जल बंटवारे का भंवर

By: Mar 21st, 2017 12:07 am

newsडा. भरत झुनझुनवाला

(लेखक, आर्थिक विश्लेषक एवं टिप्पणीकार हैं)

राज्यों में जल बंटवारे संबंधी विवाद सुलझ नहीं पा रहे हैं, चूंकि अब तक राज्यों में पानी के न्यायपूर्ण वितरण का कोई भी समुचित सिद्धांत उपलब्ध ही नहीं है। इस समस्या का हल है कि पानी को राज्यों के बीच नीलाम किया जाए। जो राज्य पानी का सदुपयोग करेगा, उसका ऊंचा मूल्य देने को तैयार हो जाएगा। यदि राजस्थान एक लीटर पानी से दो रुपए का उत्पादन करता है और पंजाब उसी पानी से एक रुपए का उत्पादन करता है तो राजस्थान उस पानी का अधिक मूल्य देने को तैयार होगा…

राज्यों के बीच पानी के बंटवारे की समस्या हल होती नहीं दिख रही है। पंजाब एवं हरियाणा के बीच भाखड़ा के पानी एवं तमिलनाडु एवं कर्नाटक के बीच कावेरी के पानी को लेकर दशकों से विवाद जारी है। हाल में पटना में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने मांग की है कि गंगा के पानी में बिहार को हिस्सा मिलना चाहिए। वर्तमान में गंगा का पूरा पानी हरिद्वार एवं नरोरा में निकाल कर उत्तर प्रदेश के किसानों को दिया जाता है। बिहार को इसमें एक बाल्टी पानी का सिंचाई के लिए उपयोग करने का अधिकार नहीं है। पानी के ये विवाद सुलझ नहीं पा रहे हैं, चूंकि अब तक राज्यों में पानी के न्यायपूर्ण वितरण का कोई भी समुचित सिद्धांत उपलब्ध ही नहीं है।

देशों के बीच पानी का बंटवारा भी इसी प्रकार की समस्या प्रस्तुत करता है। संयुक्त राष्ट्र संगठन ने देशों के बीच पानी के बंटवारे को लेकर दो सिद्धांतों का प्रस्ताव जारी किया है। पहला सिद्धांत ‘न्याय’ का है, लेकिन ‘न्याय’ की परिभाषा करना कठिन है। पंजाब के लिए ‘न्याय’ है कि उसके किसानों को पिछले 50 वर्षों से मिल रहे पानी को न छीना जाए। हरियाणा के लिए ‘न्याय’ है कि भाखड़ा बांध से निकल रहे पानी में उसे हिस्सा मिले। इसलिए यह सिद्धांत कारगर नहीं है। यूएन द्वारा प्रस्तुत दूसरा सिद्धांत है कि दूसरे को विशेष हानि नहीं होनी चाहिए। यह सिद्धांत भी निष्प्रभावी है चूंकि ‘विशेष’ शब्द की परिभाषा व्यक्ति अपने हित के अनुसार करता है। जैसे पंजाब कहेगा कि पानी न मिले तो हरियाणा की विशेष हानि नहीं है। इसके विपरीत हरियाणा कहेगा कि पानी न मिलने से उसकी विशेष हानि है। पानी के बंटवारे के ये दोनों सिद्धांत निष्प्रभावी हैं।

पानी के बंटवारे का एक और संभावित आधार पारंपरिक अधिकार है। यूरोपियन सोसायटी ऑफ इंटरनेशनल लॉ ने एक पर्चे में कहा है कि ‘पानी के बंटवारे का मूल सिद्धांत परंपरा पर आधारित होता है।’ यह सिद्धांत भी टिकता नहीं है, चूंकि परिस्थितियां बदलती रहती हैं। जैसे परंपरा के अनुसार गंगा का अधिकतर पानी बांग्लादेश को जाता था। हूगली अकसर सूख जाती थी। हूगली के पेटे का स्तर गंगा से लगभग तीन मीटर ऊंचा है। इसलिए तीन मीटर से अधिक होने पर ही गंगा का पानी हूगली में जाता था। ऐसी स्थिति में हमने फरक्का बैराज बनाया और गंगा के पानी के एक हिस्से को हूगली में डाल दिया। परंपरा के अनुसार भारत का यह कदम ठीक नहीं था, परंतु भारत ताकतवर था, इसलिए बांग्लादेश ने चाहे-अनचाहे आधा पानी लेना स्वीकार किया। इसी प्रकार परंपरा को मानें तो हरियाणा को भाखड़ा के पानी के उपयोग का कोई अधिकार नहीं है। पानी के बंटवारे का एकमात्र सिद्धांत बाहुबल का है। लेकिन राज्यों के बीच का मामला बाहुबल से तय नहीं किया जा सकता, चूंकि सभी राज्य भारत सरकार के आधीन आते हैं और संपूर्ण बाहुबल भारत सरकार के पास है। अतः राज्यों के बीच पानी का बंटवारा घर के व्यापार का भाइयों के बीच बंटवारे सरीखा हो जाता है। इसमें घर के मुखिया की प्रमुख भूमिका रहती है। घर में दो बेटे हों तो उनमें जो कर्मठ एवं मेहनती है, उसे बड़ी दुकान सौंपी जाएगी और जो आलसी है उसे कम दिया जाएगा। कर्मठता का आकलन करने के लिए दुकानों को दोनों भाइयों के बीच नीलाम किया जा सकता है। नीलामी से मिली रकम को संपूर्ण परिवार के लिए उपयोग किया जा सकता है। इस सिद्धांत को केंद्र सरकार द्वारा राज्यों के बीच पानी के बंटवारे के लिए लागू किया जा सकता है।

