हिमाचली पुरुषार्थ
बिना खनन के खनिज खोजते रवि आनंद
हिमाचल प्रदेश जिला कांगड़ा के परौर निवासी साइंटिस्ट रवि आनंद की जीवन यात्रा जैसे-जैसे मिट्टी का स्पर्श करती गई, वैसे-वैसे उस पर अनुभवों की सुनहरी परत चढ़ती गई…
हिमाचल के परौर से आस्ट्रेलिया के पर्थ तक हिमाचली वैज्ञानिक ने एकबारगी जो सोना ‘उगलना’ शुरू किया, तो न सिर्फ आस्ट्रेलिया बल्कि सात समंदर पार के दर्जन भर देशों का भविष्य भी सुनहरी कर दिया। सभी जानते हैं, मिट्टी में सोना है। मगर सोना अगर पेड़-पौधों पर उग आए तो उसे पहचानने वाली वो आंख (शोध) भी तो चाहिए। भारत के इस वैज्ञानिक ने इसी शोध के जरिए आस्ट्रेलिया का चप्पा-चप्पा छाना और वहां सुनहरी खानों से रू-ब-रू होते गए। हिमाचल प्रदेश जिला कांगड़ा के परौर निवासी साइंटिस्ट रवि आनंद की जीवन यात्रा जैसे-जैसे मिट्टी का स्पर्श करती गई, वैसे-वैसे उस पर अनुभवों की सुनहरी परत चढ़ती गई। सरकारी स्कूल परौर में 10वीं की परीक्षा पास की तो उसके बाद न कोई दिशा थी न सही दशा। परिजनों को नजदीकी संस्थान एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी पालमपुर सही जमा और रवि आनंद वहीं पर बगैर एग्रीकल्चर स्नातक शिक्षण हेतु चले गए। वर्ष 1972 में ही उन्होंने भविष्य की सुनहरी नींव रख दी। उसके उपरांत उन्होंने पंजाब एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी लुधियाना का रुख किया और वहां मृदा विज्ञान में परास्नातक कोर्स में दाखिला ले लिया। कोर्स के उपरांत वह वापस आए और पालमपुर कृषि विश्वविद्यालय में बतौर प्रवक्ता अध्यापन कार्य में जुट गए। मगर मन में एक सपना था, जो बड़ा आकार ले रहा था। उनकी चल रही कोशिश रंग लाई और उन्हें उच्च अध्ययन के लिए आस्ट्रेलिया में स्कॉलरशिप मिल गया। रवि आनंद ने फिर आस्ट्रेलिया के बेहतरीन विश्वविद्यालयों में से एक यूनिवर्सिटी ऑफ वेस्टर्न आस्ट्रेलिया पर्थ में दाखिला ले लिया। अध्ययन शोध का यह कार्य वर्ष 1984 में शुरू हुआ और करीब तीन साल में ही उन्हें डाक्टर ऑफ जियो केमिस्ट्री की उपाधि वहां की वेस्टर्न यूनिवर्सिटी ने दी। इसी दौरान वह वहां अध्यापन कार्य में जुटे रहे। आस्ट्रेलिया की सरकार ने अपने इस होनहार मृदा वैज्ञानिक को प्रोत्साहित किया और वह सीएसआईआरओ यानी कॉमन वैल्थ साइंटिफिक इंडस्ट्रियल रिसर्च आर्गेनाइजेशन से जुड़ गए। 1987 का ही यह वर्ष था कि उन्हें सीएसआईआरओ ने बतौर चीफ सॉयल साइंटिस्ट नियुक्त किया। ज्ञात रहे कि उपरोक्त संस्थान आस्ट्रेलिया सरकार का वह प्रतिष्ठित संस्थान है जो देश भर के खनिज भंडारों की खोज करता है। इस बेहद जटिल मुहिम का जिम्मा इस भारतीय वैज्ञानिक के कंधों पर है। रवि आनंद के अधीन वहां वैज्ञानिकों की एक टीम है। यह टीम न सिर्फ आस्ट्रेलिया बल्कि केन्या तथा अफ्रीकन देशों में भी खनिज की खोज करती है। खोज के लिए वे वहां की मिट्टी व पौधों से ही जानकारी प्राप्त करते हैं कि कहां किस खनिज का कितना भंडार है। मसलन सफेदे का पेड़ धरती के भीतर खनिज होने का सबसे बड़ा संकेतक है। इसकी जड़ें जमीन में करीब 60 फुट गहराई तक पानी की तलाश में जाती हैं और पत्तों पर प्रदर्शित करती हैं कि जमीन में कौन-सा खनिज भरा पड़ा है। फिर प्रयोगशाला में इन पत्तों पर शोध कर मात्रा का पता चलता है। तत्पश्चात वहां उत्खनन कार्य चलाए जाते हैं। इस तरह बेवजह ड्रिलिंग इत्यादि के खर्च भी बचाए जाते हैं। इसी प्रकार प्रो. आनंद के अनुसार आस्ट्रेलिया में पाई जाने वाली लटरइट नामक मिट्टी भी खनिजों की खोज में महत्ती भूमिका निभाती है। बहरहाल प्रो. आनंद को इन तमाम शोध तथा खोज के चलते उन्हें आस्ट्रेलिया की संस्था इंटरनेशनल एसोसिएशन ऑफ एप्लाइड साइंसेज की ओर से जियो केमिस्ट-2015 का गोल्ड मेडल प्रदान कर सम्मानित किया गया।
– ओंकार सिंह, मटौर
जब रू-ब-रू हुए…
रहन-सहन, खान-पान और बातचीत आज भी पहाड़ी ही है…
आस्ट्रेलिया और भारत में शोध कार्यों में क्या अंतर है?
