छोड़ना होगा ‘पहले मैं’ का दृष्टिकोण

By: Apr 28th, 2017 12:05 am

प्रो. एनके सिंह

लेखक, एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया के पूर्व चेयरमैन हैं

आज भी हम हर क्षेत्र में कुछेक लोगों को शेष समाज से ज्यादा महत्त्वपूर्ण मानने की परंपरा को ढो रहे हैं। आज सामाजिक और राजनीतिक पदानुक्रम में हर कोई ‘पहले मैं’ की दौड़ में शामिल होने को आतुर दिखता है। लाल बत्ती, ऐंबर बत्ती, विशेषाधिकारों की चाह ने नागरिकों में भेदभाव की परंपरा को बदस्तूर जारी रखा है। यहीं से मनोवृत्ति पैदा होती है कि मैं वीआईपी हूं और पहले मेरी गाड़ी को जाने दिया जाए। सत्ता या पद मिलने के बाद लोगों में अहं रूपी यह विचित्र गुण स्वाभाविक तौर पर देखा जा सकता है…

यह जीवन की विडंबना ही है कि एक महाराजा को पद और प्रतिष्ठा के प्रतीकों पर रोक लगाकर समानता के लिए पहल करनी पड़ी। खुद को महाराजा या कैप्टन कहलाना पसंद करने वाले अमरेंदर सिंह ने इस आधार पर कारों या अन्य वाहनों से वीआईपी संस्कृति का प्रतीक बन चुकी लाल बत्ती हटाने का निर्णय लिया कि यह सड़ी-गली परंपरा अब किसी काम की नहीं है। उन्होंने वीआईपी कल्चर के युग का अंत करते हुए न केवल राज्य में लाल बत्ती को प्रतिबंधित किया, बल्कि खुद अपनी गाड़ी से लाल बत्ती को हटाकर एक मिसाल कायम की है। इसके बाद मोदी ने भी एक बड़ा फैसला लिया है। हालांकि मोदी से उम्मीद थी कि वह पहले ही इस लाल बत्ती और ऐंबर बत्ती की संस्कृति पर रोक लगाते। यहां तक कि देश के मुख्य न्यायाधीश ने किसी तरह का कानून बनने से पहले ही स्वेच्छा से अपनी गाड़ी से इसे हटा दिया था। इसी के साथ भारत में सामाजिक और राजनीतिक तौर पर एक नए अध्याय की शुरुआत हो रही है। भारत में अति महत्त्वपूर्ण और बिना महत्त्व के लोगों के बीच लीक खींचकर एक नई वर्ग व्यवस्था तैयार कर ली थी। जब मोदी सत्ता में आए थे, तो मैंने इसी कॉलम के जरिए इच्छा जाहिर की थी कि उन्हें सादगी को बढ़ावा देने के साथ-साथ प्रतिष्ठा के प्रतीकों के प्रदर्शन पर रोक लगानी चाहिए, लेकिन इस परिप्रेक्ष्य में वह कोई बड़ा बदलाव नहीं ला पाए। हो सकता है कि दूसरे अहम मुद्दों पर उलझे रहने के कारण वह इस ओर ध्यान न दे पाए हों। सेल्फी से उनके स्नेह या अमरीका के राष्ट्रपति से मुलाकात के वक्त पहने महंगे सूट को भी मैंने कभी सराहा नहीं।

