बेचैनी में अब्दुल्ला परिवार

By: Mar 25th, 2017 12:07 am

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री लेखक, वरिष्ठ स्तंभकार हैं

श्रीनगर और अनंतनाग के संसदीय क्षेत्रों से उपचुनावों की घोषणा हो गई है। यदि नेशनल कान्फ्रेंस और अब्दुल्ला परिवार को अपनी खोई हुई साख फिर से प्राप्त करनी है, तो  श्रीनगर की लोकसभा सीट जीतना बहुत जरूरी है। फारुक अब्दुल्ला भलीभांति यह जानते हैं कि वह अपने बलबूते यह सीट वर्तमान परिस्थिति में नहीं जीत सकते। घाटी में सक्रिय आतंकवादियों की हां में हां मिला दी जाए, तो उनके सहयोग से यह सीट निकाली भी जा सकती है। लेकिन आतंकवादी समूहों को यह संकेत कैसे दिया जाए कि आप संघर्ष करो, हम आपके साथ हैं? गिलानियों की गोद में बैठ कर आजादी-आजादी चिल्लाने से बढि़या तरीका भला और कौन सा हो सकता है…

पिछले चार-पांच महीनों से महरूम शेख अब्दुल्ला का परिवार कश्मीर घाटी में बहुत बेचैन हो उठा था। घाटी में अब जब महरूम शेख अब्दुल्ला के परिवार की बात चलती है, तो उसमें केवल दो का नाम ही लोगों की जुबान पर चढ़ पाता है। सर्वप्रथम शेख अब्दुल्ला के सुपुत्र फारुक अब्दुल्ला का और उसके बाद फारुक के पुत्र उमर अब्दुल्ला का। फारुक और उमर दोनों ही जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। जब तक शेख अब्दुल्ला जीवित थे, तब नेशनल कान्फ्रेंस का वजूद उनके अपने वजूद में ही सिमटा रहता था। उनके फौत हो जाने के बाद नेशनल कान्फ्रेंस फारुक-उमर के हाथों में आ गर्द। लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में एक मौलिक अंतर था। नेशनल कान्फ्रेंस घाटी के लोगों के हाथों में से निकल कर फारुक-उमर की जोड़ी के हाथ आई थी, जिसका अंत पार्टी के हाथों सत्ता छिन जाने और श्रीनगर से फारुक अब्दुल्ला के पराजित हो जाने में हुआ। अब्दुल्ला परिवार की एक फितरत है। वह सत्ता के बिना नहीं रह सकता, लेकिन सत्ता का एक ही रास्ता है और वह है आम लोगों के बीच चले जाना। वह रास्ता लंबा है। इस रास्ते पर फारुक अपनी बढ़ती उम्र के कारण और छोटे अब्दुल्ला अपनी विरासत के कारण नहीं चल सकते। तब दूसरा शॉर्टकट क्या है? उसका संकेत  की माओ ने किया था। उसने कहा था कि सत्ता बंदूक की नली में से निकलती है। यह रास्ता लोकतंत्र विरोधी तो है ही, मानवता विरोधी भी है, लेकिन अब्दुल्ला परिवार ने घाटी में शुरू से यही रास्ता चुना है। बड़े अब्दुल्ला यानी शेख अब्दुल्ला ने तो अपने समय में कम्युनिस्ट साथियों को आगे करके पीस ब्रिगेड के नाम पर सशस्त्र क्रांति सेना का गठन ही किया हुआ था, लेकिन वह फिर भी लोकतंत्र में विश्वास दिखाने के लिए जनता के बीच जाने की औपचारिकता जरूर निभाते थे। उनके इस दुनिया से चले जाने के बाद यह औपचारिकता फारुक और उमर भी निभाते रहे, लेकिन भारतीय राजनीति के क्षितिज पर नरेंद्र मोदी के उभर आने के बाद स्पष्ट हो गया कि कश्मीर घाटी में महज औपचारिकता से काम चलने वाला नहीं है। आगे से जम्मू-कश्मीर में भी निर्णय दिल्ली नहीं, बल्कि जनता ही किया करेगी।

