आत्महत्या और जीवनचर्या

By: Mar 25th, 2017 12:05 am

मानवजाति के सर्वनाश के लिए ही शराब की उत्पत्ति हुई है और वह इस पर तुली हुई है। शराब और व्यभिचार में गाढ़ी मित्रता है। जहां-जहां शराब है, वहां-वहां व्यभिचार भी जरूर होता है। शराब पीते ही नीति-अनीति की भावना तथा आत्मसंयम धूल में मिल जाता है और स्त्री-पुरुष ऐसी-ऐसी कुचेष्टाएं करने लगते हैं, जो अच्छी हालत में वे स्वप्न में भी न करते। अफीम और तंबाकू बदन के रक्त को सुखा डालते हैं, मंदाग्नि उत्पन्न करते हैं। अफीम से बालक तक निःसत्व हो जाते हैं…

आधुनिक युग में मरने वाले व्यक्तियों की संख्या निरंतर वृद्धि पर है। मनुष्य अल्पायु होता जा रहा है। आज का जीवन इतना अप्राकृतिक हो चला है कि उससे आयु क्षीण होती जा रही है। जीवन तो अक्षय है, उसका उत्तरोत्तर विकास हो सकता है, किंतु हम स्वयं अपनी गलतियों और मूर्खताओं से जीवन रज्जु को काट देते हैं। अल्पायु होने का प्रधान कारण है-‘समय से पूर्व’ अपनी शक्तियों का अपव्यय करना।’ं शक्तियां यदि उसी अनुपात में बढ़ती रहें, जिस अनुपात में व्यय होती हैं, तब स्वास्थ्य बना रह सकता है, किंतु यदि उन्हें फिजूल खर्च किया जाए, तो कब तक जीवन रह सकता है? शक्तियों का अपव्यय हम अनेक विधियों से करते हैं। कितने खेद का विषय है कि लोग जानते तक नहीं कि वे शक्तियों का अपव्यय कर रहे हैं और वे लगातार मूर्खता भरे अंधकार में अपना सर्वनाश किया करते हें। जीवनी शक्ति का अपव्यय मुख्यतया निम्न प्रकार से होता है-

वीर्यपात की अधिकता- अनियमित आहार-विहार से आयु क्षीण होना निश्चित है। वीर्य ही शक्ति है, जीवन धन है। एक बार व्यय हो जाने पर वह बाजार में खरीदा नहीं जा सकता। संपूर्ण शरीर जब पूरी तरह कार्य करता है, तब 40 ग्रास आहार से एक बूंद रक्त और 40 बूंद रक्त से एक बूंद वीर्य होता है। वैज्ञानिकों का मत है कि दो तोला वीर्य के लिए सेर रक्त और एक सेर रक्त के लिए एक मन आहार की आवश्यकता है। आज हम जो भोजन करते हैं, उसका वीर्य बनने में पूरा एक महीना लग जाता है। अब विचारिए कि इस बहुमूल्य जीवन तत्त्व का अपव्यय भला कैसे पूरा हो सकता है? इसी के अधीन मनुष्य की संपूर्ण शारीरिक और मानसिक शक्तियां बल, बुद्धि, आयु रहती हैं। व्यभिचारी पुरुष क्षणिक सुख के लोभ में आकर वीर्य नाश नाना विधियों से कर डालते हैं। यह एक प्रकार की आत्महत्या ही समझिए।

नशेखोरी – संसार में जितने मादक द्रव्य है, उनका शरीर पर बड़ा घातक प्रभाव पड़ता है। हम मानते हैं कि कभी-कभी दवाई के रूप में भी इनका उपयोग होता है, किंतु आजकल तो धड़ाधड़ मादक द्रव्यों का प्रचार बढ़ रहा है। मनुष्य बुद्धि शून्य होकर राक्षस बना दीखता है। शरीब को लीजिए। बुरी समझते हुए भी अनेक व्यक्तियों ने इसे अपना लिया है। संसार के डाक्टर आज इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि शराब का विष, न्यूमोनिया, विषम ज्वर, हैजा, लू और पेट, जिगर, गुर्दा, हृदय, रक्त वाहिनियां, स्नायु विकार तथा मस्तिष्क के कई रोगों का जनक है। शराब का उपयोग साधारण श्रमजीवी उत्तेजना के लिए करते हैं। उन्हें मालूम नहीं कि यह शरीर परमेश्वर का मंदिर है। इसमें परमेश्वर विराजते हैं। प्रकृति मनुष्य की माता भी है और गुरु भी। प्रकृति ने शरीर ही में ऐसी-ऐसी गुप्त शक्तियां भरी हैं कि उन्हें शराब जैसी उत्तेजक वस्तु की आवश्यकता नहीं पड़नी चाहिए। शराबखोरी विनाश है। श्री बैजनाथ महोदय ने लिखा है। शराब शक्ति को घटाती है, रोजी छूट जाती है, तो मनुष्य बाल बच्चों का पोषण नहीं कर पाता, गृह सौख्य का नाश हो जाता है। मानवजाति के सर्वनाश के लिए ही शराब की उत्पत्ति हुई है और वह इस पर तुली हुई है। शराब और व्यभिचार में गाढ़ी मित्रता है। जहां-जहां शराब है, वहां-वहां व्यभिचार भी जरूर होता है। शराब पीते ही नीति-अनीति की भावना तथा आत्मसंयम धूल में मिल जाता है और स्त्री-पुरुष ऐसी-ऐसी कुचेष्टाएं करने लगते हैं, जो अच्छी हालत में वे स्वप्न में भी न करते। अफीम और तंबाकू बदन के रक्त को सुखा डालते हैं, मंदाग्नि उत्पन्न करते हैं। अफीम से बालक तक निःसत्व हो जाते हैं। विशेषज्ञ पैहम लिखते हैं-‘नियमित रूप से अफीम का प्रयोग करने वाले व्यक्ति को नीचे लिखी बीमारियां हो जाती हैं-कब्ज, रक्त की कमी, मंदाग्नि, हृदय, फेफड़े और गुर्दों के रोग, स्नायुजन्य कमजोरी, फुर्तीलेपन का अभाव, आलस्य, निद्रालुता, चित्तभ्रम, नैतिक भावना की कमी, काम का भार आ पड़ने पर चीं बोल देना, नैतिक अविश्वास और अंत में मृत्यु।’ यदि हम व्यभिचार, नशा इत्यादि से अपने जीवन को मुक्त बनाए रखने में सफल रहते हैं तो आत्महत्या की बात ही मन में नहीं उठती। इसी स्थिति में व्यक्ति अपने जीवन में निहित संभावनाओं को प्रकट करने में सफल हो पाता है।


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