1947 में जब भारत आजाद हुआ, उसी दिन से हमने ब्रिटिश पदचिन्हों पर चलते हुए फिजूलखर्ची और लग्जरी की आदत को अपना लिया। अगर ईमानदारी से विश्लेषण किया जाए, तो आधी धोती पहनकर देश की सेवा करने वाले गांधीजी के प्रति हम खादी पहनकर अपने दिखावटी प्रेम की नुमाइश तो लगा लेते हैं, लेकिन पार्टी कार्यकर्ताओं और नेताओं के जीवन में सादगी लाने में विफल रहे हैं। जब नेहरू के सामने जय प्रकाश नारायण ने विदेशों के अनुरूप जीवन शैली जीने का प्रश्न उठाया, तो उन्हें बड़ा निरर्थक जवाब मिला। इस संदर्भ में सबसे रोचक उद्धरण सरोजिनी नायडु का है, जिन्होंने कहा था, ‘गांधी को गरीब दिखने के लिए बिरला को लाखों खर्च करने पड़े थे।’ तब चाहे जो कुछ भी हुआ हो, लेकिन आज भी हम हर क्षेत्र में कुछेक लोगों को शेष समाज से ज्यादा महत्त्वपूर्ण मानने की परंपरा को ढो रहे हैं। आज सामाजिक और राजनीतिक पदानुक्रम में हर कोई ‘पहले मैं’ की दौड़ में शामिल होने को आतुर दिखता है। लाल बत्ती, ऐंबर बत्ती, विशेषाधिकारों की चाह ने नागरिकों में भेदभाव की परंपरा को बदस्तूर जारी रखा है। यहीं से मनोवृत्ति पैदा होती है कि मैं वीआईपी हूं और पहले मेरी गाड़ी को जाने दिया जाए। सत्ता या पद मिलने के बाद लोगों में अहं रूपी यह विचित्र गुण स्वाभाविक तौर पर देखा जा सकता है। मुझे आज भी याद है कि एक बार इसी कुंठा से ग्रस्त एक नेता मेरे पास आकर कहने लगा, ‘सर, किसी भी तरह से लाल बत्ती दिलवा दीजिए।’ वह उस बत्ती के जरिए ‘पहले मैं’ वाली जमात में शामिल होने के लिए उतावला दिख रहा था। हैरानी नहीं कि इन्हीं परिस्थितियों के परिणामस्वरूप आज दिल्ली में लाल बत्तियों की बिक्री का बड़ा बाजार विकसित हो चुका है।

हैरानी होती है देखकर कि जो देश लखनऊ की ‘पहले आप’ की विशिष्टता वाली संस्कृति की डींगे हाकते नहीं थकता, वहां आधुनिकता और स्पर्धा के प्रभाव में लोगों का व्यवहार एकदम उलट हो गया है। जब आप ट्रेन में सफर कर रहे होंगे, तो गाड़ी के अंदर व बाहर यह दृश्य दिखना लाजिमी है कि लोग बेतहाशा भाग रहे हैं। उन्हें इस बात से भी कुछ लेना-देना नहीं कि गाड़ी की सीटें पहले से ही आरक्षित हैं या गाड़ी को चलने में अभी कुछ वक्त शेष है। कुछ इसी तरह का नजारा हवाई अड्डों पर भी देखने को मिलता है, जहां सभी की सीटें पहले से ही निर्धारित होती हैं, लेकिन हर कोई पहले सीट तक पहुंचने की चाह में बस से उतरते ही दौड़ना शुरू कर देता है। जब विमान उतर रहा होता है, तो तब भी कुछ ऐसी ही कहानी देखने को मिलती है। अभी विमान पूरी तरह से ठहरा भी नहीं होता कि हर यात्री पहले सीट छोड़ने की होड़ में लग्गेज चेस्ट खोलना शुरू कर देता है। एक बार पहले बैग लेने की जल्दबाजी में एक व्यक्ति ने मुझे टक्कर मार दी। यह मेरा कोई सौभाग्य ही रहा होगा कि मुझे कोई गंभीर चोट नहीं आई। हर यात्री इस बात को लेकर भी आश्वस्त होता है कि वह बाहर आ ही जाएगा, लेकिन फिर भी हर किसी को दूसरों से पहले बाहर निकलना है। अभी कुछ समय पहले दिल्ली मेट्रो में सफर करने का एक नया अनुभव मिला। वहां भयानक भीड़ जमा थी और जैसे ही गाड़ी स्टेशन पर पहुंची, हर किसी ने तेजी से उस ओर भागना शुरू कर दिया। लोगों का मकसद एक-दूसरे को पीछे धकेलते हुए, धक्कमधक्का करते हुए, बिना उम्र का लिहाज किए बदसलूकी करते हुए, बिना कतार में लगे या यूं कहिए कि कैसे भी करके पहले गाड़ी पर चढ़ना था। कई देशों में यात्री गाड़ी से उतरते या चढ़ते वक्त कतार में व्यवस्थिति ढंग से खड़े होते हैं, लेकिन भारत में ऐसा कोई रिवाज ही नहीं है। यहां पहले अंदर आने का एक अनूठा के्रज है।

