विपक्षी दलों में बढ़ती कुंठा
(लेखक, एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया के पूर्व चेयरमैन हैं)
कांग्रेस ने चुनावों को लेकर जो बड़े-बड़े सपने देख रखे थे, पंजाब को छोड़कर वे हर कहीं चूर-चूर हो गए। राहुल गांधी भी कांग्रेस को मिली हार की जिम्मेदारी लेने के लिए आगे नहीं आए और हमेशा की तरह इसका ठीकरा संबंधित राज्यों के प्रबंधकों पर फोड़ दिया गया। किसी भी नेता की यह सबसे बड़ी गलती मानी जाएगी कि वह पराजय का दोष कार्यकर्ताओं पर मढ़ दे और खुद उसकी जिम्मेदारी लेने से बचे। ऐसी प्रतिक्रियाएं संगठन और काडर के मनोबल को तोड़ने का काम करती हैं…
पंजाब और गोवा में ‘आप’ तथा कांग्रेस को पारिवारिक विरासत में हासिल हुए गढ़ में ही करारी शिकस्त मिलने के बाद यह समझना आसान होगा कि विपक्ष किस हद तक कमजोर पड़ चुका है। इससे यह भी प्रतीत होता है कि मोदी अपने ‘कांग्रेस मुक्त’ और ‘मोदीयुक्त’ भारत के लक्ष्य की ओर तेजी से बढ़ रहे हैं। हैरानी यह कि विपक्ष के जो पढ़े-लिखे और समझदार नेता हैं, वे भी किसी तार्किक एजेंडे या रणनीति के तहत काम करने के बजाय मोदी की राह में बाधाएं पैदा करने के लिए नकारात्मक राजनीति को अंजाम देने में डटे हुए हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि किसी भी लोकतंत्र में विपक्ष की एक अहम भूमिका होती है। लेकिन अपनी इच्छाओं को पूरा करने हेतु संसद को बिना किसी विवेकशील और राष्ट्रीय हित के कार्यक्रम के बंधक बना देने के बजाय इसे एक अर्थपूर्ण रणनीति बनाकर उसमें प्रांसगिक विचारों को स्थान देते हुए आगे बढ़ना चाहिए।
इस कॉलम के जरिए हम चुनावी नतीजे घोषित होने के पहले ही स्पष्ट तौर पर लिख चुके थे कि यूपी विधानसभा में भाजपा के सबसे अधिक विधायक चुनकर आएंगे। अंतिम परिणाम सामने आने से पहले किसी ने अपेक्षा भी नहीं की थी कि भाजपा को इतना प्रचंड जनादेश मिलेगा। बहुत से राजनीतिक पंडितों ने तो बाकायदा घोषणा कर रखी थी कि उत्तर प्रदेश में त्रिशंकु विधानसभा बनेगी। कइयों ने तो भाजपा के विरोध में ऐसी भी थ्योरियां पेश कर दीं कि इसे ‘बिहार जैसी’ हार का सामना करना पड़ सकता है। हद तो तब हो गई जब एग्जिट पोल में भी स्पष्ट हो चुका था कि उत्तर प्रदेश में भाजपा बढ़त बनाकर चल रही है, तो एक बड़े राष्ट्रीय समाचार-पत्र ने पहले पन्ने पर शीर्षक दिया था, ‘क्या उत्तर प्रदेश में त्रिशंकु विधानसभा बनेगी?’ तथाकथित बुद्धिजीवियों की जमात इस मान्यता की शिकार है कि वाम और अल्पसंख्यक वोट बैंक से ही शासन का रास्ता निकलता है। इस रोग से पीडि़त बड़े-बड़े पत्रकार और नेता अपनी पूर्व धारणाओं को तोड़ नहीं सके। मीडिया के महत्त्वपूर्ण समय को जाति या मजहब के समीकरणों के निरर्थक विश्लेषण के लिए गंवाया गया। वे सत्ता के प्रभाव से पैदा होने वाले भ्रम तले जी रहे थे और फिर अपने विश्लेषण भी उसी के अनुकूल किए।
कुछ मामलों को छोड़ दें, तो ये लोग अभी तक मोदी को कोसने के लिए खुद की बनाई कैद से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं। इन तमाम विरोधियों की परवाह किए बगैर नरेंद्र मोदी अपने मूलमंत्र ‘सबका साथ, सबका विकास’ के साथ लगातार आगे बढ़ते रहे। अंततः विधानसभा चुनावों में भाजपा को प्रचंड बहुमत मिला, जिसकी अपेक्षा खुद पार्टी ने भी नहीं की थी। जिन पांच राज्यों में विधानसभा के लिए चुनाव हुए, उनमें से से चार की कमान मोदी के हाथों में है और यहीं से मोदी को मिशन रिपीट-2019 की शुरुआत भी कर देनी चाहिए। इस चुनावी संघर्ष के बाद विपक्षी दलों के सामने भी एक बड़ी चुनौती रहेगी, जो अब तक अपनी एक समन्वित कार्य पद्धति तैयार करने में विफल रहे हैं।
