लोकतंत्र की नई खिड़की

By: Apr 6th, 2017 12:05 am

पीके खुरानापीके खुराना

पीके खुराना लेखक, वरिष्ठ जनसंपर्क सलाहकार और विचारक हैं

धमीजा का मानना है कि हमें खुले दिमाग से सोचना चाहिए। बंद दिमाग या तंग दिमाग समाज के पतन का कारण बनता है। प्रभात प्रकाशन द्वारा प्रकाशित धमीजा की पुस्तक हिंदी में होने के कारण एक बड़े पाठकवर्ग तक पहुंचेगी और शायद यह संभव हो सकेगा कि देश की जनता व नेतागण नए विकल्पों के बारे में सोचना आरंभ कर दें, ताकि हमारी सरकार सच्चे अर्थों में ‘जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता की सरकार’ बने…

भारतवर्ष को विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र माना जाता है और हम भारतीय अपने अनूठे संविधान पर बहुत गर्व करते हैं। भारतीय संविधान की मूल भावना को ‘जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता की सरकार’ के रूप में व्यक्त किया गया है। यानी हमारे संविधान निर्माता हर स्तर पर आम आदमी और सरकार और प्रशासन में उसकी भागीदारी को सर्वोच्च प्राथमिकता देने के लिए कटिबद्ध थे। यही नहीं, इस लोकतंत्र की परिकल्पना में भारतीय प्रशासनिक एवं राजनीतिक प्रणाली की संरचना इस प्रकार करने का प्रयास किया गया था कि यह एक लोक-कल्याणकारी राज्य बने, जिसमें हर धर्म, वर्ग, जाति, लिंग और समाज के व्यक्ति को देश के विकास में भागीदारी के बराबर के अवसर मिलें। लोकतंत्र की सफलता की मूल शर्त यह है कि ‘तंत्र’, ‘लोक’ पर हावी न हो। लोकतंत्र का दूसरा अहम पहलू यह है कि शासन में जनता की सशक्त और सार्थक भागीदारी हो, महत्त्वपूर्ण विषयों पर निर्णय लेने में और कानून बनाने में जनता की राय की अहमियत हो। हमारे देश में संसदीय प्रणाली लागू है, जो मुख्यतः ब्रिटिश संविधान से पे्ररित है। हमारी सरकार विधायिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका नामक तीन अंगों में बंटी हुई है। जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों का समूह विधायिका है, जिसका मुख्य कार्य पुराने कानूनों की समीक्षा करना, आवश्यकतानुसार उनमें संशोधन करना, उन्हें निरस्त करना और नए कानून बनाना है। सरकार का दूसरा अंग, कार्यपालिका, कानून को लागू करने और संविधानसम्मत कानूनों के अनुसार शासन चलाने वाला अंग है। बहुमत प्राप्त दल अथवा गठबंधन का नेता केंद्र में प्रधानमंत्री और राज्य में मुख्यमंत्री होता है, जो अपने दल अथवा गठबंधन में से अपने मनपसंद के सदस्यों को मंत्रिपरिषद के लिए नामित करता है।

सरकार का तीसरा अंग न्यायपालिका है, जो संविधान और कानूनों की व्याख्या करती है और संविधान के मूल स्वरूप को अक्षुण्ण बनाए रखने का काम करती है तथा दो या अधिक पक्षों में विवाद की स्थिति में न्याय देती है। सरकार की इस प्रणाली को संसदीय प्रणाली इसलिए कहा गया, क्योंकि यह माना गया कि इस प्रणाली में संसद सर्वोच्च है, क्योंकि वह कानून बनाती है। न्यायपालिका उनकी व्याख्या करती है और कार्यपालिका उन कानूनों के अनुसार शासन चलाती है। संसद की सर्वोच्चता का दूसरा अर्थ यह है कि मंत्रिगण अपने हर कार्य के लिए संसद के प्रति उत्तरदायी हैं और यदि प्रधानमंत्री या उनकी मंत्रिपरिषद का कोई सदस्य ऐसा करने में विफल रहे तो संसद उन्हें हटा दे। परिकल्पना के रूप में यह एक उत्तम विचार है, लेकिन व्यावहारिक स्थिति का विश्लेषण किए बिना किसी निर्णय पर पहुंचना तर्कसंगत नहीं है। चुनाव में बहुमत प्राप्त करने वाले दल अथवा गठबंधन का नेता केंद्र में प्रधानमंत्री बनता है और अपनी मंत्रिपरिषद के सदस्य चुनता है। व्यवस्था यह है कि संसद कानून बनाएगी और प्रधानमंत्री के नेतृत्व में कार्यपालिका उसे लागू करेगी, लेकिन व्यवहार में यहां कई पेंच छिपे हुए हैं। पहला तो यह कि यदि सरकार का कोई प्रस्ताव संसद में गिर जाए तो पूरे मंत्रिमंडल को इस्तीफा देना पड़ेगा, इसलिए सरकार की ओर से ऐसा कोई बिल पेश ही नहीं किया जाता जिसके पास होने की गारंटी न हो।

