साफ करना पड़ेगा कि ऐसा क्यों नहीं हो पा रहा है? और जो नौकरियां मुहैया कराई जा रही हैं, वे ‘ऊंट के मुंह में जीरा’ समान हैं। बहरहाल यह नोटबंदी के बाद का पहला बजट है। सरकार ने सर्वे में कबूल किया है कि जीडीपी, कृषि, रोजगार पर नोटबंदी के असर पड़े हैं। सरकार ने यह भी कबूल किया है कि अप्रैल तक नकदी की किल्लत समाप्त हो सकती है, लेकिन नोटबंदी के बावजूद सर्वे और बजट में जीडीपी की विकास दर 6.75 से 7.5 फीसदी के बीच रहने का अनुमान लगाया गया है। 2016-17 में भी विकास दर करीब 7.1 रही है। यदि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष का आकलन है कि भारत की विकास दर 6.5 फीसदी के करीब रह सकती है, तो वित्त मंत्री को खुलासा करना चाहिए कि इस विरोधाभास के मायने क्या हैं? सर्वे में दर्ज है कि हमारा विदेशी मुद्रा भंडार 15.5 अरब डालर बढ़ा है और विदेशी कर्ज 0.8 अरब डालर कम हुआ है, लेकिन विदेशी वित्तीय कंपनियां हमारे बाजार और उद्योगों से अपना निवेश वापस क्यों ले रही हैं? यह ऐसा नाजुक सवाल है, जो हमारी वैश्विक समृद्धि से जुड़ा है और ‘अच्छे दिनों’ का मंच भी तैयार करता है। बहरहाल सर्वे में माना गया है कि नोटबंदी का असर रियल एस्टेट पर बहुत पड़ा है, नतीजतन उसकी हालत खराब है। मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रह्मण्यम का कहना है कि नोटबंदी का मकसद रियल एस्टेट की कीमतों को उचित स्तर पर लाना भी था, जो काला धन और बेहिसाबी धन के निवेश के कारण लगातार चढ़ रहा था। अब मकानों की कीमतें और भी सस्ती होंगी। बजट से सॉफ्ट डिं्रक्स, गहने, कपड़े, सिगरेट आदि महंगे होंगे, इनका आम आदमी की जीवन-शैली पर बहुत असर नहीं पड़ेगा, लेकिन बुनियादी चिंता और सरोकार यह है कि जो नौजवान कालेज और यूनिवर्सिटी से डिग्रियां लेकर निकल रहे हैं, उन्हें उचित नौकरी कब तक मिलेगी? यदि वे लंबे समय तक खाली हाथ रहेंगे, तो नक्सली या आंदोलनकारी अथवा प्रदर्शनकारी, पत्थरबाज बन सकते हैं। मोदी को प्रधानमंत्री पद तक लाने में इस ताकत का बड़ा योगदान रहा है। अब बजट का गंभीर आकलन करने के बाद ही विश्लेषण करेंगे कि इस दिशा में मोदी सरकार ने क्या प्रयास किए हैं।


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