असहिष्णुता की वर्ग मंडली

By: Mar 4th, 2017 12:07 am

newsडा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

(लेखक, वरिष्ठ स्तंभकार हैं)

परशुराम की धरती केरल में पिछले अनेक सालों से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता साम्यवादी हिंसा के शिकार हो रहे हैं। यह असहिष्णुता केरल की धरती पर देखी जा रही है, जहां से कभी आदि शंकराचार्य शास्त्रार्थ का अस्त्र लेकर निकले थे, लेकिन इन साम्यवादियों के लिए तर्क व शास्त्रार्थ बेमानी है। उनके पास तर्क का जबाव गोली है। इन गोलियों से संघ के न जाने कितने नौजवान लहूलुहान हो चुके हैं। सीपीएम के साथ जब केरल की मुस्लिम लीग भी शामिल हो जाती है, तो असहिष्णुता का पारा थर्मामीटर तोड़ने लगता है। राष्ट्रपति ने ठीक समय पर यह प्रश्न उठाया है…

राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने सही कहा है कि इस देश में असहिष्णुता के लिए कोई जगह नहीं है। दरअसल, यही भारत की मूल सांस्कृतिक धारा है। चिंतन की जितनी स्वतंत्रता भारत भूमि में उपलब्ध है, उतनी दुनिया में अन्यत्र कहीं भी संभव नहीं है। यही कारण है कि भारत में दर्शन शास्त्र की अनेक धाराएं और उपधाराएं विकसित हो सकीं। दर्शन शास्त्र की ये धाराएं जरूरी नहीं कि एक-दूसरे की पूरक हों। ये परस्पर विरोधी भी हो सकती हैं। लेकिन स्थापित मत के विरोध में सोचने वाले का इस धरा पर सम्मान ही हुआ है। यह भारत ही है, जिसमें नाना प्रकार के पंथ, संप्रदाय पनप और विकसित हो सके।

इसके विपरीत अब्राहमी रिलीजन या संप्रदाय अपनी मूल प्रकृति में ही साम्राज्यवादी हैं। वे अपने रास्ते को ही अंतिम और एकमात्र रास्ता मानते हैं। ईश्वर संबंधी धारणाओं की बात तो बहुत दूर, वे रिलीजन या मजहब द्वारा हजारों साल पहले निर्धारित समाज व्यवस्था और धारणाओं में रत्ती भर भी परिवर्तन करने को तैयार नहीं हैं। इन अब्राहमी मजहबों में कुछ साल पहले एक नया मजहब शामिल हुआ है, जिसे साम्यवाद या मार्क्सवाद के नाम से जाना जाता है। यह मजहब स्वभाव और प्रकृति में अब्राहमी है, लेकिन इसे ईश्वर, अल्लाह पर विश्वास नहीं है। यह संसार की भौतिक व्याख्या करता है और चेतना की गुत्थियों में यह नहीं उलझता। संसार के विकास के लिए यह ईश्वर की भूमिका को स्वीकार नहीं करता, बल्कि वर्ग संघर्ष का नृत्य करता हुआ यह आगे बढ़ता है। यह अलग बात है कि इसके आगे बढ़ने में लाखों या करोड़ों लोग मार दिए जाते हैं। लोगों को मारना भी, इस मजहब की दृष्टि में संसार की गाथा के विकास के मर्म को समझ पाने के लिए जरूरी है। पश्चिम में इस मजहब के प्रणेता कार्ल मार्क्स माने जाते हैं। वे जर्मनी के रहने वाले थे। शेष दो अब्राहमी रिलीजन यरुशलम के आसपास ही विकसित हुए थे। भारत में इस मजहब का प्रचार-प्रसार 1925 के आसपास शुरू हो गया था। असहिष्णुता इस मजहब का भी मूल स्वभाव है। विरोधी चिंतन को ही नहीं, विरोधी को ही मार देने की इस मजहब की प्रकृति है। चीन और रूस इसका गवाह हैं।

