बात हिमाचली अस्तित्व की

By: Apr 15th, 2017 12:02 am

सरकारी तजुर्बे का सारांश तो बताएगा कि यह दिन यानी हिमाचल दिवस, प्रदेश के अस्तित्व की चुनौतियों को दूर करने की इबादत सरीखा है। यह हुआ भी और इस तरह का मूल्यांकन आवश्यक है, फिर भी राज्य की तस्वीर को हम ऐसी प्रशंसा के फ्रेम में टांग कर मुकम्मल नहीं मान सकते। हिमाचली अस्तित्व की रूपरेखा में, राज्य को विशिष्टता के आधार पर परखने की कई परीक्षाएं अभी बाकी हैं। यह इसलिए क्योंकि जनता की राजनीतिक जागरूकता और आर्थिक महत्त्वाकांक्षा के बीच राज्य की अपनी काबिलीयत का असंतुलित दोहन अभी जारी है। वोट के हिसाब से जनता तक पहुंचे संबोधन, राज्य  के खजाने पर भारी पड़े तो काम की परिभाषा में सियासी सरहदों ने भी राज्य  के फर्ज को बांट दिया। ऐसे में हिमाचली संदर्भों को केवल जनता के मिजाज से जोड़ने का हर्जाना चुकता करना पड़ा और बढ़ते ऋण बोझ का सबसे बड़ा कारण भी यही है। सरकारों ने जनता के दर्पण में बड़ा करके  दिखाने में यथार्थवादी चित्रण नहीं किया। आर्थिक संसाधनों को बढ़ाने के  बजाय सरकार के कद को लगातार विस्तृत किया गया। हिमाचल की चादर छोटी रही, लेकिन पांव तन कर इससे बाहर निकल गए। फिजूलखर्ची का आलम यह है कि सियासी नियुक्तियों को सत्ता ने अपनी पोशाक बना लिया और कमाने के बजाय निगम तथा बोर्ड, हारे हुए नेताओं का पुनर्वास करने लगे। प्रगतिशील हिमाचल आज भी भौगोलिक असंतुलन के बहाने क्षेत्रवाद की चोटियां खोजता है और इसीलिए जीवन के व्यवहार में भी सियासत की ताजपोशी हो रही है। राजनीतिक दखल हम पर इस कद्र हावी है कि एक पंचायत चुनाव किसी गांव के रिश्तों पर भारी पड़ जाता है और प्रश्रय इस काबिल कि कोई नालायक कर्मचारी भी वर्षों तक एक ही जगह पर समाया रहता है। राजनीति और नागरिक जरूरत के बीच मूल्यांकन तो राजनेताओं को ही करना है, लिहाजा वोट के लिए विकास होने लगा है। संघर्ष के हिसाब से भी संगठन सक्रिय हैं और राजनीति के ताबूत इतने बड़े कि राज्य के हितों को सुला दें। बेशक हिमाचल ने साक्षरता दर के हिसाब से देश में आगे चलना सीखा, लेकिन क्या शिक्षा आगे चली। स्कूल-कालेजों की तादाद ने शिक्षा में नेताओं को शक्तिशाली बना दिया, लेकिन पढ़े-लिखे युवा को पीछे कर दिया। हम प्रगतिशील हो गए, इसलिए खेत पर बाहरी मजदूर काम कर रहा है। हम उपभोक्तावादी बन गए, इसलिए दूध-दही से लस्सी तक भी दूसरे प्रदेशों से आती है। हम मेडिकल शिक्षा में प्रति व्यक्ति के हिसाब से कई संस्थान खड़े कर रहे हैं, लेकिन बीमार को बचाने के लिए तो हिमाचल के बाहर ही भटकना पड़ता है। इसमें दो राय नहीं कि हिमाचल ने तरक्की कितनी की, लेकिन प्रदेश और परिवेश कहां पहुंच गया। क्या हम अपने ही प्रदेश को ठेकेदारों का प्रदेश नहीं बना रहे और क्यों ऐसा लगने लगा कि विकास के पत्तों पर भ्रष्टाचार बंट रहा है। क्या ठेकेदारी प्रथा पर सियासी नियंत्रण नहीं और यह भी कि जब सारा कार्य हो ही आउटसोर्स के तरीके से रहा, तो फिर इतने सारे कार्यालय और उनके बहाने अधिकारी वर्ग का प्रसार हो किस लिए। अब तो ट्रांसफर नेटवर्क में हिमाचल की सरकारी कार्य संस्कृति व्यवहार करती है और इसीलिए हम विधायक की योग्यता व प्रदर्शन को भी किसी स्थानांतरण से जोड़कर देखते हैं। आश्चर्य यह कि पहाड़ी नदियां उसी रफ्तार से ग्लेशियरों को चूस कर हमारे बगल से निकल जाती हैं, लेकिन घर के नलके का हलक सूखा रहता है। अपने जल संसाधनों को हम बेडि़यों पहनाकर इस कद्र बैठे हैं कि हिमाचली अधिकारों पर लड़ने की राजनीतिक सहमति व सोच तक नहीं। कहां तो उत्तराखंड हाई कोर्ट ने गंगा-यमुना को जीवित अधिकार देने की पहल की और कहां हिमाचल इस दिशा में एक कदम भी नहीं उठा पाया। तरक्की के इतने दशकों  के बीच कहां गई हमारी प्राकृतिक झीलें, तालाब और बावडि़यां। शिमला को पीलिया इसी तरक्की ने दिया और राजधानी में नासूर की तरह तड़पते मंजर में इतने सारे जल संसाधनों का करें क्या। क्या हम केवल भाखड़ा, पौंग या श्रीरेणुकाजी बांध जैसी परियोजनाओं में डूबने को ही उन्नति मांनेंगे। विस्थापित होकर मिले चंद सिक्कों की पूजा करें या सोचें कि हिमाचल ने राजस्थान को हरा-भरा करके भी क्यों अपने खेत को प्यासा कर रखा है। हमारी तरक्की में यकीनन फोरलेन तक पहुंची सड़कों को वरदान की तरह देखा जाएगा, लेकिन विस्थापित हो रहे समुदाय के अधिकारों को भी तो कुछ इंच कच्ची पगडंडी चाहिए। बेशक हिमाचली खून में कुर्बानी के सारे कतरे मौजूद हैं, लेकिन शहादत के आधार पर हमारी शक्ति को विरासत कहां मिली। जिस डोगरा रेजिमेंट के नाम पर हम पहचाने जाते हैं, उसका मुख्यालय भी जमीन से दूर और हिमाचल या हिमालय रेजिमेंट की तो दरख्वास्त भी देश हमारे नाम से कबूल नहीं करता है।


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