रोपें शिष्टाचार की आदत

By: Feb 11th, 2017 12:05 am

व्यवहार संबंधी आवश्यक बातों की शिक्षा देते हुए यदि बालकों का पालन किया जाए, तो कोई कारण नहीं कि वह व्यवहार-कुशल न बन जाएं। प्रारंभ से ही बालकों में इसकी चेतना का विकास किया जाना चाहिए, जिससे वे स्वतंत्र व्यवहार करने की आयु तक पहुंचते-पहुंचते दक्षता प्राप्त कर लें। जिन बालकों में इन बातों का विकास प्रारंभ से नहीं किया जाए, वे बालक उस आयु तक दक्षता प्राप्त न कर सकेंगे, जिसमें पहुंचकर उनका कोई भी व्यवहार महत्त्व रखता है और अच्छा या बुरा कहा जा सकता है। बालक जब कुछ समझदार होने लगें, व्यवहार संबंधी प्रशिक्षण तभी से शुरू कर दिया जाना चाहिए। सबसे पहले उन्हें परिवार के सदस्यों का परिचय कराया जाना चाहिए और उसी के अनुसार उनसे व्यवहार का अभ्यास। यह माता है, वह पिता है, यह बड़ी बहन है, यह बड़े भाई आदि बतलाते हुए भी बतलाना चाहिए कि उनके चरण छूना, उनके प्रति आदर रखना, उनकी आज्ञा मानना उनका परम कर्त्तव्य है। जो अपने से बड़े हैं, शिष्ट और अच्छे बच्चे उनसे तुम नहीं आप कहकर बोलते  हैं, उनसे गुस्सा नहीं करते और न कभी उनका तिरस्कार करते हैं। इसका अभ्यास कराने के लिए जब भी इनमें से किसी को बुलवाएं या उसे उनके पास किसी काम से भेजें, जब कभी भी ऐसा निर्देश न दिया जाना चाहिए, जिससे उनमें अनादर का भाव पैदा होने की संभावना रहे। जैसे ‘मुनिया को बुला लाओ’, ‘विमलेश को आवाज देना’ या ‘देखना, अम्मा क्या करती है?’ कहने की बजाय यह कहना चाहिए कि  अपनी दादी जी को बुला लाइए, अपने  बड़े भाई साहब या दादा जी को आवाज दीजिए। जरा देखकर आइए कि आपकी माता जी क्या कर रही हैं? कहने का तात्पर्य यह है कि इस प्रकार निर्देश देने से उसमें उस समय अदब की भावना ताजी हो उठेगी और वह उन्हीं शब्दों में उनसे बोलेगा। क्योंकि बालकों के प्रारंभिक शब्द और संबोधन परिजनों एवं गुरुजनों के प्रति ही दिए होते हैं। इस प्रकार हर समय इस बात का ध्यान रखने से कुछ ही समय में बालक गुरुजनों से आदरपूर्वक व्यवहार करना सीख जाएगा। व्यवहार में वार्तालाप का एक प्रमुख स्थान है। जिन बालकों को शुरू में ही शब्द और स्वर के सौंदर्य का अभ्यास करा दिया जाता है, वे आगे चलकर बड़े मधुर और उपयुक्त भाषी हो जाते हैं। शब्द का गलत उच्चारण करना, स्वर को अनावश्यक रूप से ऊंचा-नीचा करके बोलना अथवा वाक्यों को पूर्ण और ठीक न बोलना, संभाषण का आकर्षण समाप्त कर देता है, जिससे दूसरों को उनकी बात न समझ में ठीक में आती है और न वे पसंद ही करते हैं। अस्तु, शब्द, स्वर और वाक्य विन्यास ठीक रखने के लिए उसे बहुत पहले से प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। संभाषण में नम्रता तथा देश, काल और संबंध का विशेष ध्यान रखना चाहिए, किंतु जिस भाषण में सत्यता का समावेश नहीं है, वह नम्र और संयत होने पर भी अच्छा नहीं  है। इससे बालक दूसरे की नजर में झूठा, गप्पी और अविश्वस्त हो जाता है और समाज में उसका आदर नहीं होता है। इस प्रकार जो बालक विनिमय, वार्तालाप, संबंध और सामंजस्य के ज्ञान से परिपूर्ण कर दिए जाते हैं, वे निःसंदेह व्यवहार कुशल होकर समाज में अच्छे नागरिक बनकर अपना निश्चित स्थान प्राप्त कर लेते हैं।


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