जनता ने निर्णय अब्दुल्ला परिवार के पक्ष में नहीं किया। नवंबर-दिसंबर 2014 के चुनावों में जम्मू-कश्मीर की 87 सदस्यीय विधानसभा में पीडीपी को 28, भाजपा को 25, नेशनल कान्फ्रेंस को 15 और सोनिया कांग्रेस को 12 सीटें मिलीं। लोकसभा चुनावों में तो श्रीनगर की सीट भी फारुक अब्दुल्ला हार गए थे। सत्ता छिन जाने के बाद अब्दुल्ला परिवार के पास एक ही रास्ता बचा था। वह जनता का विश्वास जीतने के लिए पुनः घाटी की जनता के पास जाता है, लेकिन उसने जनता के पास जाने का लंबा और कष्टसाध्य रास्ता चुनने के बजाय सरल और शॉर्टकट रास्ता चुनना ही बेहतर समझा। वह हुर्रियत कान्फ्रेंस की गोद में जाकर बैठ गया। हुर्रियत कान्फ्रेंस का मानना है कि आतंकवादी कश्मीर में आजादी की लड़ाई लड़ रहे हैं। जल्द ही कश्मीर आजाद हो जाएगा। हुर्रियत कान्फ्रेंस के लोगों में थोड़ी बहुत नोकझोंक इस बात को लेकर होती रहती है कि लड़ाई जीत लेने के बाद कश्मीर आजाद रहेगा या पाकिस्तान में शामिल हो जाएगा। सैयद अली शाह गिलानी की गोद में बैठे फारुक अब्दुल्ला। जब एक-एक कदम साधते फारुक अब्दुल्ला, गिलानी की ओर बढ़ रहे थे तो बहुत से लोगों को हैरानी होती थी, क्योंकि वहां तो चौबीस घंटे आजादी की पुकार मची रहती थी। अपने बुढ़ापे को सुरक्षित रखने के लिए गिलानी साहब कश्मीर की जवानियां आग की भट्टी में झोंक रहे थे। अब फारुक मियां भी उसी ओर खिंचे चले जा रहे थे। लोग कुछ समझ पाते, तब तक अब्दुल्ला गिलानी की गोद में उछल-कूद कर रहे थे। गिलानी और फारुक की भाषा एक हो गई। पहला बोलता था तो दूसरे का भ्रम पैदा होता था और दूसरा बोलता था तो पहले का भ्रम होता था। आजादी। आजादी। गिलानी की गोद में बैठकर फारुक अब्दुल्ला ने फरमाया कि घाटी में कश्मीरी नौजवान आजादी के लिए लड़ रहे हैं। कश्मीर के सभी लोगों को इनका साथ देना चाहिए, लेकिन यदि कश्मीर घाटी के सभी लोगों को फारुक अब्दुल्ला में इतना भरोसा होता, तो वे लोकसभा और विधान सभा चुनावों में ही फारुक अब्दुल्ला का साथ देकर उन्हें सत्ता के आसन तक न पहुंचा देते? फारुक भी अच्छी तरह जानते थे कि कश्मीर घाटी में उनकी यह नेक सलाह सुनने वाला कोई नहीं है। अलबत्ता फारुक अब्दुल्ला की यह नई अरबी भाषा गिलानियों को जरूर कर्णप्रिय लग सकती है। तब क्या फारुक अब्दुल्ला अरबी भाषा का यह अभ्यास केवल गिलानी को रिझाने के लिए ही कर रहे थे? डू इन रोम इज दि रोमनज डू। तब फारुक अब्दुल्ला ने अपनी पार्टी नेशनल कान्फ्रेंस के नौजवानों को ललकारा।

