सार्वजनिक संवाद में बढ़ती तुच्छता

By: Mar 10th, 2017 12:08 am

newsप्रो. एनके सिंह

(लेखक, एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया के पूर्व चेयरमैन हैं)

हाल ही में एक और मुद्दाविहीन खबर मीडिया चैनलों पर पूरी तरह से हावी रही, जिसमें एक लड़की हाथ में तख्ती लहराते हुए एक लड़की बताती है, ‘पाकिस्तान ने मेरे पिताजी को नहीं मारा, बल्कि जंग ने मारा।’ प्रथमदृष्टया इसमें गंभीरता वाली कोई बात ही नजर नहीं आई, लेकिन तख्ती पर उस लड़की ने संदेश दिया कि वह एक शहीद की बेटी है, जिसके पिताजी जम्मू-कश्मीर में एक मुठभेड़ में शहीद हो गए थे। वह लड़की साफ तौर पर अपने बाप की शहादत के लिए पाकिस्तान को दोषी नहीं मानती है…

आज प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ऐसे निरर्थक विज्ञापनों या आरोपों से भरे रहते हैं, जिनका देश-समाज के लिए कोई महत्त्व ही नहीं होता। इंटरनेट ने जो आजादी प्रदान की है, उसमें भी अपमानजनक सामग्री की भरमार है। मैं हमेशा से ही इंटरनेट या ट्विटर, फेसबुक और ब्लॉग सरीखे अभिव्यक्ति के सोशल मंचों पर आजादी का पक्षधर रहा हूं, लेकिन इसी के साथ जब यहां संकीर्ण और अपमानजनक शब्दों व भाषा का सिलसिला शुरू हो जाता है, तो यह सब देखकर मेरी समर्थन वाली सोच ही प्रभावित होती है। बेशक अधिकतर ट्वीटस की भाषा अमर्यादित श्रेणी की न भी हो, फिर भी इनके जरिए भ्रामक और प्रायोजित सूचनाओं को ही फैलाया जाता है। एक राष्ट्रीय समाचार पत्र ने प्रमुखता के साथ छापा कि देश के विश्वविद्यालयों में अस्थिरता व अशांति का माहौल, जबकि देश के करीब 800 विश्वविद्यालयों में महज तीन-चार में ही ऐसी स्थिति है। इसके पीछे सनसनी फैलाने या यूं कहें कि खलबली मचाने का विचार काम कर रहा था, जिससे जनहित को प्रभावित किया जा सके। जनता में पेड न्यूज की अवधारणा के खिलाफ लंबे अरसे से दृढ़ मान्यता रही है। कई न्यूज चैनलों में यह प्रवृत्ति गहरे तक घुसपैठ कर चुकी है, इसके बावजूद ऐसी भ्रामक पत्रकारिता के खिलाफ विरोध प्रदर्शन का आज तक किसी ने साहस नहीं दिखाया।

हाल ही में एक और मुद्दाविहीन खबर मीडिया चैनलों पर पूरी तरह से हावी रही, जिसमें हाथ में तख्ती लहराते हुए एक लड़की बताती है, ‘पाकिस्तान ने मेरे पिताजी को नहीं मारा, बल्कि जंग ने मारा।’ प्रथमदृष्टया इसमें गंभीरता वाली कोई बात ही नजर नहीं आई, लेकिन तख्ती पर उस लड़की ने संदेश दिया कि वह एक शहीद की बेटी है, जिसके पिताजी जम्मू-कश्मीर में एक मुठभेड़ में शहीद हो गए थे। वह लड़की साफ तौर पर अपने पिता जी की शहादत के लिए पाकिस्तान को दोषी नहीं मानती है। शुरू-शुरू में मीडिया ने बड़े जोर-शोर के साथ प्रचारित किया कि वह लड़की कारगिल में शहीद हुए सैनिक की बेटी है, इसके उलट उनके पिताजी जम्मू-कश्मीर में एक अन्य मुठभेड़ में शहीद हुए थे। यहां ‘कारगिल’ शब्द का गलत उपयोग मीडिया के एक खास वर्ग द्वारा सनसनी फैलाने के लिए जान-बूझकर किया गया। मीडिया का यह वर्ग भलीभांति इस हकीकत से वाकिफ है कि यह शब्द भारतीयों की भावनाओं से जुड़ा हुआ है। भारत के इसी क्षेत्र में पाकिस्तान ने हमला किया था। इस तरह की मानसिकता जेएनयू के माहौल से पैदा हुई है, जिसका राष्ट्र-विरोधी विचारों से गहरा प्रेम रहा है। उदाहरण के तौर पर देश की संसद पर हमले की साजिश रचने वाले जिस अफजल गुरू को न्यायपालिका के फैसले के बाद फांसी दी गई थी, यह मंडली जेएनयू कैंपस से उसके पक्ष में खुलकर नारेबाजी करती रही है। जेएनयू ऐसे विद्यार्थियों का अड्डा बन चुकी है, जो कि जम्मू-कश्मीर के अलगाववादियों का समर्थन करने के साथ-साथ भारत को टुकड़ों में बांटने के नारे उछालते हैं। ये जो तख्ती वाली लड़की अभी चर्चाओं में रही, वह भी आम आदमी पार्टी और वाम आंदोलन का हिस्सा रही है। इस अबोध कन्या में मूर्खता के अलावा कौन सी बड़ी खबर थी? इसके बावजूद कई दिनों तक मीडिया में इसे अच्छा-खासा स्थान दिया गया। हम ऐसे समय रॉय मैथ्यू के प्रकरण को कैसे भुला देते हैं, जिसने पेड़ पर फंदा डालकर फांसी लगा ली थी। वह एक स्टिंग आपरेशन का शिकार था और कैमरे में यह सैन्य बल के बड़े अधिकारियों द्वारा अपने मातहतों के साथ किए जाने वाले दुर्व्यवहार का जिक्र करते हुए कैद हुआ था। उसने गोपनीयता की शर्त पर बातें रखी थीं, लेकिन जब रिपोर्ट में उसकी पहचान उजागर हुई तो उसका पूरा करियर ही तबाह हो गया।