दूसरा यह कि सरकार को बचाए रखने के लिए बहुमत प्राप्त दल का हर सदस्य अपनी पार्टी के बिल के पक्ष में वोट देने के लिए विवश है चाहे वह उसे सही मानता हो या नहीं। यही नहीं, कोई भी सांसद जल्दी-जल्दी चुनाव नहीं चाहता, इसलिए बहुत बार तो विपक्ष के सदस्य भी सदन से गैर हाजिर रहकर किसी ऐसे बिल को पास होने देते हैं, जिससे वे या उनका दल नीतिगत रूप से सहमत नहीं थे। तीसरा पेंच यह है कि प्रधानमंत्री को संसद भंग करने और मध्यावधि चुनाव करवाने की सिफारिश करने का अधिकार है इसलिए कार्यपालिका, संसद पर हावी है और स्थिति उलट गई है कि वस्तुतः संसद, कार्यपालिका के नियंत्रण में आ गई है।संसद की शक्तियों के क्षरण की सीमा यह है कि संसद अपनी मर्जी से कोई कानून पास नहीं कर सकती, क्योंकि प्रधानमंत्री के दल का बहुमत है और संसद में सिर्फ वही बिल पास होते हैं जो या तो सरकार द्वारा लाए जाते हैं या उन्हें सरकार का समर्थन प्राप्त होता है। परिणाम यह है कि दशकों के संसदीय इतिहास में केवल 14 निजी बिल कानून बन सके हैं और सन् 1970 के बाद एक भी निजी बिल कानून नहीं बन पाया है। कानून बनाने में विपक्ष की भूमिका सिर्फ आलोचना करने तक सीमित है, वह न कोई कानून बनवा सकता है और न रुकवा सकता है। ऐसे में यह धारणा कि संसद कानून बनाती है, असल में गलत है। सच्चाई यह है कि सरकार ही कानून बनाती है और सरकार ही कानून लागू भी करती है। सरकार के तीन अंगों का महत्त्व यह था कि तीनों अंगों में शक्तियों का तर्कसंगत बंटवारा हो, ताकि शासन व्यवस्था सुचारू रूप से चले और तानाशाही का कोई संदेह बाकी न रहे। इतिहास गवाह है कि हर शक्तिशाली प्रधानमंत्री लगभग तानाशाह सा व्यवहार करता है। इंदिरा गांधी ने तो सिर्फ अपनी कुर्सी बचाने के लिए देश पर इमर्जेंसी थोप दी थी, नागरिकों के मौलिक अधिकार स्थगित कर दिए थे, संविधान में मनचाहे संशोधन करवा लिए थे, संसद का कार्यकाल पांच वर्ष से बढ़ाकर छह वर्ष करवा लिया था और सारे विपक्षी नेताओं को जेल में डाल दिया था।

वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी उतने ही शक्तिशाली हैं और मंत्रिमंडल की राय के बिना भी उन्होंने अचानक नोटबंदी कर दी। मोदी का यह निर्णय कितना सही या गलत था, यह तो भविष्य बताएगा, पर मुद्दे की बात यह है कि एक व्यक्ति, केवल एक व्यक्ति पूरे देश की व्यवस्था को मनचाहे ढंग से बदल सकता है। तानाशाही और किसे कहते हैं? संसदीय व्यवस्था की एक और कमी यह है कि इसमें मंत्री को ज्ञान अथवा अनुभव के आधार पर नहीं, बल्कि अकसर धर्म, जाति, क्षेत्र और लोकप्रियता के आधार पर चुना जाता है। इंग्लैंड के एक पूर्व प्रधानमंत्री ग्लैडस्टोन ने संसदीय प्रणाली पर चुटकी लेते हुए सच ही कहा था कि विश्व में ऐसा कोई अन्य व्यक्ति नहीं है, जिसका औपचारिक पद या विशेषाधिकार दिखने में इतने कम हों, पर शक्तियां इतनी अधिक! भानु धमीजा की प्रसिद्ध पुस्तक ‘व्हाई इंडिया नीड्स दि प्रेजिडेंशियल सिस्टम’ में ऐसी कई घटनाओं का विस्तृत विवेचन है और उन्होंने संसदीय प्रणाली तथा राष्ट्रपति प्रणाली की गहराई से तुलना की है। उनकी इस पुस्तक का हिंदी संस्करण  ‘भारत में राष्ट्रपति प्रणाली ः कितनी जरूरी, कितनी बेहतर’ भी अब उपलब्ध है जो हमारे समाज की सोच की एक नई दिशा देने में समर्थ है। लोकतंत्र की सफलता के शक्तियों के तर्कसंगत बंटवारे का मूलमंत्र भुला देना लोकतंत्र के लिए घातक सिद्ध हो सकता है। आज नहीं तो भविष्य में कोई अन्य नेता तानाशाह बन सकता है, अतः धमीजा का मानना है कि हमें खुले दिमाग से सोचना चाहिए। बंद दिमाग या तंग दिमाग समाज के पतन का कारण बनता है। प्रभात प्रकाशन द्वारा प्रकाशित धमीजा की पुस्तक हिंदी में होने के कारण एक बड़े पाठकवर्ग तक पहुंचेगी और शायद यह संभव हो सकेगा कि देश की जनता व नेतागण नए विकल्पों के बारे में सोचना आरंभ कर दें, ताकि हमारी सरकार सच्चे अर्थों में ‘जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता की सरकार’  बने और हम विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के विचार से आगे बढ़कर विश्व के सर्वाधिक समर्थ लोकतंत्र बनकर प्रगति पथ पर अग्रसर हों।

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