पानी देश का संसाधन है। इसका उपयोग इस प्रकार किया जाना चाहिए कि संपूर्ण देश का हित हो। पानी की मांग मुख्यतः पीने, उद्योग एवं खेती के लिए उत्पन्न होती है। इनमें पीने के पानी को सर्वोच्च वरीयता दी जानी चाहिए, चूंकि यह हर नागरिक का मौलिक अधिकार है। शेष बचा पानी उद्योग एवं खेती के लिए दिया जा सकता है। शेष पानी को उस राज्य को अधिक दिया जा सकता है, जो कि इसका सदुपयोग करे एवं उस राज्य को कम दिया जाए जो इसका दुरुपयोग करे। जैसे यदि एक राज्य में नहरों का रखरखाव कमजोर है। पानी का भारी मात्रा में रिसाव होता है। किसानों को पानी मुफ्त दिया जाता है, जिससे वे उसका दुरुपयोग करते हैं, तो इस राज्य को पानी कम दिया जाना चाहिए। लेकिन राज्य द्वारा पानी का कितना सदुपयोग एवं कितना दुरुपयोग किया जाता है, इसका आकलन करना कठिन है। इस समस्या का हल है कि पानी को राज्यों के बीच नीलाम किया जाए। जो राज्य पानी का सदुपयोग करेगा, उसका ऊंचा मूल्य देने को तैयार हो जाएगा। यदि राजस्थान एक लीटर पानी से दो रुपए का उत्पादन करता है और पंजाब उसी पानी से एक रुपए का उत्पादन करता है तो राजस्थान उस पानी का अधिक मूल्य देने को तैयार होगा। इस प्रकार नीलामी से हम पानी को उस राज्य को उपलब्ध करा सकेंगे जो उसका सदुपयोग करता है। नीलामी से मिली रकम को संपूर्ण देश के जल संसाधनों के विकास के लिए उपयोग किया जा सकता है। वर्तमान में जंगल को दूसरे उपयोगों के लिए काटने पर कार्यदाई संस्था को जंगल का मूल्य अदा करना होता है। यह रकम केंद्र सरकार के एक कोष मे जमा की जाती है, जिसे कैंपा कहा जाता है। इसके बाद जंगल के संरक्षण के लिए राज्यों द्वारा कार्यों के प्रस्ताव भेजे जाते हैं, जिन्हें लागू करने को केंद्र सरकार कैंपा की राशि उपलब्ध कराती है। इसी प्रकार की व्यवस्था पानी की नीलामी से मिली रकम के उपयोग के लिए बनाई जा सकती है।

पानी को एक राज्य से दूसरे राज्य ले जाना भी कठिन कार्य है। नहर आदि के बनाने में भारी खर्च आता है। पानी की नीलामी में खरीदे गए पानी को पहुंचाने में भारी निवेश करना होगा। अगले साल नीलामी में चूक गए तो नहर बनाने में किया गया निवेश व्यर्थ जाएगा। इस समस्या का हल है कि पानी की नीलामी पांच-पांच वर्षों के लिए हो। वर्ष 2019 से 2024 की नीलामी वर्ष 2017 में की जाए, जिससे आने वाले समय में मिलने वाले पानी का सही उपयोग करने के लिए राज्य अपनी व्यवस्था बना सकें।

वर्तमान में पानी का बंटवारा केंद्र सरकार के विवेक से होता है। यह बंटवारा किसी सिद्धांत पर आधारित नहीं है, इसलिए राज्यों के बीच विवाद बने रहते हैं। केंद्र सरकार पानी को राज्यों को कुशलता के पैमाने पर आबंटित करे, तो भी पारदर्शिता नहीं आती है। इसका उपाय है कि नीलामी की जाए। तब राज्यों द्वारा स्वयं ही पानी को कम खरीदना चाहेंगे, चूंकि उन्हें इसका मूल्य अदा करना होगा।

ई-मेल : bharatjj@gmail.com


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