शेख की सोच का घातक सच

By: Mar 11th, 2017 12:05 am

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्रीडा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

( डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री लेखक, वरिष्ठ स्तंभकार हैं )

सरदार पटेल की भी 1950 में ही मृत्यु हो गई थी, अन्यथा वह नेहरू को इस भारतघाती रास्ते पर आगे बढ़ने से रोक सकते थे। समय पाकर शेख मोहम्मद अब्दुल्ला ने भी राग अलापना शुरू कर दिया कि रक्षा, संचार और विदेश संबंध को छोड़कर बाकी सभी मामलों में रियासत अपना अलग संविधान बनाएगी। शेख अब्दुल्ला ने पहले तो नेहरू के दिमाग में यह बात डाली कि रियासत के मुसलमान उसके कहने पर हम मजहब पाकिस्तान को छोड़कर हिंदोस्तान में शामिल हुए हैं। जिस समय नेहरू ने भी शेख की इस अफवाह पर यकीन करना शुरू कर दिया तो उसने इसकी कीमत मांगनी शुरू कर दी। नेहरू कीमत पर कीमत देते रहे…

कश्मीर की उलझनों के बड़े बुनकर शेख अब्दुल्ला थे। दुर्भाग्यवश, उनकी सोच और उनके सच को सायास छिपा लिया गया है। जब तक यह सच सामने नहीं आता, हम कश्मीर के मुद्दे को भी ठीक ढंग से नहीं समझ सकते। कश्मीर के सद्य इतिहास में तीन आंदोलनों की बहुत चर्चा होती है। इसमें कश्मीर घाटी में मुस्लिम कान्फ्रेंस द्वारा 1931 में छेड़ा गया आंदोलन एक है। रणजीत सिंह ने 1818 में कश्मीर को अफगानों के विदेशी राज्य से मुक्त करवाया था। इसके 113 साल बाद एक बार फिर कश्मीर में हिंदू निशाने पर आए थे। इसका मुख्य कारण एक पठान अब्दुल कादिर का हजरतबल से मुसलमानों को किया गया वह आह्वान था-हिंदू महाराजा के शासन को उखाड़ फेंको। लेकिन इस बार इस पठान के पीछे अफगानिस्तान नहीं, बल्कि ब्रिटिश शक्ति थी। अब्दुल कादिर का साथ देने वाले पठान या गुज्जर नहीं थे, बल्कि शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में चलने वाले कुछ कश्मीरी भाषी सुन्नी मुसलमान थे, जिनके पुरखे कुछ अरसा पहले अपना परंपरागत मजहब व विरासत छोड़ कर इस्लाम की शरण में चले गए थे। इस आंदोलन में पुलिस की गोली से 21 लोग मारे गए थे, जिनकी कब्रों पर आज भी 13 जुलाई को कुछ लोग सिजदा करते हैं। 1950 के बाद से तो राज्य सरकार ने बाकायदा इस दिन को सरकारी अवकाश घोषित कर दिया, लेकिन इस आंदोलन से अफगानी गुलामी की समाप्ति के बाद पहली बार कश्मीर घाटी में एक बार फिर विदेशी षड्यंत्रकारियों की सुगबुगाहट सुनाई देने लगी थी। कश्मीर घाटी में ही दूसरा आंदोलन 1946 में शेख अब्दुल्ला की नेशनल कान्फ्रेंस द्वारा शुरू किया था। इस आंदोलन की मुख्य और एकमात्र मांग 1846 की संधि को निरस्त करवाना था। इस आंदोलन की रणनीति बहुत गहरी और संपूर्ण भारत के लिए घातक थी। यदि यह आंदोलन सफल हो जाता, तो आज पूरे का पूरा जम्मू-कश्मीर पाकिस्तान का हिस्सा हो जाता।

1846 की अमृतसर संधि निरस्त हो जाने का अर्थ था कि जम्मू-कश्मीर रियासत, रियासत न रहकर ब्रिटिश इंडिया का हिस्सा हो जाती, क्योंकि इसी संधि के कारण यह क्षेत्र ब्रिटिश इंडिया का हिस्सा न होकर इंडियन स्टेटस का हिस्सा बना था। लंदन सरकार अपने कब्जे वाले ब्रिटिश इंडिया को तो विभाजित कर सकती थी, लेकिन इंडियन स्टेट्स को विभाजित करने का उसे कोई अधिकार नहीं था। यदि रियासत ब्रिटिश इंडिया का हिस्सा हो जाती तो जून, 1946 में लंदन सरकार इसे मुस्लिम बहुमत वाला क्षेत्र के आधार पर आसानी से पाकिस्तान का हिस्सा बना सकती थी। इस आंदोलन के पीछे कहीं न कहीं ब्रिटिश साम्राज्यवादी दिमाग काम कर रहा था। सबसे ताज्जुब की बात तो यह कि शेख अब्दुल्ला की नेशनल कान्फ्रेंस के इस राष्ट्रघाती आंदोलन के पक्ष में पंडित जवाहर लाल नेहरू भी कूद पड़े, जबकि कांग्रेस की घोषित नीति भारतीय देशी रियासतों के अंदरूनी मसलों में दखलअंदाजी न करने की थी । 1931 में जिस मुस्लिम कान्फ्रेंस ने आंदोलन चलाया था, 1946 तक आते-आते वही मुस्लिम कान्फ्रेंस, नेशनल कान्फ्रेंस का चोला धारण कर चुकी थी। इस चोला परिवर्तन से कश्मीर घाटी के हिंदू कम्युनिस्टों को इसमें शामिल होने में तार्किक सुविधा प्राप्त हो गई, जो शुरू से ही द्विराष्ट्र सिद्धांत का समर्थन कर रहे थे और वर्ग संघर्ष की अवधारणा में मुसलमानों को सर्वहारा वर्ग में स्वीकार करते थे। इसका श्रेय उस समय के शासक महाराजा हरि सिंह को ही जाएगा कि वह अकेले इस भारत विरोधी आंदोलन से जूझते रहे और उन्होंने ब्रिटिश सरकार के दबाव और नेहरू के उस समय के रुतबे की चिंता न करते हुए शेख अब्दुल्ला पर न्यायालय में मुकदमा चलाया और उन्हें सजा दिलाई। यह अलग बात है कि अंग्रेजों के चले जाने और नेहरू के प्रधानमंत्री बन जाने के बाद उन्हें इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी। जम्मू-कश्मीर आज जिन समस्याओं का सामना कर रहा है, वे सभी मोटे तौर पर इन दोनों आंदोलनों में से उपजी हैं। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने रियासतों में लोगों की राय जान लेने के सिद्धांत को स्वीकार किया था, जिसका अर्थ था कि अंग्रेजों के ब्रिटिश इंडिया से चले जाने के बाद रियासतों के लोगों से राय ली जाएगी कि वे लोकशाही चाहते हैं या राजशाही।

