सेना के खिलाफ राजनीतिक आतंकवाद

By: Feb 25th, 2017 12:05 am

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

लेखक, वरिष्ठ स्तंभकार हैं

जैसे-जैसे कश्मीर घाटी में सुरक्षा बलों और आतंकवादियों में लड़ाई तेज होती हुई एक निर्णायक मोड़ पर पहुंच रही है, वैसे-वैसे कश्मीरी युवा के नाम की आड़ में, आतंकियों से सहानुभूति रखने वाले सामने आने को विवश हो रहे हैं। इससे सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि कश्मीर घाटी में आज तक आतंकवादियों का दबदबा कैसे बना रहा। विपक्ष, खासकर सोनिया कांग्रेस को कश्मीर घाटी में आतंकवाद की आड़ में राजनीति नहीं करनी चाहिए और सेना को अपने राजनीतिक फायदे के लिए निशाना नहीं बनाया जाना चाहिए…

जम्मू-कश्मीर तीन दशकों से भी ज्यादा समय से आतंकवादियों की चपेट में है। यह आतंकवाद पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित है, इसमें भी कोई संशय नहीं है। सुरक्षाबलों पर हमला करने के लिए आतंकवादी अपनी रणनीति बनाते हैं, ताकि वे उन्हें ज्यादा से ज्यादा नुकसान पहुंचा सकें। इस रणनीति में सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण है सुरक्षा बलों पर चोरी-छिपे घात लगाकर आक्रमण करना। यही कारण है कि अनेक बार ऐसे हमलों में आतंकवादियों के बजाय सुरक्षाबलों के जवानों को ज्यादा नुकसान होता है। इधर आतंकवादियों ने अपनी रणनीति में एक नया इजाफा किया है। अपने छिपने या हमला करने के आसपास वे अपनी पत्थर फेंक पलटन के लोगों को भी तैयार रखते हैं। आतंकवादी गिरोहों ने कश्मीर घाटी में जगह-जगह पत्थर फेंक पलटनें तैयार की हैं, जिनका बहुविधि इस्तेमाल किया जाता है। इन्हें इस्लाम के लिए पैसा दिया जाता है। वैसे भी पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद में पैसा बहुत ही महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। प्रदेश में आतंकवादी गिरोहों ने पत्थर फेंक पलटनों में भर्ती के लिए बाकायदा कुछ लोगों की नियुक्ति की हुई है। वे प्रदेश के युवकों को आतंकवादी गिरोहों में शामिल हो जाने के लिए उनकी विविध तरीकों से घेराबंदी करते हैं।पत्थर  फेंक पलटनों में काम करने के लिए ऐसे नौजवानों को घेरते हैं, जो घर-बार छोड़कर इन गिरोहों में शामिल नहीं हो सकते। जबकि कश्मीर घाटी के किसी आवासीय इलाके में सुरक्षाबल आतंकवादियों को घेर लेते हैं तो उस इलाके की पत्थर फेंक पलटन को आतंकवादी आसपास तैनात कर देते हैं। इस्लाम के लिए उस इलाके के स्लीपिंग सैल का प्रयोग किया जाता है। स्लीपिंग सैल में ऐसे लोग होते हैं, जो ऊपर से अपने रोजमर्रा के कामकाज में ही लगे होते हैं। इसलिए वे कभी शक के घेरे में नहीं आते। ये सैल अपने अपने इलाके में आतंकवादी गिरोहों को लोजिस्टिक सपोर्ट मुहैया करवाते हैं। इस प्रकार किसी भी आतंकवादी तंजीम का काम तरने का तरीका त्रि आवृत्तयी है। सबसे पहला घेरा स्लीपिंग सैलों यानी एसएस का, दूसरा घेरा पत्थर फेंक पलटनों यानी पीपीपी का और इन दो घेरों के अंदर आतंकवादी लड़के। एसएस और पीपीपी को आधार बना कर आतंकवादी गिरोह सुरक्षा बलों का मुकाबला करते हैं।

