कुसंग का प्रभाव

By: Apr 1st, 2017 12:05 am

हिंदू भावना स्त्री के रूप में केवल अर्द्धांगिनी और सहधर्मिणी हो सकती है, अन्य कुछ नहीं। हिंदू की दृष्टि में नारी केवल साथिन के रूप में या थोथी और उथली रोमांचक प्रेमिका नहीं दिखाई देती। इस वैचित्रयमय जगत में नानात्व की अभिव्यंजना के साथ नारी को भी हम अनंत शक्ति-रूपिणी, अनंत रूप से शक्ति दायिनी स्नेहमयी जननी, आज्ञाकारिणी भगिनि, कन्या और सखी के रूप में निरखते है…

कुसंग में रहकर युवक परिवार से बिछुड़ जाता है। ये कुसंग बड़े आकर्षक रूप में उसके सम्मुख आते हैं। कुमित्र, सिनेमा, थियेटर, वेश्या, गंदा साहित्य, गर्हित चित्र, मद्यपान, सिगरेट तथा अन्य उत्तेजक पदार्थ-ये सभी प्रत्यक्ष विष के समान हैं। इनके स्पर्श मात्र से मनुष्य पाप कर्म में प्रवृत्त हो जाता है। इनकी कल्पना मन में करना सर्वथा विनाशकारी है। इनसे सदैव सावधान रहें। जिनकी आत्मा अपनी इंद्रियों के विषयों-खान-पान, चटकीले वस्त्र, दिखावा, विलासप्रियता, शृंगार, झूठी शान, बचपन की रंगरलियों, सिनेमा की अभिनेत्रियों के चिंतन या अन्य सामाजिक विकारों में ही लिप्त हैं, जिनका हृदय निम्न कोटि की आशाओं में डूबा रहता है और स्वार्थ, क्रोध, ईर्ष्या, मोह, दगाबाजी, बेईमानी के कलुषित विचारों में रमा हुआ है, ऐसी नशोन्मुख आत्माओं को अवलोक कर कौन पश्चाताप न करेगा? ऐसी विनाशकारी वृत्ति का एक उदाहरण पं. रामचंद्र शुक्ल ने दिया है। श्रीशुक्ल ने मकदूनिया के बादशाह डेमेट्रियस के विषय में लिखते हुए निर्देश किया है कि वह कभी-कभी राज्य का सब कामकाज त्याग कर अपने ही मेल के दस-पांच साथियों को लेकर विषय-वासना में लिप्त रहा करता था। एक बार बीमारी का बहाना करके, वह इसी प्रकार अपने दिन काट रहा था। इसी बीच उसका पिता उससे लेने के लिए गया। उसने एक हंसमुख जवान लड़की को कोठरी से बाहर निकलते हुए देखा। जब डेमेट्रियस कोठरी के बाहर निकला, तब उसने पिता को सामने पाकर कहा ज्वर ने मुझ अभी छोड़ा है। पिता ने उत्तर दिया, हां। ठीक है, वह दरवाजे पर मुझे मिला था। कुसंग का ज्वर ऐसा ही भयानक होता है। एक बार युवक इसके पंजे में फंस कर मुक्त नहीं हो पाता। अतः प्रत्येक युवक को अपने मित्रों, स्थानों, दिलचस्पियों, पुस्तकों इत्यादि का चुनाव बड़ी सतर्कता से करना चाहिए। सुखी और शांतिमय गृहस्थ जीवन आपका परिवार एक छोटा सा स्वर्ग है, जिसका निर्माण आपके हाथ में है। परिवार एक ऐसी लीलाभूमि है, जिसमें पारिवारिक प्रेम, सहानुभूति, संवेदना, मधुरता अपना गुप्त विकास करते हैं। यह एक ऐसी साधना भूमि है, जिसमें मनुष्य को निज कर्त्तव्यों तथा अधिकारों, उत्तरदायित्वों एवं आनंद का ज्ञान होता है।  मनुष्य को इस भूतल पर जो सच्चा, नैसर्गिक और दुख से मुक्त सुख प्राप्त हो सकता है, वह कुटुंब का सुख ही है। कुटुंब की देवी स्त्री है। चाहे वह माता, भगिनी या पुत्री किसी भी रूप में क्यों न हो। उन्हीं के स्नेह, हृदय की हरियाली, रस स्निग्ध वाणी और सौंदर्यशील प्रेम से परिवार सुखी बनता है। वह स्त्री, जिसका हृदय दया और प्रेम से उछलता है, परिवार का सबसे बड़ा सौभाग्य है। उसकी वाणी में सुधा की सी शीलता और सेवा में जीवन प्रदायिनी शक्ति है। उसके प्रेम की परिधि का निरंतर विकास होता है। वह ऐसी शक्ति है, जिसका कभी क्षय नहीं और जिसका उत्साह एवं प्रेरणा, परिवार में नित्य नवीन छटाएं बिखेरकर, पूर्णता में नवीनता उत्पन्न कर मन को मोद, बुद्धि को प्रबोध और हृदय को संतोष प्रदान करती है। हिंदू भावना स्त्री के रूप में केवल अर्द्धांगिनी और सहधर्मिणी हो सकती है, अन्य कुछ नहीं। हिंदू की दृष्टि में नारी थोथी और उथली रोमांचक प्रेमिका नहीं दिखाई देती। इस वैचित्रयमय जगत में नानात्व की अभिव्यंजना के साथ नारी को भी हम अनंत शक्ति-रूपिणी, अनंत रूप से शक्ति दायिनी स्नेहमयी जननी, आज्ञाकारिणी भगिनि, कन्या और सखी के रूप में निरखते हैं। हिंदू परिवार में पुत्र क्षणिक आवेश में आकर स्वछंद विहार के लिए परिवार का तिरस्कार नहीं करता। वरन् परिवार के उत्तरदायित्व को और भी दृढ़ता से वहन करता है। हिंदू जीवन में पति उत्तरदायित्वों से भरा हुआ प्राणी है। अनेक विघ्नों के होते हुए भी उसका विवाहित जीवन मधुर होता है। यहां संयम, निष्ठा, आदर, प्रतिष्ठा तथा जीवन शक्ति को रोक रखने का सर्वत्र विधान रखा गया है। यदि यह संयम न हो तो विवाहित जीवन गरलमय हो सकता है। हिंदू नारी को भोग-विलास की सामग्री नहीं, नियंत्रक, प्रेरक, साधनामय एवं विघ्न-बाधाओं में साथ देने वाली जीवन-संगिनी के रूप में देखता है।


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