इन देशों में क्रांति के नाम पर करोड़ों लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया। खूबी यह है कि यह हत्याएं भी बड़े-बड़े सिद्धांतों के नाम पर की जाती हैं। जैसे चीन में माओ ने सांस्कृतिक क्रांति के नाम पर कुछ वर्षों के भीतर ही करोड़ों लोगों को मौत के घाट उतार दिया। थ्यानमेन चौक की घटना तो अभी कल की घटना है, जो यह बताती है कि साम्यवादी देशों में विरोधों को कैसे कुचला जाता है। हैरत की बात यह कि इस पंथ को मानने वाले भारत में अभिव्यक्ति की आजादी के सबसे बड़े पैरोकार बनने की कोशिश कर रहे हैं। उनकी यह कोशिश इसलिए भी हास्यास्पद है, क्योंकि जब भारत में आपातकाल लागू कर अभिव्यक्ति की आजादी का गला घोंटा गया, तो यह वर्ग उसका सबसे बड़ा समर्थक था। कहीं-कहीं तो इसके समर्थन में खून से पत्र लिखे गए थे। अभिव्यक्ति की आजादी के घोंटने में शामिल इस वर्ग को ईनाम-इकराम भी खूब मिला। जब ऐसे लोग नैतिकता और स्वतंत्रता की दुहाई देते हैं, उसके नाम पर हिंसा फैलाते हैं तो देश इनके आडंबर पर हंसता भी है और आक्रोशित भी होता है।

भारत में इस मजहब का प्रवेश 1925 के आसपास हुआ था। तेलंगाना में 1947 में सशस्त्र क्रांति के नाम पर साम्यवाद के शिष्यों ने कासिम रजवी के साथ ही जोड़ी बना ली थी। इस जोड़ी ने वर्ग संघर्ष के नाम पर अनेक लोगों को मौत के घाट उतार दिया था। चीन के साथ युद्ध के दौरान इनकी भूमिका को देखकर पूरा देश स्तब्ध रह गया था। इस युद्ध के संदर्भ में यह मंडली अब भी यह स्थापित करने की कोशिश करती है कि युद्ध चीन ने नहीं बल्कि भारत ने छेड़ा था, चीन बेचारा तो महज अपना बचाव कर रहा था।

इस दौरान देश ने पहली बार इसी मंडली की निष्ठाओं को परखा था और वास्तविक रूप सामने आते ही आम जनता का इनके प्रति आकर्षण भी खत्म होना शुरू हो गया।  पश्चिमी बंगाल में लगभग तीन दशकों तक साम्यवादियों का कब्जा रहा और वह काल अभी भी बंगाल में आतंककाल ही माना जाता है। नक्सलवाद और माओवाद के नाम पर देश के अनेक हिस्सों में इस मजहब के धारणों बेगुनाहों को निर्दयता से मारा ही नहीं, बल्कि अभी भी मार रहे हैं। केरल एक लंबे अरसे से साम्यवादियों की प्रयोगशाला बना हुआ है। साम्यवादियों का एक ही नारा है, जो साम्यवाद की विचारधारा को नहीं मानता, वह वर्ग दुश्मन है। वर्ग दुश्मन को मार कर ही सत्ता के मंच तक पहुंचा जा सकता है और सत्ता प्राप्त करने के बाद भी वर्ग दुश्मन को मारा जा सकता है। केवल इतना ही है कि कार्ल मार्क्स ने तो शोषण करने वाले पूंजीपतियों को वर्ग दुश्मन माना था, लेकिन साम्यवाद के भारतीय अवतारों ने वैचारिक मतभेद वालों को भी वर्ग दुश्मन की श्रेणी में रख दिया है। यही कारण है कि परशुराम की धरती केरल में पिछले अनेक सालों से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता साम्यवादी हिंसा के शिकार हो रहे हैं। यह असहिष्णुता केरल की धरती पर देखी जा रही है, जहां से कभी आदि शंकराचार्य शास्त्रार्थ का अस्त्र लेकर निकले थे, लेकिन इन साम्यवादियों के लिए तर्क व शास्त्रार्थ बेमानी है। उनके पास तर्क का जबाव गोली है। इन गोलियों से संघ के न जाने कितने नौजवान लहूलुहान हो चुके हैं।

सीपीएम के साथ जब केरल की मुस्लिम लीग भी शामिल हो जाती है, तो असहिष्णुता का पारा थर्मामीटर तोड़ने लगता है। संघ के स्वयंसेवकों को स्कूल में घुस कर, घर में घुस कर, भरे बाजार में, सार्वजनिक स्थानों पर मारा जा रहा है। यह करुण कहानी अनेक साल से चल रही है। हाल ही में जब सीपीएम ने पुनः तिरुवनंतपुरम पर कब्जा कर लिया है, तो ये हमले और तेज हो गए हैं। पुलिस मूक दर्शक बनी हुई है। केरल परशुराम की धरती है, आदि शंकराचार्य की धरती है। वहां असहिष्णुता देर तक टिक नहीं सकती। राष्ट्रपति ने ठीक समय पर यह प्रश्न उठाया है। यह ठीक है कि उनकी चिंता शिक्षा संस्थानों को लेकर थी, लेकिन उसका विस्तार बंगाल से लेकर केरल तक में देखा जा सकता है।

ई-मेल – kuldeepagnihotri@gmail.com


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