मणिपुर में नई पटकथा

By: Mar 18th, 2017 12:06 am

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्रीडा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

(लेखक, वरिष्ठ स्तंभकार हैं )

भाजपा को साठ सदस्यीय विधान सभा में 21 और कांग्रेस को 28 सीटें प्राप्त हुईं। कांग्रेस के प्रति जन आक्रोश कितना ज्यादा था, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि कांग्रेस को इकतीस का जादुई आंकड़ा छूने के लिए केवल तीन विधायकों की जरूरत थी, लेकिन एक भी विधायक उसे समर्थन देने के लिए आगे नहीं आया। इसके विपरीत भाजपा को सरकार बनाने के लिए दस दूसरे विधायकों की जरूरत थी और प्रदेश के अन्य सभी दस विधायक भाजपा के साथ चलने को राजी हो गए…

पूर्वोत्तर में मणिपुर सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण प्रांत है। शताब्दियों पहले मणिपुर के मोरेह से शुरू होकर म्यांमार, थाईदेश से होते हुए कंबोडिया में अंगाकोर मंदिर की तीर्थ यात्रा पर साधु संत निकलते थे। यह शायद विश्व की सबसे लंबी यात्रा थी। परिस्थितियां बदलीं, भूगोल बदले और वह यात्रा बंद हुई। लेकिन मणिपुर विधानसभा को फतह करने में भाजपा को इतना समय नहीं लगा। भाजपा ने इंफाल तक पहुंचने की यह यात्रा भी कुछ दशक पहले ही शुरू की थी। मणिपुर विधानसभा के लिए भाजपा की पूर्ववर्ती भारतीय जनसंघ ने 1972 के विधानसभा चुनावों में पहली बार अपना एक प्रत्याशी मैदान में उतारा था। 1972 में ही मणिपुर को पूर्ण राज्य का दर्जा मिला मिला था। जनसंघ के प्रत्याशी की जमानत जब्त हुई और उसे मात्र 1004 वोट मिले। तब से लेकर राजनीतिक रूप से इस क्षेत्र में काफी पानी बह चुका है।

एक वर्ष पूर्व इस क्षेत्र में कार्य विस्तार के लिए भाजपा ने पूर्वोत्तर के छोटे-छोटे राजनीतिक दलों को मिलाकर नॉर्थ-ईस्ट डेमोक्रेटिक एलांयस (एनईडीए) बनाया, ताकि सभी राष्ट्रवादी शक्तियों को संगठित किया जा सके। असम में सरकार बनाने के बाद ही इस बात की चर्चा होने लगी थी कि 2017 में मणिपुर में होने वाले विधानसभा चुनावों में भाजपा विजय पताका फहरा की स्थिति में है। पूर्वोत्तर में संगठन को मज़बूत करने के लिए भाजपा ने हिमाचल प्रदेश से अजय जम्बाल को संगठन मंत्री बना कर भेजा, जो पहले भी अरुणाचल प्रदेश में लंबे अरसे तक काम कर चुके हैं। ऐसा नहीं कि कांग्रेस अपनी सत्ता पर आया संकट चुपचाप देखती रही। पंद्रह साल से मणिपुर में कांग्रेस की सरकार चला रहे इबोबी सिंह ने अंततः वही पत्ता चला, जिसके बलबूते कांग्रेस लंबे अरसे से पूर्वोत्तर में अपना शासन चलाती रही है। उसने राज्य के नौ जिलों को तोड़ कर उनके सोलह जिले बना दिए। मणिपुर के नौ जिलों में से चार जिले तो घाटी में हैं और पांच जिले पहाड़ में। जनसंख्या के हिसाब से घाटी में रहने वाले लोगों को मैतेयी कहा जाता है और पहाड़ में जनजातियों के लोग रहते हैं। ये जनजातियां भी कूकी और नागा के नाम से आपस में बंटी हुई हैं। कूकी-नागा के आपस में झगड़े भी चलते रहते हैं। राज्य की ज्यादा आबादी, घाटी में रहती है, लेकिन घाटी का क्षेत्रफल राज्य का मात्र 30 प्रतिशत है। जमीन पहाड़ में है, लेकिन वहां आबादी बहुत कम है। घाटी का मैतेयी पहाड़ पर जमीन नहीं खरीद सकता, जबकि पहाड़ का जनजातीय समाज घाटी में जमीन ले सकती है। इससे घाटी में जनसंख्या घनत्व बढ़ता जा रहा है। इन सब कारणों से मैतेयी और जनजातीय समाज के संबंधों में तनाव बना रहता है। कूकी और नागा का तनाव तो पुराना है ही।

