दूर सदन की छांव में

By: Mar 14th, 2017 12:01 am

हिमाचल विधानसभा के बजट सत्र की विजयी मुद्रा में सत्ता और विपक्ष की सफलता व विरासत के बीच अंतर मापना कठिन है।  वीरभद्र सिंह सरकार ने बजटीय पूर्णाहुति में जिस तरह के मंत्र फूंके हैं, उससे आगामी बहस के तंत्र बदलेंगे। यह इसलिए भी कि देश का चुनावी  परिदृश्य हिमाचल विधानसभा में बतौर विपक्ष बैठी भाजपा के सुर और सुराग बदलेगा और तब चर्चा के संदर्भ व संयोग का मिलाजुला असर सदन तक होगा। बहरहाल हिमाचल की प्रगति का एक आईना व दस्तूर संभाले कांग्रेस, पंजाब की सत्ता वापसी की खबर किस  तरह अपने आत्मबल से जोड़ती है, इसका भी प्रदर्शन होने वाला है। हिमाचल सरकार ने अपने तौर पर जो साबित करना था, उसे बजट की परिभाषा और आर्थिक सर्वेक्षण की आशा में समेट चुकी है, लेकिन इस दौर की राजनीति को हम सदन की नब्ज में देख सकते हैं। खबर होने तक सियासी संघर्ष की बुलंदी तो है, मगर इतिहास बनाने की फिरौती कहीं प्रदेश पर भारी न पड़े। विधानसभा के बजट सत्र का सियासी वजन हल्का तो कतई नहीं हो सकता, लेकिन इसे ढोने की विवशता में हिमाचल का झुकना भी तो मंजूर नहीं। इसलिए सवाल उठेंगे और मुखौटे हटा कर विपक्ष अपनी ताकत का इजहार करेगा तो सियासी सरहदों के बीच कितना हिमाचल होगा, इसी का अंदाजा अब सदन की बहस के जरिए नहीं होता। हम किसी एक पक्ष में समाहित होकर देखें तो वाक युद्ध की चंद दलीलें समझ में आएंगी, लेकिन प्रतिनिधित्व की शर्तों में वांछित चर्चाओं के बजाय विवाद बढ़ रहा है। इसलिए कभी चोंच लड़ती है, तो कभी जोंक। राज्यपाल का अभिभाषण जिस तरह के दस्तावेजों का संकलन होता है,उससे असहमत विपक्ष की दलीलों का संगम भी रूठा और सूखा रहता है। लिहाजा बहस से बड़ी रेखा तकरार ने खींची और बार-बार  क्रोधित माहौल सदन से बाहर निकल जाता है। यानी वाकआउट के लिए सदन के दरवाजे भी अब आदी हो गए और हिमाचल की तपती जमीन पर रखे प्रश्नों पर न जाने कब कौन सा कदम भारी पड़ जाए। जाहिर तौर पर सदन से भारी कुछ प्रश्न हमेशा रहते हैं और विपक्ष पूरी ताकत लगाकर भी सत्ता के चट्टानी कवच के भीतर छेद नहीं कर पाता। अब तक की बहस में आखिर छलनी होना किसे था और उस जनता का क्या होगा, जो अपने छीजते वजूद से बाहर निकल कर सदन में झांकना चाहती होगी। उस किसान के मलाल को न समझना, जिसका खेत अब उसे आउट कर चुका है या जहां बंदर सताता है और कोई उसकी आहें नहीं सुनता। कहीं डूबी हुई आशाओं के साथ अपनी ऊर्जा गंवा रहे युवा को, बेरोजगारी भत्ते के पल्लू से बांधने की कशमकश और कहीं असंतुष्ट युवा के बिखराव को समेटते नशे के सौदागरों के बीच अंतर ही कितना बचा है। सदन को मेडिकल कालेजों के भविष्य की चिंता के बीच शायद यह पता नहीं चला कि क्यों हमारे अपने डाक्टर चुपचाप निकल कर देश में बिखर गए। हम खुद पर आश्चर्य नहीं कर सकते और न ही अपने होने पर संदेह, फिर भी श्रेय लेने के लिए बमसन का पानी भी उबाल पर रहा। श्रेय उन जन्म लेते मेडिकल कालेजों पर या उन्हें उपलब्ध न होती मेडिकल फैकल्टी पर। श्रेय नए कालेजों या प्रिंसीपल व अध्यापकों के बिना चलते शिक्षण संस्थानों पर लें। वे तमाम विधायक अब शिक्षा के पुरोधा साबित हुए, जिन्होंने स्कूल के माथे पर कालेज का भाग्य चस्पां कर दिया या उनकी तारीफ करें, जिनकी बदौलत छात्रों के अभाव में सौ-डेढ़ सौ स्कूल बंद हो जाएंगे। हम चाहें तो वार्षिक परीक्षाओं की नकलबाजी में हिमाचल के भविष्य से रू-ब-रू हो जाएं और न चाहें तो एक ही स्कूल में किसी शिक्षक को बसा कर अपनी सियासत का तजुर्बा कर डालें। आम आदमी के लिए यह प्रश्न सरल नहीं है कि आखिर पढ़-लिखकर बच्चे क्यों इस कद्र बेकार हो रहे हैं, लेकिन बहस तो चंद फरेबी सिक्कों की है और यही सिक्के बेरोजगारी भत्ते के नाम पर टॉस करके सत्ता और विपक्ष से पूछते रहे कि किसे हैड, किसे टेल में बांट दें। सरकार ने तो कोशिश जारी रखी और चवालीस हजार नौकरियां बांट दीं, लेकिन बच्चों की किस्मत तो ऊपर वाला लिखता है। लिहाजा प्रश्न पूछने से पहले विपक्ष को नक्षत्र ज्ञान होना चाहिए। यह दीगर है कि हर वक्त भाजपा ही सबसे अधिक सत्ता के नक्षत्र पढ़ रही है, इसलिए विधानसभा की परिस्थिति में वाकआउट का मंत्रोच्चारण पूरी विपक्षी विधि से करती है, ताकि सनद रहे। बहरहाल बजट सत्र अपने आप में सत्तारूढ़ दल का ऐसा सुरक्षा कवच है कि जब जवाब में मुख्यमंत्री बोले, तो समझ में आया होगा कि क्यों प्रदेश को दूसरी राजधानी मिली या तरक्की की हर पायदान पर घोषणाओं का वास्तविक अर्थ क्या रहा।


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