यदि इस प्रकार की मुठभेड़ों में एसएस और पीपीपी के लोग मारे जाते हैं, तो कश्मीर घाटी का मीडिया तुरंत उन्हें सिविलियन बताना शुरू कर देता है और सुरक्षाबलों के हाथों निर्दोष कश्मीरियों के मारे जाने का ढोल पीटना शुरू कर देता है। आतंकवादी गिरोहों को इस बात की कोई चिंता नहीं होती कि मुठभेड़ में इस प्रकार के तथाकथित सिविलियन कितने मारे जाते हैं। जितने ज्यादा मरते हैं, प्रचार युद्ध में उन्हें इसका उतना ही ज्यादा मनोवैज्ञानिक लाभ मिलता है। इसके विपरीत सुरक्षाबलों की रणनीति की अपनी सीमाएं हैं। सुरक्षाबल यदि कश्मीर घाटी के किसी आवासीय इलाके में आतंकवादियों को घेर लेते हैं, तो अमूमन वे लाउडस्पीकरों से उन्हें आत्मसमर्पण के लिए कहते हैं और इसका अवसर भी प्रदान करते हैं। सुरक्षाबलों की रणनीति अपराधी को पकड़ने की ही रहती है, अपराधी चाहे आतंकवादी ही क्यों न हो, ताकि न्याय के लिए उन्हें कानून के आगे प्रस्तुत किया जा सके। यह सुरक्षाबलों की रणनीति की सीमा होती है, इसके कारण कई बार उनका ज्यादा नुकसान भी होता है। अनुशासित सुरक्षाबल होने के कारण उन्हें यह नुकसान उठाना ही होता है, लेकिन पिछले कुछ अरसे से घिर जाने की स्थिति में आतंकवादी गिरोहों ने मुठभेड़ के अवसर पर अपनी रणनीति में परिवर्तन किया है, जिसका संकेत ऊपर दिया गया है। सुरक्षाबलों से मुठभेड़ के अवसर पर पीपीपी के रंगरूटों को भी उस स्थान पर बुला लिया जाता है। ये रंगरूट सुरक्षाबलों पर पत्थर चलाने की भूमिका निभाते हैं। अंतर केवल इतना ही होता है कि आतंकवादी किसी मकान में छिप कर सुरक्षाबलों पर गोलियां चलाते हैं और पीपीपी के रंगरूट खुले में ही सुरक्षाबलों पर पत्थर चलाते हैं। आतंकवादियों और पीपीपी के रंगरूटों की इस संयुक्त रणनीति के कारण सुरक्षाबलों को खासा नुकसान उठाना पड़ रहा है। इस सबके बावजूद सेनाध्यक्ष बिपिन रावत ने किसी भी कार्रवाई से पहले पीपीपी के रंगरूटों को चेतावनी देना ही बेहतर समझा। उन्होंने चेतावनी देते हुए कहा कि जब आतंकवादियों और सुरक्षाबलों की मुठभेड़ होती है, उस समय पत्थर फेंकने वालों, पाकिस्तान और आईएसआईएस के झंडे फहराने वालों को भी छिपे हुए आतंकवादियों का साथी ही समझा जाएगा और उन पर उसी प्रकार की कार्रवाई की जाएगी। रावत का तर्क मानवीय दृष्टि से बिलकुल ठीक कहा जाएगा। जब गोलियां चला रहे आतंकवादियों को सुरक्षा बल समर्पण करने का एक मौका देते हैं और मुठभेड़ से पहले चेतावनी भी देते हैं, तो पीपीपी के रंगरूटों को, जो पत्थर ही फेंकते हैं, को चेतावनी का एक अवसर क्यों न दिया जाए? कोई और देश होता तो सेनाध्यक्ष की इस पहल की प्रशंसा की जाती, लेकिन यहां उल्टा हो रहा है। नेशनल कान्फ्रेंस के अब्दुल्ला परिवार ने रावत की इस चेतावनी का बहुत विरोध किया है। फारूक और उमर दोनों बहुत गुस्से में हैं। उनका कहना है कि कश्मीरी नौजवानों को मारने की कोशिश की जा रही है।

उनको इस प्रकार डराया नहीं जा सकता। उनसे प्यार से बातचीत करनी चाहिए। अब्दुल्ला परिवार नहीं समझ रहा कि प्यार के कारण ही चेतावनी दी जा रही है, अन्यथा सेना के प्रशिक्षण में चेतावनी नहीं, बल्कि अचानक धावा बोलने को सही रणनीति माना जाता है। लेकिन अब्दुल्ला परिवार का कश्मीरी युवा से कुछ लेना-देना नहीं है। उन्हें किसी भी हालत में राज्य की सत्ता वापस चाहिए। यही कारण ही कि सत्ता की छटपटाहट में वे हुर्रियत कान्फ्रेंस में सिमट गए हैं और प्रदेश के युवाओं को हुर्रियत के साथ काम करने की अपील कर रहे हैं। सभी जानते हैं कि हुर्रियत कान्फ्रेंस मोटे तौर पर आतंकवादियों की ओवरग्राउंड ब्रिगेड के तौर पर काम कर रही है। असली आश्चर्य तो सोनिया कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और सोनिया गांधी के बहुत नजदीक़ी गुलाम नवी आजाद के माध्यम से सामने आई कांग्रेस की रणनीति को लेकर हो रहा है। गुलाम नबी आजाद कुछ समय के लिए जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री भी रह चुके हैं और आजकल राज्य सभा में विपक्ष के नेता हैं। उन्होंने कहा कि सेनाध्यक्ष द्वारा कश्मीरी नौजवानों को इस प्रकार धमकाने की नीति को किसी लिहाज से भी जायज नहीं ठहराया जा सकता। जैसे-जैसे कश्मीर घाटी में सुरक्षा बलों और आतंकवादियों में लड़ाई तेज होती जा रही है और एक निर्णायक मोड़ पर पहुंच रही है, वैसे-वैसे कश्मीरी युवा के नाम की आड़ में, उनसे सहानुभूति रखने वाले सामने आने को विवश हो रहे हैं। इससे सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि कश्मीर घाटी में आज तक आतंकवादियों का दबदबा कैसे बना रहा। विपक्ष, खासकर सोनिया कांग्रेस को कश्मीर घाटी में आतंकवाद की आड़ में राजनीति नहीं करनी चाहिए और सेना को अपने राजनीतिक फायदे के लिए निशाना नहीं बनाया जाना चाहिए।

ई-मेल : kuldeepagnihotri@gmail.com


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