मैंने अकसर देखा है कि बुजुर्गों या महिलाओं के लिए जो सीटें आरक्षित होती हैं, उन पर भी अकसर कोई युवा बैठा होता है। उन्हें इस बात की कोई परवाह नहीं होती कि कोई बुजुर्ग या छोटा बच्चा उठाए महिला चलती ट्रेन में खड़ी होकर सफर कर रही है। सड़क पर भी जब कोई वाहन आगे निकलने की होड़ में अपनी साइड छोड़कर, गलत साइड चलता है, तो उससे कई मर्तबा जाम लग जाता है। जब तयशुदा नियमों को दरकिनार करके कोई पुरुष या महिला ‘पहले मैं’ के चक्कर में कतार तोड़ने का दुस्साहस करता है, तो उससे दोनों तरफ की आवाजाही अवरुद्ध हो जाती है। लेकिन हमारे देश में आज यह सामान्य सी बात है। उस जाम में उलझकर फिर हम घंटों बर्बाद कर लेंगे, लेकिन कतार में चलते हुए चंद मिनटों का इंतजार करना हमें मंजूर नहीं। एक बार मैं कतार में खड़े होकर किसी दफ्तर में अपनी बारी का इंतजार कर रहा था। तभी एक महिला ने आकर मुझसे पूछा, ‘क्या यहां खड़ा होने के लिए किसी पंक्ति की व्यवस्था है?’ मैंने उन्हें बताया कि मैं भी पंक्ति में खड़ा हूं, लेकिन उसने ऐसा भाव बनाया कि मेरी बात को उसने सुना ही नहीं और काउंटर पर जाकर काम करवाकर वह चलती बनीं। मैं मन ही मन कुढ़ता रहा और कुछ ही घडि़यों में वह वहां से चली गईं। इसी तरह का एक और प्रकरण याद आया है। एक बार कनाडा में मैंने कतार में अपनी बारी का इंतजार करने के बजाय मैं सीधे काउंटर पर चला गया। लेकिन काउंटर पर बैठी कर्मचारी ने मेरा काम नहीं किया और मुझे कतार में लगने के लिए कहा। भारत में तो कतार तोड़कर आगे जाने वालों के प्रति काउंटर पर बैठे कर्मचारी भी कोई परवाह नहीं करते और सामान्य रूप से उनका कार्य भी कर देते हैं। दूसरों को पीछे छोड़कर आगे बढ़ने का जो यह उन्माद समाज में घर कर चुका है, उसके खिलाफ अब समाज की चेतना को जगाने का सही वक्त है। कतार का उल्लंघन करने वालों, विशेष कर सड़क पर, से सख्ती से निपटने का वक्त आ गया है। संबंधित अथॉरिटी को इस तरह के अनुचित व्यवहार को नजरअंदाज करने के बजाय एक व्यवस्थित क्रम में आगे बढ़ाने के लिए गंभीरता के साथ प्रयास करने होंगे। सिर्फ गाडि़यों से लाल बत्ती हटाना पर्याप्त नहीं होगा, बल्कि अब इस समूची परंपरा में बदलाव लाने की जरूरत महसूस हो रही है।

बस स्टैंड

पहला यात्री : कांग्रेस के सारे नेता समय-समय पर दिल्ली के लिए दौड़ क्यों लगाते रहते हैं?

दूसरा यात्री : एक नेता ने मुझे बताया कि वह मछली मारने गया था, लेकिन उसके हाथ कुछ लगा नहीं।

ई-मेलः singhnk7@gmail.com


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