उचित है आनंद की आकांक्षा

By: Apr 8th, 2017 12:05 am

मानव जीवन का ध्येय आनंद ही है। आनंद की आकांक्षा उचित है। यह वहीं तक उचित हैं, जहां तक इसका संबंध जीवन की वास्तविक सुख-शांति से है। मिथ्या, आनंद का भाव लेकर जगी हुई कामनाएं अनुचित एवं अवांछनीय हैं इसलिए कि यह मनुष्य को मृगतृष्णा में भटकाकर उसका बहुमूल्य मानव जीवन नष्ट कर डालती है।  आनंद आत्मा का विषय है, शरीर का नहीं। उसकी प्राप्ति जीवन को जनहित, लोकमंगल और विश्व कल्याण में समाहित कर देने पर ही होती है। व्यष्टि को समष्टि में समाहित कर देना ही आध्यात्मिक जीवन है। इसको ग्रहण करते ही आत्मा में दिव्य ज्योति के दर्शन होने लगते हैं। अनंत और अक्षय आनंद के कोष खुल जाते हैं। इसलिए आत्मिक अथवा आध्यात्मिक सुख को ही सारे सुख का मूल और मानव जीवन का साध्य माना गया है। लौकिक कामनाओं की पूर्ति से प्राप्त होने वाला सुख, मिथ्या, वंचक और क्षणभंगुर माना गया है। परिष्कृत व्यक्तित्व और आध्यात्मिक दृष्टिकोण वाले व्यक्ति सांसारिक सुख-दुख को चलती फिरती छाया से अधिक महत्त्व नहीं देते हैं। वे इस वास्तविकता से अनभिज्ञ नहीं होते कि सुख-दुख, अनुकूलता-प्रतिकूलता की धनात्मक एवं ऋणात्मक परिस्थितियों में तपकर ही मानव जीवन पुष्ट होता है। अस्तु वे जीवन की इस धूप-छांह से कभी प्रभावित नहीं होते। जीवन में ऐसी परिस्थिति जब तब आती है, वे उसका हंसी खुशी के साथ सामना करते हैं। वे संसार की हर परिस्थिति को ईश्वर का वरदान मानकर सदैव प्रसन्न एवं संतुष्ट ही बने रहते हैं। वे सुख में प्रसन्न और दुख में रोने की बालवृत्ति से ऊपर उठे रहते हैं। वे संसार की इस परिवर्तनशीलता के बीच अपनी एक सी दुनिया बसाने की आकांक्षा और केवल सुखों की कामना को पोषण करते रहने की भूल नहीं करते। वे इस सांसारिकता से ऊपर उठकर आत्मिक जीवन में जीते और प्रसन्न रहते हैं। जीवन का वास्तविक सुख आध्यात्मिक जीवनक्रम में ही प्राप्त हो सकता है। इसमें जरा भी संदेह नहीं। तथापि सच्चा आध्यात्मिक जीवन भी यों ही प्राप्त न हो जाएगा। उसके लिए भी मनुष्य को साधना करनी पड़ती है। आध्यात्मिक भाव की प्राप्ति तो तभी होती है जब मनुष्य अपने अंतर बाह्य दोनों को पवित्र और उज्ज्वल बनाए। मानव मन में न जाने कितने दोषदुरित चोर की तरह बैठे रहते हैं। बहुत बार उनका पता भी नहीं चलता। यही निर्बलताएं कदम-कदम पर आध्यात्मिक पथ पर रोड़े अटकाती रहती हैं। इस अवरोध के विषय में बहुधा अज्ञानवश भ्रम हो जाता है कि कोई बाहरी शक्ति हमारी प्रगति में रोड़ा अटका रही है, वास्तविकता इससे भिन्न होती है। मनुष्य के अपने मानसिक दोष ही उसके पथ में रोड़ा बनकर अटकते रहते हैं। अस्तु आध्यात्मिक जीवन की उपलब्धि के लिए मानसिक परिष्कार बहुत आवश्यक है। हमें खोज खोजकर असद्भावनाओं, मलीन विचारों और ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध, लोभ, मोह आदि आवेगों को अपने अंतःकरण से निकाल-निकाल कर फेंकते रहना चाहिए। स्वार्थ, विडंबना और प्रवंचनापूर्ण गतिविधियां आध्यात्मिक जीवन के विपरीत भाव की जन्मदात्री होती हैं। यथासाध्य इनसे बचे ही रहना चाहिए। वास्तविक और सच्चे सुख की खोज भौतिक पदार्थों और उनके संयोग से इंद्रियों में नहीं करनी चाहिए। पूरा जीवन लगा देने पर भी वह वहां नहीं मिलेगा। वास्तविक सुख आध्यात्मिक जीवन क्रम में ही प्राप्त होता है। आत्मा के दोष दुरितों को दूर करिए और जल के कमल की भांति संसार में रहते हुए संसार का भोग करिए।


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