यूपी चुनाव में सेकुलरिज्म का स्वांग

By: Feb 24th, 2017 12:05 am

प्रो. एनके सिंह

प्रो. एनके सिंह लेखक, एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया के पूर्व चेयरमैन हैं

पश्चिम बंगाल में किसी मुस्लिम कार्यक्रम के लिए पूजा-पाठ को रोक देना इस बात का संकेत है कि देश में सामान व्यवहार की जरूरत को नए सिरे से परिभाषित किया जाना चाहिए। निश्चय ही सेकुलरिज्म का ढोंग करने वाले दलों के मुंह पर यह एक करारा तमाचा है, जो खुद सांप्रदायिकता के एजेंडे पर सवार होकर दूसरों पर सांप्रदायिकता का आरोप लगाते फिरते हैं। अगर सेकुलरिज्म शब्द केवल हिंदुत्व विरोधी का ही संकेत करता है, तो इसकी परिभाषा को अब बदलने की जरूरत है…

कमोबेश हर सियासी दल छत पर चढ़कर ढिंढोरा पीटता है कि वह न तो सांप्रदायिक है और न ही वह किसी जाति या मजहब से उन्हें वोट देने का आह्वान करता है। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि जो लोकतंत्र बहुमत के आधार पर चलता है, उसमें अल्पसंख्यकों के एकमुश्त वोट बैंक का एक जबरदस्त प्रभाव रहा है। नए संदर्भों में इस शब्द के अर्थ में व्यापक बदलाव हुआ है। मैंने चुनावी माहौल को भांपने के लिए उत्तर प्रदेश के अंदरूनी इलाकों में बनारस-सुल्तानपुर से लेकर आजमगढ़ तक की यात्रा की। इस दौरान मैंने पाया कि विभिन्न राजनीतिक दलों को रह-रहकर मुस्लिम वोटों की बात सता रही थी या दलित-यादव वोटों के आकलन राजनीतिक पंडितों की गणनाओं पर हावी  थे। चुनावी मौसम के इस पूरे परिदृश्य में सबसे ज्यादा हताशा उन लोगों के हाथ लगी है, जो संवैधानिक मूल्यों की परवाह करते हैं। भारतीय संविधान के 42वें संशोधन में सेकुलरिज्म की व्याख्या में कहा गया था, ‘राज्य द्वारा सभी धर्मों के प्रति समान व्यवहार’। इसके अलावा न तो संविधान और न ही कानून में राज्य व धर्म के बीच के संबंध को परिभाषित किया है। कई मर्तबा तो ऐसा भी मान लिया जाता है कि इसके निर्माताओं ने संविधान को संशयवादी या नास्तिक भावना के अनुरूप बनाया है, लेकिन आरक्षण के विषय को छोड़कर देश में किसी के साथ भी विशेष व्यवहार का कोई प्रावधान नहीं है। अभी हाल ही में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने मजहब, जाति, संप्रदाय या भाषा के आधार पर वोट मांगने पर प्रतिबंध लगा दिया था। हालांकि इसमें यह निर्धारित नहीं किया गया था कि राजनीतिक दल इस आधार पर टिकटों का बंटवारा नहीं कर सकते। नतीजा यह होता है कि संविधान या उच्चतम न्यायालय चाहे कुछ भी कहें, जमीन पर राजनीतिक पार्टियों द्वारा किए जाने वाले टिकट वितरण में इसका कोई खास असर नहीं दिखता।

