न्याय की आस में खेती

By: Mar 30th, 2017 12:05 am

पीके खुराना

पीके खुराना लेखक, वरिष्ठ जनसंपर्क सलाहकार और विचारक हैं

खेती को अकुशल कार्य माना गया है और यह कहा गया है कि किसान साल में केवल 160 दिन काम करता है। इस तरह खेती की उपज का हिसाब बनाते समय उसकी मजदूरी कम लगाई जाती है। ट्रैक्टर, कल्टीवेटर, हार्वेस्टर चलाने वाला, मौसम को समझकर खेती के फैसले करने वाला, फसलों की किस्मों और बीजों को समझने वाला, सिंचाई के उपाय करने वाला, पैदावार को बाजार ले जाकर बेचने और हिसाब-खाता रखने वाला किसान तो अकुशल है, जबकि सफाई कर्मचारी, ड्राइवर, चपरासी, चौकीदार आदि को ‘कुशल कर्मचारी’ माना गया है…

‘सिटीजन्स रिसोर्स एंड एक्शन एंड इनीशिएटिव’ नामक एनजीओ द्वारा किसानों की आत्महत्या की लगातार बढ़ती दुखद घटनाओं की रोकथाम के लिए सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की गई थी। यह याचिका गुजरात में किसानों पर मंडरा रहे संकट और उनकी आत्महत्याओं के संदर्भ में दायर की गई थी। सोमवार को मामले की सुनवाई करते हुए न्यायालय ने संवेदनशीलता का परिचय दिया और इसे अति गंभीर मामला करार दिया। साथ ही याचिका का दायरा बढ़ा कर पूरे देश के किसानों की व्यथा को विचारणीय बना दिया। यह एक ऐसा अवसर है जब केंद्र सरकार, राज्य सरकारें, कृषि वैज्ञानिक आदि मिलकर इस त्रासदी की रोकथाम के लिए सचमुच कोई सार्थक कदम उठा सकते हैं। किसानों की आत्महत्या इसलिए भी चिंता का विषय है कि देश के नागरिकों के लिए अनाज पैदा करने वाले किसान खुद भूख और कर्ज तले इस हद तक दब जाते हैं कि उन्हें अपने आत्मसम्मान की रक्षा के लिए आत्महत्या के लिए विवश होना पड़ रहा है। इतिहास के किसी अन्य दौर में किसी एक पेशे से जुड़े लोगों के इतनी बड़ी संख्या में कभी खुदकुशी नहीं की है। इससे भी ज्यादा चिंता का विषय यह है कि उदारीकरण का दौर शुरू होने के बाद से यानी पिछले अढ़ाई दशक में दो लाख से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं। इनमें तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, छत्तीसगढ़ और पंजाब में आत्महत्याओं का सिलसिला अन्य राज्यों में हुई आत्महत्याओं के मुकाबले में बहुत ज्यादा है, लेकिन महाराष्ट्र में किसानों की आत्महत्याओं की संख्या सर्वाधिक रही है। कहीं किसान किसी एक फसल की पैदावार ज्यादा होने पर उसे जलाने पर विवश हैं, तो कहीं मौसम की मार के कारण फसल बर्बाद हो जाने के कारण किसान कर्ज के बोझ तले दब जाते हैं। हाल ही में आलू की फसल जलाने की खबरें आई हैं। विभिन्न सरकारों ने इस त्रासदी की रोकथाम के लिए कभी कोई गंभीर प्रयास नहीं किया है और यह बात न केवल विभिन्न राज्यों की सरकारों और केंद्र सरकार पर समान रूप से लागू होती है, बल्कि सभी राजनीतिक दलों पर भी समान रूप से लागू होती है। यह खेद का विषय है कि तमाम राजनीतिक दल इस मूलभूत समस्या से हमेशा आंखें चुराते रहे हैं।