उन्होंने उनका आह्वान किया कि वे भी आजादी का केवल समर्थन ही नहीं, बल्कि उसके लिए संघर्ष करें। फारुक अब्दुल्ला की रणनीति स्पष्ट थी। यदि घाटी की जनता स्वेच्छा से अब्दुल्ला परिवार का वरण नहीं करती तो उसे डराकर अपने पक्ष में लाना पड़ेगा, क्योंकि देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था है तो एक बार जनता को तो सच्चा-झूठा अपने साथ दिखाना ही पड़ेगा। यह भी थानेदार और कविता वाला पुराना किस्सा है। एक थानेदार को कविता लिखने की बीमारी लग गई। सुनने के लिए कोई श्रोता पकड़ में आ नहीं रहा था। साहित्यकार, खासकर कवि जानते हैं कि कविता लिखने की प्रक्रिया श्रोता के बिना पूरी नहीं होती। थानेदार ने भी एक भद्र पुरुष को थाने में बुला लिया। गुलाब जामुन, जलेबी और चाय वगैराह सामने सजा देने के उपरांत अपनी कविता सुनानी शुरू कर दी। कविता कैसी थी, यह बताने की जरूरत नहीं। भद्र पुरुष भी कविता के पारखी थे, इसे थानेदार का दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है। उसने कविता सुनने से एकदम इनकार कर दिया। कुछ देर तक तो थानेदार कविता सुनने के लिए चिरौरी करता रहा, लेकिन जब श्रोता नहीं माना तो थानेदार ने उसे उठाकर हवालात में बंद कर दिया। हवालात के बाहर थानेदार ने कविता की पोथी खोल ली और बोला, कविता तो मैंने सुनानी ही थी, लेकिन लगता है तुम्हें दूध-जलेबी खाते हुए कविता सुनने के बजाय हवालात में बैठकर कविता सुनना ही पसंद है। गिलानी की गोद में बैठे फारुक का भी, लगता है घाटी की जनता को यही संदेश है। वोट तो हमने आपका लेना ही है, लेकिन लगता है आपको हमारी कश्मीरी भाषा समझ नहीं आती, आपको अभी भी गिलान की भाषा ही समझ आती है। यदि ऐसा है तो वही सही। फारुक अब्दुल्ला की यह गिलानी नीति अब धीरे-धीरे स्पष्ट होने लगी है। कश्मीर घाटी में श्रीनगर और अनंतनाग के संसदीय क्षेत्रों से उपचुनावों की घोषणा हो गई है। यदि नेशनल कान्फ्रेंस और अब्दुल्ला परिवार को घाटी में अपनी खोई हुई साख फिर से प्राप्त करनी है, तो फारुक अब्दुल्ला के लिए श्रीनगर की लोकसभा सीट जीतना बहुत जरूरी है। यह सीट कभी अब्दुल्ला परिवार की खानदानी सीट मानी जाती थी। फारुक अब्दुल्ला भलीभांति यह जानते हैं कि वे अपने बलबूते यह सीट वर्तमान परिस्थिति में नहीं जीत सकते। फिर यदि घाटी में सक्रिय आतंकवादियों की हां में हां मिला दी जाए, तो उनके सहयोग से यह सीट निकाली भी जा सकती है। लेकिन आतंकवादी समूहों को यह संकेत कैसे दिया जाए कि आप संघर्ष करो, हम आपके साथ हैं? गिलानियों की गोद में बैठ कर आजादी-आजादी चिल्लाने से बढि़या तरीका भला और कौन सा हो सकता है? इसलिए फारुक ने वही तरीका अपनाया। श्रीनगर से फारुक अब्दुल्ला ने पर्चा भर दिया है। कुछ महीने पहले ही गिलानी की गोद में बैठकर उन्होंने अपना चुनावी घोषणा पत्र भी जारी कर दिया। इससे बढि़या चुनावी रणनीति भला क्या हो सकती है? परंतु यह सब कुछ करते हुए फारुक को कोफ्त नहीं होती? इसका उत्तर जानने के लिए जिज्ञासु पाठकों को शेख अब्दुल्ला परिवार का 1931 से लेकर आज तक का इतिहास पढ़ लेना चाहिए।

ई-मेल : kuldeepagnihotri@gmail.com


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