नागालैंड के उग्रवादी समूह कभी हिंसात्मक और कभी अहिंसात्मक तरीके से यह मांग भी करते रहते हैं कि मणिपुर के नागा बहुल जिलों को नागालैंड में मिला दिया जाए। जब भी इनमें से किसी भी मसले पर नगा और मणिपुर में तनाव बढ़ता है तो नागा लोग मणिपुर पहुंचने का एकमात्र राजमार्ग रोक लेते हैं, जिससे घाटी में आम चीजों का मिलना दुर्लभ हो जाता है। चीजों के दाम आसमान छूने लगते हैं। इबोबी सिंह मणिपुर की इन गली-मोहल्लों को सबसे ज्यादा जानते हैं। वैसे भी कांग्रेस को पूर्वोत्तर में इस प्रकार के हथकंडों का उस्ताद माना जाता है। उन्होंने चुनाव से ऐन पहले दिसंबर, 2016 में सात नए जिले बना दिए। पहाड़ के पांचों जिलों-ऊखरुल, सेनापति, तामेंगलोंग, चंदेल, चूड़चंद्रपुर को तोड़ कर पांच और जिले अस्तित्व में आए। ध्यान रहे इन पांच जिलों में से चूड़चंद्रपुर को छोड़ कर बाकी सभी जिले नागा बहुल हैं। चूड़चंद्रपुर कूकी बहुल जिला है। घाटी के दो जिलों इंफाल पूर्व और विष्णुपुर को विभाजित कर दो नए जिले बना दिए। इबोबी सिंह जानते थे कि इस बिन बादल की बरसात से जो तूफान उठेगा, वही कांग्रेस की नैया पार लगाएगा। नागाओं ने आरोप लगाया कि कांग्रेस सरकार इन इलाकों में नगा बहुलता को समाप्त करना चाहती है। मणिपुर को जाने वाले मार्ग की घेरेबंदी शुरू हो गई। इसका इबोबी सिंह को भी पता था। वह जानते थे कि इस घेरेबंदी से घाटी की मैतेयी जनसंख्या का जीवन संकटमय हो जाएगा, लेकिन वह यह भी जानते थे कि नागालैंड में भारतीय जनता पार्टी, नगा पीपल्ज फ्रंट के साथ है। अतः इंफाल घाटी के लोग इस घेरेबंदी के लिए अंततः भाजपा को जिम्मेदार मान लेंगे। इसके कारण वे उससे छिटक सकते हैं।