अनेक रियासतों में राजशाही के खिलाफ आंदोलन छिड़े हुए थे, लेकिन कश्मीर घाटी में अमृतसर संधि को निरस्त करने के लिए चलाए जा रहे आंदोलन में बेवजह पंडित नेहरू के कूद पड़ने के कारण लॉर्ड माउंटबेटन ने बहुत ही होशियारी से, जम्मू-कश्मीर रियासत के मामले में इसकी नई व्याख्या कर दी। उसके अनुसार इस बात पर लोगों की राय ली जाएगी कि रियासत भारत में शामिल होना चाहती है या पाकिस्तान में? पंडित नेहरू ने उसकी इस नई व्याख्या को स्वीकार ही नहीं किया, बल्कि संयुक्त राष्ट्र संघ में भी बेसुरा राग अलापना शुरू कर दिया कि इसी प्रश्न पर जम्मू-कश्मीर में रहने वाले लोगों की राय ली जाएगी। उनकी हिम्मत यहां तक बढ़ी कि भारतीय संसद में भी उन्होंने कहा कि यदि लोगों की राय विपरीत होगी, तो रियासत पाकिस्तान में जा सकती है। भारत का पहला विभाजन ब्रिटिश सरकार ने किया था और अब दूसरा विभाजन नेहरू और शेख अब्दुल्ला मिलकर करने के रास्ते पर चल पड़े थे। 1931 और 1946 के इन दोनों आंदोलनों और लोगों की राय की इस नई व्याख्या ने पूरी रियासत में भय, अनिश्चय और संभ्रम की स्थिति पैदा कर दी। पाकिस्तान ने रियासत पर आक्रमण कर ही दिया था।

पंडित नेहरू और लॉर्ड माउंटबेटन की रुचि रियासत में से आक्रमणकारी को बाहर निकालने की इतनी नहीं थी, जितनी इस बहस को हवा देने में थी कि रियासत पाकिस्तान में जाएगी या हिंदोस्तान में इसका फैसला होना अभी बाकी है। महात्मा गांधी का स्वर्गवास हो चुका था। सरदार पटेल की भी 1950 में ही मृत्यु हो गई थी, अन्यथा वह नेहरू को इस भारतघाती रास्ते पर आगे बढ़ने से रोक सकते थे। समय पाकर शेख मोहम्मद अब्दुल्ला ने भी राग अलापना शुरू कर दिया कि रक्षा, संचार और विदेश संबंध को छोड़कर बाकी सभी मामलों में रियासत अपना अलग संविधान बनाएगी। शेख अब्दुल्ला ने पहले तो नेहरू के दिमाग में यह बात डाली कि रियासत के मुसलमान उसके कहने पर हम मजहब पाकिस्तान को छोड़कर हिंदोस्तान में शामिल हुए हैं। जिस समय नेहरू ने भी शेख की इस अफवाह पर यकीन करना शुरू कर दिया तो उसने इसकी कीमत मांगनी शुरू कर दी। नेहरू कीमत पर कीमत देते रहे। दरअसल जब नेहरू और शेख की जोड़ी ने कश्मीर घाटी में चमत्कार दिखाने शुरू कर दिए और कश्मीर घाटी को ही जम्मू-कश्मीर का पर्यायवाची घोषित कर दिया, तो पूरे प्रदेश में चिंता व्याप्त हुई। नेहरू शेख की गलत नीतियों के चलते गिलगित, बाल्टीस्तान, जम्मू संभाग के कुछ हिस्से, पंजाबी भाषी मुजफ्फराबाद पाकिस्तान के कब्जे में चला गया था। जम्मू में मुहावरा चल पड़ा-आप तो डूबे बाहमणा, जजमान भी डोबे। ध्यान रहे नेहरू और शेख अब्दुल्ला दोनों कश्मीरी पंडित थे। नेहरू के पुरखे अरसा पहले कश्मीर छोड़ आए थे और शेख अब्दुल्ला के पुरखे अरसा पहले मुसलमान हो गए थे। नेहरू-शेख की इस जोड़ी की इन हरकतों का जवाब कैसे दिया जाए? नेहरू-शेख के पास कश्मीर घाटी में अपना संगठन था, नेशनल कान्फ्रेंस, लेकिन जम्मू-लद्दाख के पास ऐसा कोई संगठन नहीं था। गुज्जरों का कोई संगठन नहीं था। यह निर्वात भरने क लिए कुछ राष्ट्रवादी लोग सक्रिय हुए और शेख की सोच पूरी नहीं हो सकी।

ई-मेल : kuldeepagnihotri@gmail.com


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