कभी सूखा, कभी अकाल, कभी ओलावृष्टि और कभी बाढ़ किसानों की फसल को बर्बाद कर डालते हैं। तेज बारिश के समय फसल खराब होने के साथ-साथ किसानों और मजदूरों के कच्चे घर भी टपकने लगते हैं या ढह जाते हैं। सूखे में फसल को धीरे-धीरे मरते हुए देखना तो दुखदायी है ही, लेकिन तब यह और भी घातक होता है जब ओले पड़ते हैं और रात को शांति से सोया किसान सवेरे उठकर देखता है कि उसकी सारी फसल ओलावृष्टि से बर्बाद हो गई है। अधिकांश छोटे किसान इस नुकसान को झेलने की हालत में नहीं होते, क्योंकि वे पहले से ही कर्ज में दबे होते हैं और फसल की कमाई ही उनकी एकमात्र उम्मीद होती है जो अचानक ताश के पत्तों की तरह बिखर जाती है। यह प्राकृतिक आपदा है, लेकिन हमने इस आपदा की जटिलताएं बढ़ाई हैं। खेती की बढ़ती लागत, बीज की कीमत, खाद की कीमत, पानी की समस्या आदि ऐसे पहलू हैं, जिन्हें नजरअंदाज करना मुश्किल है। उल्लेखनीय है कि कृषि संकट में आत्महत्याओं के ज्यादातर मामले नकदी फसलों से जुड़े किसानों हैं। जब तक फसल किसान के पास रहती है, उसके दाम बहुत कम होते हैं, लेकिन बाजार में पहुंचने के तुरंत बाद दामों में तेजी आ जाती है। नकदी फसलों से जुड़े किसान भी अपनी जरूरत का खाद्यान्न बाजार से खरीदते हैं, जो उन्हें महंगे बाजार भाव पर मिलता है। यही कारण है कि वे हमेशा कर्ज से दबे रहते हैं और सूखा या बाढ़ न होने पर भी उनका जीवन आसान नहीं होता। उनकी इस समस्या की ओर नीति निर्धारकों, सामाजिक संस्थाओं और मीडिया का ध्यान जाता ही नहीं। विभिन्न सरकारी नियमों ने धीरे-धीरे खेती को अनुपयोगी और अलाभप्रद बनाने में सबसे बड़ी भूमिका निभाई है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के अंधाधुंध प्रचार से प्रभावित किसानों ने आर्गेनिक खेती छोड़ कर विषैली खेती को अपनाया। कुछ समय तक फसल बढ़ती नजर आई, पर कुछ ही दशकों में जमीन की उत्पादकता घट गई। पानी का स्तर नीचे चला गया और किसानों के बच्चे अन्य व्यवसायों में जाने के लिए विवश हुए। किसानों की आत्महत्याएं हुईर्ं और यह कह दिया गया कि चूंकि कृषि क्षेत्र में नए रोजगार संभव नही हैं, इसलिए उद्योग को बढ़ावा देना आवश्यक है। परिणाम यह हुआ कि औद्योगीकीकरण के लिए पूंजी और संसाधनों को खेती से उद्योगों के पक्ष में स्थानांतरित किया जाने लगा। खेती के उत्पाद को कारखानों में बने सामान के मुकाबले कम रखकर ऐसा किया जा रहा है।

इसे समझने के लिए हमें कृषि लागत और मूल्य आयोग के कीमतें तय करने के फार्मूले को समझना होगा। नियम यह है कि खेती को अकुशल कार्य माना गया है और यह कहा गया है कि किसान साल में केवल 160 दिन काम करता है। इस तरह खेती की उपज का हिसाब बनाते समय उसकी मजदूरी कम लगाई जाती है। टै्रक्टर, कल्टीवेटर, हार्वेस्टर चलाने वाला, मौसम को समझकर खेती के फैसले करने वाला, फसलों की किस्मों और बीजों को समझने वाला, सिंचाई के उपाय करने वाला, पैदावार को बाजार ले जाकर बेचने और हिसाब-खाता रखने वाला किसान तो अकुशल है, जबकि सफाई कर्मचारी, ड्राइवर, चपरासी, चौकीदार आदि को ‘कुशल कर्मचारी’ माना गया है। इन सब लोगों को साल में 180 दिन की छुट्टियां मिलती हैं यानी साल के 185 दिन काम करने के बावजूद पूरे 365 दिन का वेतन, महंगाई भत्ता और सालाना इन्क्रीमेंट मिलती है, जबकि किसान को बिना किसी छुट्टी के अपनी फसल की चौकीदारी हर दिन करनी पड़ती है तो भी वह केवल 160 दिन की मजदूरी पाता है और वह भी अकुशल के ठप्पे के कारण कम दाम पर। यही नहीं, सरकार इनके लिए जो न्यूनतम मूल्य घोषित करती है, अकसर वह भी इन्हें नहीं मिलता, क्योंकि किसान खुद फसलों की खरीद करने के बजाय उन्हें दलालों-आढ़तियों के भरोसे छोड़ देती है जो हर तरह से उनका शोषण करते हैं। सरकारी नियमों में इतने सारे झोल हैं कि चौतरफा कार्रवाई के बिना इस समस्या का पार पाना संभव नहीं है। यह कोई अजूबा नहीं है कि सब्जी मंडी में मूली का भाव एक रुपए किलो हो और मंडी के गेट के बाहर वही मूली दस रुपए किलो के भाव से बिक रही हो। केंद्र सरकार इसे राज्य सरकार का मामला बता कर पल्ला झाड़ लेती है। भाजपा ने लोकसभा चुनाव के अपने घोषणा पत्र में स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें लागू करने और किसानों को उनकी उपज का लागत से डेढ़ गुना दाम दिलाने का वादा किया था। मगर केंद्र की सत्ता में आने के करीब तीन साल बाद भी उसने इस दिशा में कुछ नहीं किया है। अब कृषि क्षेत्र की समस्याओं और चुनौतियों को बारीकी से समझने तथा उनसे निपटने के लिए योजनाबद्ध कार्य की आवश्यकता है, वरना सर्वोच्च न्यायालय की यह संवेदनशीलता भी बेकार चली जाएगी और हम किसानों की आत्महत्याओं पर रोकथाम का यह सुनहरा अवसर गंवा देंगे।

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