गोवा और मणिपुर में तो कांग्रेस को अपनी राजनीतिक विफलताओं के ही कारण मात खानी पड़ी, क्योंकि सरकार गठन के लिए अनुकूल परिस्थितियां होने के बावजूद कांग्रेस सरकार बनाने के लिए दावा पेश करने के बजाय मोदी और उनके समर्थकों के साथ ही उलझी रही। गोवा कांग्रेस के भीतर रणतीतिक स्तर पर आपस में कई असहमतियां व्याप्त थीं और इस कशमकश में जब सत्ता उसके हाथों से सरक कर गई, तो इसने भाजपा पर सत्ता खरीदने के आरोप मढ़ने शुरू कर दिए। यह सरासर बेतुकी प्रक्रिया था, जिसे उच्चतम न्यायालय ने भी सही नहीं माना। परिणामस्वरूप जब सदन में शक्ति परीक्षण हुआ, तो दोनों ही राज्यों में भाजपा ने बहुमत साबित कर दिया। कांग्रेस ने चुनावों को लेकर जो बड़े-बड़े सपने देख रखे थे, पंजाब को छोड़कर वे हर कहीं चूर-चूर हो गए। राहुल गांधी भी कांग्रेस को मिली हार की जिम्मेदारी लेने के लिए आगे नहीं आए और हमेशा की तरह इसका ठीकरा संबंधित राज्यों के प्रबंधकों पर फोड़ दिया गया। किसी भी नेता की यह सबसे बड़ी गलती मानी जाएगी कि वह पराजय का दोष कार्यकर्ताओं पर मढ़ दे और खुद उसकी जिम्मेदारी लेने से बचे। ऐसी प्रतिक्रियाएं संगठन और काडर के मनोबल को तोड़ने का काम करती हैं, जो खुद विपरीत परिस्थितियों में भी जमीनी स्तर पर जी तोड़ मेहनत करते हैं। कहना न होगा कि पार्टी की हार का कारण बस इतना सा है कि इन्हें ऐसा नेतृत्व ही नहीं मिल पाता, जो उनमें जीत हासिल करने का जोश भर सके।
पंजाब में कांग्रेस को मिली जीत की बात करें, तो यहां भी यह पार्टी नेतृत्व के बजाय राज्य में कैप्टन अमरेंदर सिंह के व्यक्तिगत जलवे के बलबूते नसीब हुई है। जब शह और मात के इस राजनीतिक खेल में कांग्रेस अपना सब कुछ लुटा चुकी थी, तो इसने बचकाने और अशिष्ट अंदाज में विधवा विलाप शुरू कर दिया। उत्तर प्रदेश में भाजपा को सत्ता से दूर रखने की खातिर कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और बसपा ने आपसी गठबंधन की भी तैयारी कर ली थी। इससे पता चलता है कि कांग्रेस में जो कुंठा पैदा हो चुकी है, उसका कोई अंत ही नहीं है। अंततः जब चुनावी नतीजे सामने आए, तो इसे पिछले चुनावों से भी कम सीटें मिलीं और अपने पुश्तैनी गढ़ अमेठी में भी नुकसान ही झेलना पड़ा। हैरानी यह कि इतना कुछ हो जाने के बाद भी पार्टी जमीनी यथार्थ को नजरअंदाज करते हुए उन्माद से ग्रस्त किसी व्यक्ति की ही तरह सच्चाई स्वीकार करने से कतरा रही है। हैरत इस बात की है कि पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी कांग्रेस की इस पिटाई को भी छोटा-मोटा नुकसान बता रहे हैं। कांग्रेस का एक समृद्ध इतिहास रहा है और इसमें फिर से उठ-खड़े होने की पूरी क्षमता है, लेकिन सवाल फिर वही कि पार्टी को नया जीवन देने के लिए नेतृत्व कौन संभालेगा। तेजी से बदलते सियासी परिदृश्य में जो पार्टी की कार्य पद्धति है और जैसे-जैसे पार्टी नेता बयान दे रहे हैं, तो इसकी फिलहाल कोई बड़ी उम्मीद नजर नहीं आती।
इस संदर्भ में सबसे बुरी प्रतिक्रिया बड़बोले मणिशंकर अय्यर की तरफ से आई, जिन्होंने सभी विपक्षी पार्टियों से आह्वान किया कि वे मोदी के खिलाफ एकजुट हो जाएं। इनकी सलाह मोदी के खिलाफ महागठबंधन खड़ा करने की है। पार्टी को मजबूत करने या जनता तक प्रभावी पहुंच बनाने के बजाय वह मोदी के खिलाफ घृणित अभियान छेड़ने के काल्पनिक सागर में डुबकी लगा रहे हैं। इस अभियान में कांग्रेस पार्टी ने आम आदमी पार्टी के साथ खड़े होकर उन्हीं ईवीएम पर सवाल दागने शुरू कर दिए, जिन्होंने पार्टी को पंजाब में सत्ता सौंपी। जिस वजह से आम आदमी पार्टी को इन चुनावों में बड़ी त्रासदी झेलनी पड़ी, उसका पार्टी नेता ने कहीं कोई जिक्र करना भी जरूरी नहीं समझा। शुरू में तो उन्होंने जनता के जनादेश को स्वीकार करने की घोषणा की और उसके थोड़े ही वक्त बाद पलटी मारकर उन्होंने उन उपकरणों को हार का कसूरवार ठहरा दिया, जिनकी वजह से जिल्ली में उन्हें बड़ी जीत मिली थी। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जब पहली बार ईवीएम प्रणाली को अपनाया गया था, तब वाजपेयी सरकार को हार झेलनी पड़ी थी। भारत में ही निर्मित इन मशीनों की भारत की खोज होने के कारण तब खूब जय जयकार हुई थी। आज तक हर पार्टी इन मशीनों के मार्फत जीत और हार का अनुभव कर चुकी है।
अब जबकि अंतिम परिणाम हमारे सामने हैं, तो पुरानी लीक को पीटने से कोई बड़ा लाभ नहीं होने वाला। बेहतर होगा कि सभी विरोधी दल मोदी भय से बाहर आकर एक दीर्घकालीन दृष्टि और पूरी ताकत के साथ दोबारा उनके खिलाफ खड़े होकर उनका सामना करें। पराजय इतनी रिक्ति पैदा कर सकती है, जो उन्हें लोगों से जुड़ने और संगठन को खड़ा करने के लिए पर्याप्त समय दे सकती है।
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