शोध के पैमाने बेशक एक जैसे हों, मगर भारत में शोध को औद्योगिक रूप से व्यवहार में नहीं लाया जाता। रिसर्च को अप्लाई करना दो अलग-अलग बाते हैं।
आस्ट्रेलिया और भारत की कार्य संस्कृति में क्या अंतर देखते हैं?
वहां खुलापन है। जो जितना परफार्म करेगा, उसे उसी हिसाब से प्रोत्साहन मिलता है। यहां सुविधाओं की हमेशा कमी खलती है, लिहाजा शोध सपना बन जाता है।
यहां और वहां शोध की परिणीति क्या है?
आस्ट्रेलिया में शोध संस्थानों के पीछे दर्जनों कंपनियां पीछे भागती हैं, इंडिया में ऐसी कंपनियां ढूंढे भी नहीं मिलतीं।
भारत सरकार से क्या चाहते हैं?
चाहता हूं भारत सरकार बुलाए ताकि इस अमूल्य योगदान को देशहित में समर्पित कर सकूं।
खुद को कितना भारतीय समझते हैं?
पूर्ण रूपेण। कुछ नहीं बदला। वही रीति-रिवाज, वही खट्टा मदरा और होली- दिवाली। सिर्फ शरीर आस्ट्रेलिया में है, आत्मा तो हिंदोस्तान में ही बसती है।
और हिमाचल की माटी?
जहां तक हिमाचल की माटी का संबंध है, यहां की रॉक्स अभी यंग हैं। हिमाचल प्रदेश में खनिज की खोज करना ज्यादा फायदेमंद नहीं लगता है।
हिमाचल छोड़े आपको तीन दशक हो गए, क्या परिवर्तन देखते हैं?
हिमाचल की जनरेशन सही दिशा में दिखाई देती है। प्रोग्रेस और पर्चेजिंग पावर से तस्वीर पहले से बदली हुई नजर आती है। मगर कार्य संस्कृति में पेशेवर नजरिया भी बढ़ाना होगा।
आपके अपने विश्वविद्यालय पालमपुर को कौन से नए विषय जोड़ने चाहिए? या अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में इस संस्थान को क्या करना होगा?
कृषि विश्वविद्यालय पालमपुर से मेरा संबंध 30 साल पहले जरूर रहा, लेकिन इतने अरसे में काफी कुछ बदला होगा। बेशक यहां विषय बढ़े होंगे और पाठ्यक्रम भी, पर जब तक सोच बहु-उद्देश्यीय नहीं होती, तब तक इन चीजों से प्रगति संभव नहीं। विदेशों की बात करें, तो वहां विविध विषयों पर शोध जारी हैं और उन्हें व्यावहारिक रूप दिया जा रहा है।
क्या आप समझते हैं कि भारत से अभी भी ‘ब्रेन ड्रेन’ हो रहा है? भारतीय क्षमता का मूल्यांकन किस तरह बेहतर होगा?
‘ब्रेन ड्रेन’ रोकने का सबसे कारगर तरीका है प्रोत्साहन और सुविधाएं। भारत एक क्षमताओं से भरा देश है।
जो आस्ट्रेलिया में संभव नहीं केवल भारत में ही मिलेगा?
आस्ट्रेलिया से भारत की तुलना करें, तो यहां कोई भी ढांचा खड़ा करना आसान भी है और सस्ता भी। भारत की सबसे बड़ी क्षमता इसकी ‘मैन पावर’ है।
आस्ट्रेलिया में आप कितने हिमाचली और किस तरह जुड़े रहते हैं?
आस्ट्रेलिया में भी पूरी तरह रूह से हिमाचली हूं। वही रहन-सहन, सादा खान-पान और पहाड़ी में बतियाना।
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