14 दिसंबर को जब पहाड़ में इबोबी सिंह नए बनाए जिला तेंगनौपाल का उद्घाटन करने पहुंचे, तो उनके काफिले पर घात लगा कर हमला किया गया, जिसमें तीन कमांडो मारे गए। मणिपुर में आम चर्चा होने लगी कि यह हमला केवल सहानुभूति अर्जित करने के लिए करवाया गया है। घाटी में कुल मिलाकर 41 सीटें हैं। पहाड़ों पर केवल 19। घाटी के मैतेयी यदि पहाड़ों के कूकी-नागा के खिलाफ डट जाएंगे तो इन 41 सीटों पर ध्रुवीकरण हो सकेगा। मणिपुर को जा रहे राजमार्गों की घेराबंदी से यकीनन भाजपा घिर जाएगी। न खाते बनेगा और न ही निगलते। राज्य में जो वैमनस्यपूर्ण बढ़ेगा, उससे कांग्रेस को कुछ लेना-देना नहीं था। लेकिन भाजपा ने सबसे पहले तो इबोबी सिंह की रक्षा पंक्ति तोड़ डाली। कांग्रेस के क्षेत्रीय क्षत्रप कांग्रेस से छिटक कर भाजपा में आ गए। मैतेयी मतदाता को गोलबंद करने के लिए भाजपा मणिपुर के महाराजा निंगथो लेईशांबा संजोबा को मंच पर ले आई। मणिपुर के महाराजा को आजतक कांग्रेस ने तिरस्कृत ही किया था। महाराजा को मंच पर सम्मान देकर भाजपा ने मैतेयी स्वाभिमान को छूने का प्रयत्न किया। जहां तक रोज-रोज मणिपुर को जाते राजमार्ग पर की जाती घेराबंदी को तोड़ने का प्रश्न था, आम आदमी को लगा, इस पर भाजपा काबू पा सकती है। इस पृष्ठभूमि में भाजपा को साठ सदस्यीय विधान सभा में 21 और कांग्रेस को 28 सीटें प्राप्त हुईं। चार-चार सीटें नेशनल पीपल्ज पार्टी और नागा पीपल्ज फ्रंट को मिलीं। एक-एक सीट लोक जनशक्ति पार्टी और तृणमूल कांग्रेस को मिली। एक सीट निर्दलीय के खाते में गई। यहां तक प्राप्त मतों का सवाल है, भारतीय जनता पार्टी को 36.3 और कांग्रेस को 34.6 प्रतिशत मत प्राप्त हुए। 2012 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को 42.42 प्रतिशत और भाजपा को केवल 2.12 प्रतिशत मत मिले थे। कांग्रेस को घाटी की चालीस सीटों में से 19 सीटें मिलीं और भाजपा को 16 सीटें। पहाड़ की बीस सीटों में से कांग्रेस को नौ और भाजपा को पांच सीटें मिलीं। साठ में से शेष बची ग्यारह सीटें स्थानीय राजनीतिक दलों को मिलीं।

कांग्रेस के प्रति जन आक्रोश कितना ज्यादा था, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि कांग्रेस को इकतीस का जादुई आंकड़ा छूने के लिए केवल तीन विधायकों की जरूरत थी, लेकिन एक भी विधायक उसे समर्थन देने के लिए आगे नहीं आया। इसके विपरीत भाजपा को सरकार बनाने के लिए दस दूसरे विधायकों की जरूरत थी और प्रदेश के अन्य सभी दस विधायक भाजपा के साथ चलने को राजी हो गए। लेकिन इस सबके बीच भाजपा के दो प्रत्याशियों की पराजय सभी को आश्चर्यचकित कर गई। भाजपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष चोयबा सिंह और प्रदेश के उपाध्यक्ष प्रेमानंद शर्मा, लेकिन सबसे बड़ा झटका लगा इरोम शर्मिला को। वह राज्य के मुख्यमंत्री इबोबी सिंह के खिलाफ खड़ी थीं और उन्हें केवल 90 वोट मिले। उसकी पार्टी प्रजा का भी कोई प्रत्याशी जीत नहीं सका। शर्मिला पिछले 16 साल से राज्य में से सेना को विशेषाधिकार देने संबंधी कानून को हटाने के लिए भूख हड़ताल पर बैठी थीं। कुछ मास पहले ही उन्होंने अपना व्रत छोड़ा था और कांग्रेसी मुख्यमंत्री के खिलाफ किस्मत आजमाने का फैसला लिया था। उसे मिले 90 वोटों से अंदाजा लगाया जा सकता है कि राज्य में यह मुद्दा था ही नहीं।

ई-मेल : kuldeepagnihotri@gmail.com


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