वह अपने प्राण त्यागने के लिए विवश था, क्योंकि उसके लिए कठोर सजा तय थी। सेना में ऐसा नहीं होना चाहिए। उसे शिकायतों और व्यक्तिगत आक्षेपों के बारे में खुला रवैया अपनाना चाहिए। यदि कोई रिपोर्टर एक प्रश्न उठाता है, तो रक्षा मंत्रालय को इसी तरह का खुला रवैया अपनाना चाहिए। मैथ्यू ने एक रिपोर्टर की बात को एक अवसर की तरह लिया। वह इस बात से अनजान था कि मीडिया रिपोर्टर अंततः उसका उपयोग करेगा। उसकी आत्महत्या गली-नुक्कड़ की बहस बननी चाहिए थी, लेकिन उससे भी अधिक चर्चा पत्रकारिता के मूल्यों पर होनी चाहिए।

पश्चिम बंगाल के किसी मुल्ला द्वारा प्रधानमंत्री का सिर कलम करने की बात, भाजपा के किसी सदस्य द्वारा केरल के मुख्यमंत्री का सिर काटने की बात या फिर मुस्लिम कट्टरपंथी औवेसी की बातों को राष्ट्रीय मुद्दा बनाने के बजाय कुछ सिरफिरों के कथन के रूप में लिया जाना चाहिए। इनकी बातें हैडलाइन नहीं बननी चाहिएं, इसके उलट इनकी करतूतों को सामने लाया जाना चाहिए। इनको कहीं पिछले पृष्ठों पर जगह देनी चाहिए, लेकिन दुर्भाग्य से इनकी बातों को समाचार बनाकर इन पर चर्चा की जाती है और इसके कारण विवाद पैदा होते हैं। वेलेंटाइन डे अन्यथा ऐसे ही अन्य विषयों पर चर्चा करने के बजाय इस बात पर चर्चा की जाती है कि राष्ट्रीय गान के समय खड़ा होना ठीक है अथवा नहीं। क्या हमें अब भी इस विषय पर चर्चा करने की जरूरत है, जबकि न्यायालय भी इसे अनिवार्य बना चुका है। यह किसी की व्यक्तिगत पसंद का मामला नहीं है, बल्कि राष्ट्रीय सम्मान का मसला है, जिसे राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्रगान अभिव्यक्त करते हैं। सभी देशों के नागरिक अपने तरीके से इन प्रतीकों का सम्मान करते हैं। लेकिन कुछ सनकी लोग कह रहे हैं कि वे राष्ट्रगान के सम्मान में नहीं खड़े होंगे। ऐसे लोगों को पर्याप्त कवरेज मिलती है और उनकी अभिव्यक्तियों को पर्याप्त स्थान मिलता है। क्या हमारे पास अन्य राष्ट्रीय मुद्दों का अभाव है, जिनको कवरेज मिलनी चाहिए अथवा चर्चा की जानी चाहिए। यहां तक कि वैज्ञानिक उन्नति संबंधी तथ्यों की भी मामूली चर्चा की जाती है, जैसे वे कोई विषय ही नहीं हैं।

सहिष्णुता एक ऐसा ही विषय है। इसे वह अकादमिक अथवा पत्रकारीय मंडली आगे बढ़ा रही है, जिसे दूसरों की बातों को सुनने की आदत नहीं है। तारेक फतेह सहिष्णुता की बात करने वालों के एक कार्यक्रम से बाहर निकाल दिए गए। यह मंडली उनके विचारों को सह नहीं पाई। इसी तरह शाजिया इल्मी को उस विश्वविद्यालय के एक कार्यक्रम में वक्ता की सूची से हटा दिया गया, जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दावा करता है। जो आजादी की मांग कर हैं और राजनीतिक स्पेस का खुल कर उपयोग कर हैं, वे दूसरों की आजादी के बारे में बेफिक्र दिखते हैं। हम ऐसे विषयों पर चर्चा कर रहे हैं, जो स्वयंसिद्ध हैं और जिन पर चर्चा करने का कोई विशेष लाभ दिखता नहीं। दिल्ली के मुख्यमंत्री की इस राय से कोई भी नाइत्तफाक नहीं रखता कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद-19 के तहत अभिव्यक्ति का अधिकार प्रदान किया गया है, लेकिन इसका राष्ट्रीय और सार्वजनिक हितों और शिष्टता के दायरे में ही उपयोग किया जा सकता है।

बस स्टैंड

पहला यात्री-  केजरीवाल एक साल के भीतर दिल्ली को लंदन जैसा बनाने जा रहे हैं।

दूसरा यात्री-  मुझे पता नहीं, लेकिन इतना तय है कि वह एक साल के भीतर लंदन को भी दिल्ली जैसा बना सकते हैं।

ई-मेलः singhnk7@gmail.com


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