लौट कर भाजपा ‘राम’ पर !

By: Feb 8th, 2017 12:05 am

राम मंदिर पर विश्लेषण शुरू करने से पहले कुछ पुराने चुनावों के भाजपाई घोषणा-पत्र खंगाल लिए जाएं। 1996 और 1998 के घोषणा-पत्रों में पृष्ठ दो पर अयोध्या में भव्य राम मंदिर निर्माण का वादा किया गया था। तब भाजपा पहली बार लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी थी। अटल बिहारी वाजपेयी 13 दिन के प्रधानमंत्री भी बने थे। 1998 में कारगिल युद्ध के कारण देश के हालात विस्फोटक और भावुक थे। मध्यावधि चुनाव हुए और नतीजतन 1999 में भी भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनी रही, लेकिन उस बार राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) ने आकार जरूर ग्रहण कर लिया। अटल बिहारी वाजपेयी फिर प्रधानमंत्री बने और पूरे पांच साल तक देश पर शासन किया। उस दौर में राम मंदिर कैसे याद आता? 2004 के चुनावों में ‘भारत उदय’ के प्रमुख मुद्दे के साथ-साथ राम मंदिर को फिर याद किया गया, लेकिन भाजपा और एनडीए की चुनावी पराजय हुई। उनके स्थान पर कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए की संरचना हुई, लिहाजा 2009 के चुनावों में भी भाजपा ने राम मंदिर के वादे को घोषणा-पत्र में स्थान दिया। 2014 का लोकसभा चुनाव नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री उम्मीदवार पेश कर लड़ा गया और वह प्रधानमंत्री बने भी। इस दौरान विकास का मुद्दा ज्यादा हवा में रहा है। 2009 और 2014 के लोकसभा चुनावों में एक बदलाव सामने आया कि घोषणा-पत्र में राम मंदिर का आश्वासन पृष्ठ दो से हटाकर अंतिम पृष्ठों की ओर धकेल दिया गया। राम मंदिर पर भाजपा भूलने या नजरअंदाज करने का आरोप नहीं झेल सकती थी, लिहाजा मुद्दे के तौर पर उसे स्थान मिलता रहा, लेकिन पार्टी और नेताओं की प्रतिबद्धताएं बदल चुकी थीं। फिलहाल हमने सभी लोकसभा चुनावों का उल्लेख किया है। बहरहाल इसे दुर्भाग्य कहें या विडंबना मानें कि जिस मुद्दे पर 1988 की पालमपुर भाजपा राष्ट्रीय कार्यकारिणी में प्रस्ताव पारित किया गया और 1989 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के मात्र दो सांसदों की संख्या छलांग लगाकर 86 सांसदों तक पहुंच गई, वह राम मंदिर एक मुद्दा ही बना रहा। कुछ अदालतों में यह विवाद भटकता रहा, लेकिन भाजपा की ओर से भव्य राम मंदिर निर्माण का कोई ठोस प्रयास नहीं किया गया। राम मंदिर की प्रतिबद्धता घोषणा-पत्र के पृष्ठ दो से फिसलकर आखिरी पन्नों तक जा पहुंची। चूंकि अब 2017 में उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव जारी हैं और भाजपा की स्थिति 2014 की तुलना में फीकी है, लिहाजा भाजपा फिर लौटकर ‘राम’ पर आ गई है। भाजपा नेता ‘राम, राम’ का राग अलापने लगे हैं और फिर आस्था की बात दोहराने लगे हैं। दरअसल साफ है कि राम मंदिर के नाम पर भाजपा ध्रुवीकरण चाहती है, हिंदू-मुसलमान विभाजन के हालात पैदा करना चाहती है, ताकि चुनावी फायदा हो सके। लेकिन यह मुद्दा सर्वोच्च न्यायालय के विचाराधीन है। भाजपा राम मंदिर के साथ-साथ मुस्लिमों के ‘तीन तलाक’ के जरिए सांप्रदायिकता का बड़ा खेल भी खेलना चाहती है। हालांकि इस मुद्दे पर मोदी सरकार ने बीती आठ अक्तूबर को शीर्ष अदालत में अपना पक्ष रखते हुए ‘तीन तलाक’ की अमानवीय प्रथा को समाप्त करने की पैरवी की थी, लेकिन फिर भी उत्तर प्रदेश और अन्य राज्यों में चुनावों के दौरान केंद्रीय कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने यह बयान क्यों दिया कि सरकार चुनावों के बाद ‘तीन तलाक’ पर फैसला लेगी? यह बयान अपने आप में सांप्रदायिकता और ध्रुवीकरण का सूचक है। मोदी सरकार ‘तीन तलाक’ को पुराने शाहबानो प्रकरण सरीखा नहीं बनाना चाहती। इस मुद्दे को वह और भाजपा महिला सम्मान, बराबरी, सशक्तिकरण से जोड़कर देख रही है। अखिलेश यादव, राहुल गांधी और मायावती की लंबी खामोशी स्वाभाविक है, क्योंकि उनकी निगाह ‘मुसलमान वोट’ पर है। कुछ भी बयान देने से वे वोट बिदक सकते हैं, लेकिन सुप्रीम कोर्ट में यह केस ‘मुस्लिम महिला आंदोलन’ की औरतों ने ही डाला है। साफ है कि मुस्लिम महिलाएं भी इस मुद्दे पर इनसाफ चाहती हैं। दिलचस्प है कि ‘तीन तलाक’ पाकिस्तान, बांग्लादेश सरीखे 22 इस्लामिक देशों में प्रतिबंधित है, लेकिन भारत में क्यों जारी है, यह मुस्लिम कठमुल्ले ही बता सकते हैं।


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