राजनीतिक दल चाहे लाख दावा करते हों कि वे सांप्रदायिक आधार पर वोट नहीं मांगते, लेकिन उनके उम्मीदवार इसे स्पष्ट कर देते हैं। उत्तर प्रदेश में मैंने एक स्पष्ट सांप्रदायिक बयार बहती हुई देखी और इस दौरान किसी को भी सेकुलरिज्म की कोई परवाह नहीं रही।  जो राजनीतिक दल दूसरों पर अब तक इस अपराध का इल्जाम लगाते रहे हैं, असल में वही सबसे ज्यादा सांप्रदायिक रंगों में रंगे हुए हैं। इस सूची में सबसे ऊपर शामिल नेताओं में मुलायम सिंह यादव हैं, जो हाल ही में यह जिद पकड़कर अपने बेटे से लड़े कि मुस्लिम वोटों के ही कारण उनकी पार्टी जीती थी और कांग्रेस को हार झेलनी पड़ी थी। अब उनका मानना था कि कांग्रेस के साथ सपा के गठबंधन के कारण मुस्लिम वोट बैंक कांग्रेस के पाले में सरक जाएगा। साफ देखा जा सकता है कि राज्य की सारी सियासत मुस्लिम, यादव या दलित वोटों के पीछे हाथ धोकर पड़ी हुई है। मैंने राज्य के जिस भी शहर या ग्रामीण इलाके में लोगों के साथ चुनावी रुझान जानने की कोशिश की, हर कोई मुस्लिम वोटों की चिंता में डूबा हुआ था। मुसलमान अपने समुदाय के लोगों से अपील कर रहे थे कि उन्हें राष्ट्रीय हित के बजाय भाजपा को हराने की खातिर संगठित होना होगा। गौरतलब है कि ये भाजपा को सांप्रदायिक मानते रहे हैं। इस सांप्रदायिक कार्ड के खेल में इनका नेतृत्व समाजवादी पार्टी के हाथों में है, जो सांप्रदायिक भारतीय जनता पार्टी को सत्ता में आने से रोकने का दावा करती है। इसके लिए समाजवादी पार्टी यादवों को अपने नियंत्रण में लेने के बाद मुस्लिम वोट हासिल करने के लिए प्रयासरत है। भाजपा इस बात को लेकर आश्वस्त है कि हर दल मुस्लिम वोटों को अपने पक्ष में करने के लिए जोर लगा रहा है और इस खींचतान में निश्चित तौर पर मुस्लिम वोट विभिन्न दलों में बंटेंगे। इस मत विभाजन का अंततः भाजपा को ही लाभ मिलेगा। मायावती जहां दलित समाज की रानी होने का दंभ भरती हैं, वहीं मुस्लिम वोट बैंक पर भी दावा जताती रही हैं। कांग्रेस का भी ऐसा अनुमान रहा है कि शेष भारत की ही तरह उत्तर प्रदेश में भी वोट बैंक उन्हें विरासत में मिला है। हालांकि मौजूदा हालात में कांग्रेस की वहां कोई महत्त्वपूर्ण स्थिति नहीं है, फिर भी यह राज्य में दूसरे दलों का खेल बिगाड़ सकती है।

अखिलेश यादव ने कांग्रेस को अपने साथ जोड़कर इस अनिश्चित जोखिम को टालने की कोशिश की है। दुर्भाग्यवश इसकी भारी कीमत समाजवादी पार्टी को चुकानी पड़ सकती है, क्योंकि सीटों के बंटवारे के दौरान कांग्रेस को उसकी क्षमता से भी ज्यादा सीटें देनी पड़ी हैं। अब अगर चुनावी नतीजों में कांग्रेस को ज्यादा सीटों पर हार झेलनी पड़ती है, तो इसका नकारात्मक असर गठबंधन पर भी पड़ सकता है। भाजपा बिहार विधानसभा चुनावों की गलतियों से बचने का प्रयास कर रही है और नए चेहरों को सामने लाने की प्रक्रिया में उसे पुराने मठाधीशों के प्रतिरोध का भी सामना करना पड़ रहा है। संभवतः मोदी ने भी उत्तर प्रदेश के चुनावी प्रचार अभियान के दौरान अपने विरोधियों पर जोरदार और तीखे प्रहार किए हैं। हालांकि मोदी को असंयमित भाषा के इस्तेमाल से बचना चाहिए, क्योंकि जब वह जनता में गरीबी को हटाने या भ्रष्टाचार पर प्रहार की बात करते हैं, तो इसका एक जबरदस्त असर पड़ता है। बेशक नोटबंदी का फैसला चुनावों में कुछ हद तक भाजपा की मुश्किलों को बढ़ा सकता है, लेकिन इसका कोई ज्यादा असर नहीं पड़ेगा, क्योंकि नोटबंदी को लेकर जितने भी सर्वेक्षण हुए हैं, उनमें जनता मोदी के साथ दिखी है। तीसरे चरण के मतदान के आते-आते उन्होंने सभी पंथों के प्रति सम्मान की बात कही, जो कि उन्हें चुनावों के शुरुआती वक्त में ही कह देनी चाहिए थी। पश्चिम बंगाल में किसी मुस्लिम कार्यक्रम के लिए पूजा-पाठ को रोक देना इस बात का संकेत है कि देश में सामान व्यवहार की जरूरत को नए सिरे से परिभाषित किया जाना चाहिए। निश्चय ही सेकुलरिज्म का ढोंग करने वाले दलों के मुंह पर यह एक करारा तमाचा है, जो खुद सांप्रदायिकता के एजेंडे पर सवार होकर दूसरों पर सांप्रदायिकता का आरोप लगाते फिरते हैं। अगर सेकुलरिज्म शब्द केवल हिंदुत्व विरोधी का ही संकेत करता है, तो इसकी परिभाषा को अब बदलने की जरूरत है। इसके साफ संकेत हैं कि आने वाले चुनाव के परिणामों का एक बड़ा हिस्सा मोदी के ही पक्ष में होगा।

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